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की दीक्षा दें। अच्युतप्रेक्ष ने उन्हें संन्यास की दीक्षा नहीं दी परंतु उन्हें अपने सान्निध्य में रख लिया। माता-पिता को इस बात का समाचार मिलते ही वे दोनों, पुत्र को घर लौटा लाने के लिये उडुपि गये। उन्होंने मध्वाचार्य को संन्यासधर्म ग्रहण करने से परावृत्त करने का प्रयत्न किया। परंतु मध्वाचार्य अपने निश्चय से डिगे नही किंतु उन्होंने पिता से कहा कि जब तक उनके एक और भाई नहीं होता तब तक वे घर पर रहेंगे तथा संन्यासदीक्षा ग्रहण नहीं करेंगे। इसके पश्चात् अल्पावधि में ही मध्वाचार्य की माता गर्भवती हुई तथा यथाकाल उनके एक पुत्र हुआ। इसके बाद मध्वाचार्य पुनश्च उडुपी गए तथा उन्होंने अच्युतप्रेक्ष से संन्यासदीक्षा ग्रहण की। उनका नाम पूर्णप्रज्ञतीर्थ रखा गया था परंतु लोगों में उनका मध्वाचार्य नाम ही प्रचलित रहा। मनु वैवस्वत - ऋग्वेद के 8 वें मंडल के 27 से 31 तक के सूक्तों के द्रष्टा। इन सब सूक्तों का विषय विश्वेदेवस्तुति है। इनमें से 29 वां सूक्त प्रसिद्ध कूटसूक्त है। उसमें 10 ऋचायें है। प्रत्येक ऋचा की स्वतंत्र देवता का स्थूल चिन्ह से कूटसदृश उल्लेख इस प्रकार है
1. बभ्र (सोम), 2. योनि (अग्नि), 3. वाशी. (त्वष्टा), 4. वज्र (इंद्र), 5. जलाषभेषज (रुद्र), 6. पथ (पूषा), 7. उरुधनु (विष्णु), 8. सहप्रवासी (अश्विनीकुमार), 9. सम्राट (मित्रावरुण), 10. सूर्यप्रकाश (अत्रि अथवा सूर्य)। ___30 वें सूक्त की देवता अश्विनी है। 31 वें सूक्त में यजमान-प्रशंसा, दंपतीप्रशंसा तथा दंपती को आशीर्वाद है। इसे ऋग्वेद में मनुसावर्णी संज्ञा है। कहते हैं कि वैवस्वत इनका पैतृक नाम है और सावर्णी मातृवंशसूचक नाम है।
यदु, तुर्वश, मनु वैवस्वत के समकालीन तथा मांडलिक थे। ये इंद्र के कृपापात्र थे। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार जलप्रलय से जगत् की इन्होंने रक्षा की थी। ये दानशूर थे। मम्मटाचार्य - समय- ई. 12 वीं शती। 'राजानक' की उपाधि । इनके नाम से ज्ञात होता है कि ये काश्मीर निवासी रहे होंगे। इन्होंने 'काव्यप्रकाश' नामक युगप्रवर्तक काव्यशास्त्रीय ग्रंथ का प्रणयन किया है जिसकी महत्ता व गरिमा के कारण ये 'वाग्देवतावतार' कहे जाते हैं। 'काव्यप्रकाश' की 'सुधाकर' नामक टीका के प्रणेता भीमसेन दीक्षित ने इन्हें काश्मीरदेशीय जैयट का पुत्र तथा पतंजलिकृत 'महाभाष्य' के टीकाकार कैयट एवं चतुर्वेदभास्कर उव्वट का ज्येष्ठ भ्राता माना है। पर इस विवरण को आधुनिक विद्वान् प्रामाणिक नहीं मानते। इसी प्रकार नैषधकार श्रीहर्ष को मम्मट का भागिनेय कहने की अनुश्रुति भी पूर्णतः संदिग्ध है, क्यों कि श्रीहर्ष काश्मीरी नहीं थे। 'अलंकारसर्वस्व' के प्रणेता रुय्यक ने 'काव्यप्रकाश' की टीका लिखी है और इसका उल्लेख भी किया है। रुय्यक का समय 1128-1149 ई. के आसपास है। अतः मम्मट
