Book Title: Sanskrit Vangamay Kosh Part 01
Author(s): Shreedhar Bhaskar Varneakr
Publisher: Bharatiya Bhasha Parishad

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Page 433
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (काव्यालंकार 2-39, 40)। मेधाविरुद्र को "संख्यान" अलंकार की उद्भावना करने का श्रेय दंडी ने दिया है। राजशेखर ने प्रतिभा के निरूपण में इनका उल्लेख किया है और बताया है कि वे जन्मांध थे। नमिसाधु इन्हें किसी अलंकार-ग्रंथ का प्रणेता भी मानते हैं। मेधावी - गुरुनाम- जिनचन्द्र सूरि । ग्रंथ - धर्मसंग्रह-श्रावकाचार (10 अधिकार) जो वि.सं. 1541 में समाप्त हुआ। प्रस्तुत ग्रंथ पर समन्तभद्र वसुनन्दि और आशाधर का प्रभाव है। मेधाव्रत शास्त्री . ई. 20 वीं शती का पूर्वार्ध । जन्म, नासिक के समीप येवला ग्राम में, सन् 1893 में। मूलतः गुजराती आर्यसमाजी। पिता -जगजीवन। माता-सरस्वती। प्राथमिक शिक्षा सिकन्दराबाद के गुरुकुल में। तत्पश्चात् वृन्दावन में। 1918 में कोल्हापुर के वैदिक विद्यालय के अध्यक्ष । सन् 1920 से 25 तक सूरत में अध्यापक। सन् 1925 में इटोला-गुरुकुल के आचार्य। सन् 1941 में नौकरी छोड कर अनेक प्रदेशों में भ्रमण करते हुए वेदों का प्रचार किया। सन् 1947 में वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश। बाद में नरेला तथा चित्तोडगढ के गुरुकुलों के प्राचार्य । दण्डकारण्य के निकट कुसूर ग्राम में दिव्यकुंज उपवन की स्थापना की। संस्कारादि कराने में दक्ष। योगाभ्यास में निपुण। पांचवें वर्ष से ही काव्य-सर्जन। सन् 1964 में मृत्यु। कृतियां- (चरित्र ग्रंथ) दयानन्द-दिग्विजय (महाकाव्य), हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित, ब्रह्मर्षि विरजानन्द-चरित, नारायणस्वामिचरित, नित्यानन्द-चरित, ज्ञानेन्द्रचरित, विश्वकर्माद्भुतचरित व संस्कृतकथामंजरी। (काव्य - दयानन्दलहरी, दिव्यानन्दलहरी, सुखानन्दलहरी, ब्रह्मचर्यशतक, गुरुकुलशतक व ब्रह्मचर्यमहत्त्व। लघुकाव्य - वैदिक राष्ट्रकाव्य, मातः प्रसीद प्रसीद, वाङ्मन्दाकिनी, सरस्वती-स्तवन, मातः का ते दशा, श्रीरामचरितामृत, श्रीकृष्णचन्द्रकीर्तन, श्रीकृष्णस्तुति, विक्रमादित्य-स्तवन, नर्मदास्तवन, सत्यार्थप्रकाश-महिमा, दिव्यकुंजयोगाश्रमवर्णन, लालबहादुर शास्त्रिप्रशस्ति, श्रीवल्लभाष्टक, दामोदर-शुभाभिनन्दन, तद्भारतवैभवम्, मातृविलाप, विमानयात्रा, चित्तौडदुर्ग व देशोन्नति। (गद्य) - कुमुदिनीचन्द्र, शुद्धिगङ्गावतार व हिन्दुस्वराज्यस्य प्रभातकालः। (नाटक) - प्रकृति-सौन्दर्यम्। मेरुतुंग सूरि (प्रथम) - इस नाम के अनेक विद्वान् आचार्य हुए हैं। उनमें प्रथम थे प्रथम नागेन्द्रगच्छ के चन्द्रप्रभ के शिष्य। ग्रंथ - 1) महापुरुष-चरित (धर्मोपदेशशतक या काव्योपदेश शतक), स्थविरावली (विचारश्रेणी) और 3) प्रबंधचिंतामणि (संवत् 1361), वढमाण- (वर्धमानपुर) में रचित। पांच प्रकाशों और 11 प्रबन्धों में विभक्त । ऐतिहासिक उपाख्यानों से युक्त। इसमें वि.सं. 