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के साथ प्रकाशन, "भासनाटकचक्रम्" के नाम से "चौखंबा संस्कृत सीरीज" से हो चुका है। भास के संबंध में विविध ग्रंथों में अनेक प्रकार के प्रशंसा वाक्य प्राप्त होते हैं। संस्कृत के अनेक प्रसिद्ध साहित्यकारों ने भी भास का महत्त्व स्वीकार किया है। महाकवि कालिदास ने अपने 'मालविकाग्निमित्र' नामक नाटक की प्रस्तावना में भास की प्रशंसा की है। इनके नाटक दीर्घ काल तक अज्ञात अवस्था में पडे हुए थे। 20 वीं शती के प्रथम चरण के पूर्व तक, भास के संबंध में कतिपय उक्तियां ही प्रचलित थीं। इनके नाटकों का उद्धार सर्वप्रथम त्रिवेंद्रम के म.म.टी. गणपति शास्त्री ने 1909 ई. में किया। उन्हें पद्मनाभपुरम् के निकट मनल्लिकारमठम् में ताडपत्र पर लिखित इन नाटकों की हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त हुईं। सभी हस्तलेख मलयालम् लिपि में थे। शास्त्रीजी ने सभी (13) नाटकों का संपादन कर, 1912 ई. में उन्हें प्रकाशित किया। ये सभी नाटक, 'अनंतशयन संस्कृत ग्रंथावली' में प्रकाशित हुए हैं। इन नाटकों को देख विद्वान् व रसिक जन विस्मित हो उठे ।
भास के नाटकों के संबंध में विद्वानों के तीन दल हैं। प्रथम दल के मतानुसार सभी (13) नाटक भासकृत ही हैं। दूसरा दल इन नाटकों को भासकृत नहीं मानता। उनके मतानुसार इनका रचयिता या तो 'मत्तविलासप्रहसन' का प्रणेता युवराज महेन्द्रविक्रम है या 'आश्चर्य चूडामणि' नाटक का प्रणेता शीलभद्र है। बर्नेट के अनुसार इन नाटकों की रचना पांड्य राजा राजसिंह प्रथम के शासन काल (675 ई.) में हुई थी। अन्य विद्वानों के मतानुसार इन नाटकों का रचना - काल सातवीं-आठवीं शती है और इनका प्रणेता कोई दाक्षिणात्य कवि था। तीसरा दल ऐसे विद्वानों का है जो इन नाटकों का कर्ता तो भास को ही मानता है किंतु इनके वर्तमान रूप को उनका संक्षिप्त व रंगमंचोपयोगी रूप मानता है। पर संप्रति अधिकांश विद्वान् प्रथम मत के ही पोषक हैं। डा. पुसालकर ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ- 'भास-ए स्टडी' और ए. एस. पी. अय्यर ने अपने 'भास' नामक (अंग्रेजी) ग्रंथ में प्रथम मत की ही पुष्टि, अनेक प्रमाणों के आधार पर की है।
विद्वानों ने भास का समय ई.पू. छठी शती से 11 वीं शती तक स्वीकार किया है। अंतः व बहिःसाक्ष्यों के आधार पर इनका समय ई.पू. 4 थीं व 5 वीं शती के बीच निर्धारित किया गया है। अश्वघोष व कालिदास दोनों ही भास से प्रभावित हैं। अतः भास का इन दोनों से पूर्ववर्ती होना निश्चित है। कालिदास का समय सामान्यतः ई. पू. प्रथम शती माना गया है। भास के नाटकों में अपाणिनीय प्रयोगों की बहुलता देख कर उनकी प्राचीनता निःसंदेह सिद्ध हो जाती है। अनेक पाश्चात्य व भारतीय विद्वानों के मतों का ऊहापोह करने के पश्चात् बाह्य साक्ष्यों से भास का समय ई.पू. चतुर्थ शतक
398 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
तथा पंचम शतक के बीच मानना युक्तिसंगत प्रतीत होता हैं । कथावस्तु के आधार पर भासकृत 13 नाटकों को 4 वर्गों में विभक्त किया गया है- (1) रामायण-नाटक प्रतिमा व अभिषेक, (2) महाभारत नाटक बालचरित, पंचरात्र, मध्यम - व्यायोग, दूत- वाक्य, उरु-भंग, कर्णभार व दूत- घटोत्कच, (3) उदयन नाटक स्वप्नवासवदत्त व प्रतिज्ञा- यौगंधरायण, (4) कल्पित नाटक अविमारक व दरिद्र चारुदत्त ।
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नाटकीय संविधान की दृष्टि से भास के नाटकों का वस्तुक्षेत्र विविध है। विस्तृत क्षेत्र से कथानक ग्रहण करने का कारण इनके पात्रों की संख्या अधिक है और उनकी कोटियां भी अनेक हैं। भास के सभी पात्र प्राणवंत तथा इसी लोक के प्राणी हैं। उनमें कृत्रिमता नाममात्र को नहीं है। इतना अवश्य है कि "मध्यम व्यायोग" व अविमारक' नामक नाटकों में ब्राह्मणीय संस्कृति एवं वैदिक धर्म का प्रभाव, इन्होंने जानबूझकर प्रदर्शित किया है। पात्रों के संवाद नाटकीय विधान के सर्वथा अनुरूप हैं। इन्होंने नवों रसों का प्रयोग कर अपनी कुशलता प्रदर्शित की है। इनके सभी नाटक अभिनय कला की दृष्टि से सफल सिद्ध होते हैं। कथानक, पात्र, भाषा-शैली, देश-काल व संवाद किसी के भी कारण उनकी अभिनेयता में बाधा नहीं पडती । इन्होंने ऐसे कई दृश्यों का भी विधान किया है जो शास्त्रीय दृष्टि से वर्जित हैं यथा वध, अभिषेक आदि पर ये दृश्य इस प्रकार रखे गए हैं कि इनके कारण नाटकीयता में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होती।
भास की शैली सरल व अकृत्रिम है। इनकी कवित्व शक्ति भी उच्च कोटि की है। अपने वर्ण्य विषयों को भास ने अत्यंत सूक्ष्मता से रखा है। इनका प्रकृति-वर्णन भी अत्यंत स्वाभाविक व आकर्षक है। I
भास के कुछ नाट्यगुण इतने श्रेष्ठ थे कि उनका परवर्ती नाटककारों धर प्रभाव पड़ना अपरिहार्य ही था। शूद्रक का मृच्छकटिक नाटक भास के चारुदत्त पर से ही लिखा गया मानते हैं। कालिदास, भवभूति और हर्षवर्धन जैसे श्रेष्ठ नाटककारों पर भी भास की छाप परिलक्षित होती है।
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"भासनाटकचक्रे हि च्छेकेः क्षिप्ते परीक्षितुम् । स्वप्नवासवदत्तस्य दाहकोऽभूत्र पावकः ।। "
उक्त प्रसिद्ध सुभाषित के अनुसार भास के सारे नाटकों की अग्निपरीक्षा की गई थी। उस परीक्षा में स्वप्नवासवदत्त नाटक को अग्नि भी नहीं जला सकी। उनके अनेक नाटकों में अग्निदाह के प्रसंग वर्णित हैं। अतः उन्हें 'अग्निमित्र' की उपाधि प्राप्त थी।
यद्यपि इनका विश्वसनीय जीवन चरित्र उपलब्ध नहीं है, तथापि इनके नाटकों के अध्ययन से इनके चरित्र पर कुछ प्रकाश पडता है जिससे अनुमान होता है कि वे ब्राह्मण थे । 'भास' व्यक्ति नाम है या कुल नाम इसका भी पता नहीं