का समय उनके पूर्व ही सिद्ध होता है। यह अवश्य है कि रुय्यक, मम्मट के 40 या 50 वर्ष बाद ही हुए होंगे।
'काव्यप्रकाश' के प्रणेता के प्रश्न को लेकर भी विद्वानों में मतभेद है कि मम्मट ने संपूर्ण ग्रंथ की रचना अकेले नहीं की है। परंतु अनेक प्रमाणों के आधार पर आचार्य मम्मट ही इस संपूर्ण ग्रंथ के प्रणेता सिद्ध होते हैं। काव्यप्रकाश के अतिरिक्त शब्दव्यापारविचार तथा संगीतरत्नावली नामक दो अन्य ग्रंथ भी इन्होंने लिखे हैं। ___ इनका प्रमुख ग्रंथ काव्यप्रकाश, संस्कृत- साहित्य शास्त्र का आकरग्रंथ माना जाता है। उसके संबंध में कहा जाता है कि "काव्यप्रकाशस्य कृता गृहे गृहे टीका तथाप्येष तथैव दुर्गमः" अर्थात् काव्यप्रकाश पर घर-घर में टीका लिखी गई, परंतु वह दुर्गम ही है। मन्यु तापस- ऋग्वेद के 10 वें मंडल के 83 वें तथा 84 वें सूक्त के दृष्टा । इन सूक्तों में रणदेवता की स्तुति है जैसे :
अग्निरिव मन्यो त्विषितः सहस्य-सेनानीनः सहुरे हूत एधि । हत्वाय शत्रुन् विभजस्व वेद ओजो मिमानो वि कृधो नुदस्व ।। (10-84-2) अर्थ- अग्निशिखासदृश, तेजस्वी, शत्रुसंहारक, युद्धनिमंत्रित तथा बलदाता मन्युदेवता हमारे सेनापति होकर आप हमें विपुल धन दें। यही सूक्त अथर्ववेद में भी है। (4-31-32) । मय- दक्षिण भारत के एक शिल्पशास्त्रज्ञ। इन्होंने शिल्पशास्त्र पर मयमत, मयशिल्प, मयशिल्पशतिका तथा शिल्पशास्त्रविधान नामक चार ग्रंथ लिखे हैं। अंतिम ग्रंथ में पांच प्रकरण हैं तथा उसमे मूर्ति-रचना का ऊहापोह है। मयूरभट्ट - समय- ई. 7 वीं शती। काशी के पूर्व में निवास । 'सूर्यशतक' के रचयिता। संस्कृत में मयूर नामक कई लेखक मिलते हैं उदाहरणार्थ बाण के संबंधी मयूरभट्ट, ‘पद्मचंद्रिका' नामक ग्रंथ के लेखक मयूर, सिंहलद्वीप के लेखक मयूरपाद थेर आदि। किंतु 'सूर्यशतक' के प्रणेता मयूरभट्ट इन सभी से भिन्न एवं प्राचीन हैं। ये बाणभट्ट के समकालीन थे और दोनों हर्षवर्धन की सभा में सम्मान पाते थे। ये बाण के संबंधी, संभवतः जामात कहे गए हैं। कहा जाता है कि इन्हें कुष्ठ-रोग हो गया था और उसकी निवृत्ति के के लिये इन्होंने 'सूर्यशतक' की रचना की थी। बाण और मयूर के संबंध में एक आख्यायिका प्रचलित है :- एक बार रात्रि को बाण पति-पत्नी का प्रेमकलह हुआ। तब बाण ने पत्नी को प्रसन्न करने के लिये निम्न श्लोक कहना प्रारम्भ कियागतप्राया रात्रिः कृशतनु शशी शीर्यत इव
प्रदीपोऽयं निद्रावशमुपगतो घूर्णत इव। प्रणामान्तो मानस्त्यजसि न तथापि क्रुधमहो।।
संयोगवश तभी मयूर वहां बाण से मिलने के लिये
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 409
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