940-1250 तक के गुजरात का सामान्य इतिहास होने से इतिहास और संस्कृति की दृष्टि से भी अत्यंत उपयोगी ग्रंथ। इसमें विक्रमादित्य, सातवाहन, भूपराज, चालुक्य कुमारपाल आदि राजाओं का वर्णन है। अपने युग (ई. 1304) का वर्णन कुछ भी नहीं। प्रस्तुति-पद्धति आकर्षक है। मेरुतुंग (द्वितीय) - ग्रंथ :- संभवनाथ-चरित (सं. 1413) तथा कामदेवचरित्र (सं. 1409)। मेरुतुंग (तृतीय) - महेन्द्रसूरि के शिष्य । ग्रंथ- नाभाकनृपकथा, जैनमेघदूत (सटीक), कातन्त्र व्याकरणवृत्ति, षङ्दर्शननिर्णय आदि । मैक्समूलर - इन्होंने अपना सारा जीवन संस्कृत, विशेषतः वैदिक वाङ्मय के अध्ययन व अनुशीलन में लगा दिया था। इनका जन्म जर्मनी के देसाउ नामक नगर में 6 दिसंबर 1823 ई. को हुआ था। इनके पिता प्राथमिक पाठशाला के शिक्षक थे। पिता का देहांत 33 वर्ष की आयु में ही हो गया था। उस समय मैक्समुलर की आयु 4 वर्ष की थी। 6 वर्ष से 12 वर्ष की आयु तक इन्होंने ग्रामीण पाठशाला में ही अध्ययन किया। फिर लैटिन भाषा के अध्ययन के लिये इन्होंने 1836 ई. में लिजिग विश्वविद्यालय में प्रवेश किया और 5 वर्षों तक वहां अध्ययन करते रहे। अल्पायु में ही इन्हें संस्कृत भाषा के अध्ययन की रुचि उत्पन्न हो गई थी। विश्वविद्यालय छोडने के बाद ही ये जर्मनी के राजा द्वारा इंग्लैण्ड से खरीदे गए संस्कृत-साहित्य के बृहद् पुस्तकालय को देखने के लिये बर्लिन गए। वहां उन्होंने वेदान्त व संस्कृत-साहित्य का अध्ययन किया। बर्लिन का कार्य समाप्त होते ही वे पेरिस गए। वहां इन्होंने एक भारतीय की सहायता से बंगला भाषा का अध्ययन किया और फ्रेंच भाषा में बंगला का एक व्याकरण लिखा। वहीं रहकर इन्होंने ऋग्वेद पर रचित सायणभाष्य का अध्ययन किया। इन्होंने 56 वर्षों तक अनवरत गति से संस्कृत-साहित्य व ऋग्वेद का अध्ययन किया, और ऋग्वेद पर प्रकाशित हुई विदेशों की सभी टीकाओं को एकत्र कर उनका अनुशीलन किया। इन्होंने सायण-भाष्य के साथ ऋग्वेद का अत्यंत प्रामाणिक शुद्ध संस्करण प्रकाशित किया, जो 6 सहस्र पृष्ठों एवं 4 खंडों में समाप्त हुआ। इस ग्रंथ का प्रकाशन, ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से 14 अप्रैल 1847 ई. को हुआ। मैक्समुलर के इस कार्य की तत्कालीन यूरोपियन संस्कृतज्ञों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की। फिर अपने अध्ययन की सुविधा देख कर मैक्समूलर इंग्लैण्ड चले गए और मृत्यु पर्यन्त लगभग 50 वर्षों तक वहीं रहे। इन्होंने 1859 ई. में अपना विश्वविख्यात ग्रंथ संस्कृत साहित्य का प्राचीन इतिहास लिखा और वैदिक साहित्य की विद्वत्तापूर्ण समीक्षा प्रस्तुत की। 1 जुलाई 1900 में मैक्समुलर रोग ग्रस्त हुए और रविवार 18 अक्तूबर को उनका निधन हो गया। इन्होंने भारतीय साहित्य और दर्शन के अध्ययन और अनुशीलन में यावज्जीवन घोर परिश्रम किया। इन्होंने तुलनात्मक भाषाशास्त्र एवं नृतत्वशास्त्र के आधार पर संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड /417 For Private and Personal Use Only

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