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भातखण्डे, विष्णु नारायण - जन्म- 10-8-1860। मृत्यु । 19-9-1936। संगीत-शास्त्र के महान् पण्डित तथा संगीत सेवा में निरत प्रख्यात कार्यकर्ता । हिन्दी, मराठी, अंग्रेजी, गुजराती, उर्दू तथा संस्कृत (छह) भाषाओं पर प्रभुत्व । विविध भाषाओं में किया हुआ संगीत विषयक लेखन। संगीत के जानकारों के लिये उपयुक्त। इन्होंने अभिनव-रागमंजरी तथा अभिनव तालमंजरी नामक दो रचनाएं "विष्णुशर्मा" उपनाम से की हैं। बडोदा, ग्वालियर, तथा लखनऊ में आपने संगीत शास्त्र के अध्ययनार्थ विद्यालय स्थापन किए। अनेक स्थानों में संगीत परिषदों को आयोजित कर, संगीत शास्त्र विषयक चर्चासत्र किए और संगीत शास्त्र को कालोचित व्यवस्थित रूप प्रदान किया। श्रीमल्लक्ष्यसंगीतम् यह अपना संस्कृत ग्रंथ चतुरपण्डित उपनाम से प्रकाशित किया। अतः इन्हें "चतुरपंडित" कहते हैं। नागपुर में इनके स्मरणार्थ चतुरसंगीत विद्यालय स्थापित हुआ है। हिंदुस्थानी संगीत पद्धति नामक इनके द्वारा निर्मित सखंड सर्वत्र लोकप्रिय हैं। इस ग्रंथमाला में 181 राग तथा 1875 गीतों का स्वरलिपि सहित संकलन करने का अपूर्व कार्य पं. भातखंडेजी ने किया है। भानुदत्त (भानुकर मिश्र या भानुमित्र) - समय- 13-14 वीं शती। इन्होंने अपने ग्रंथ "रस-मंजरी" में स्वयं को “विदेहभूः" लिखा है जिससे इनका मैथिल होना सिद्ध होता है। पिता गणेश्वर कवि थे। इन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की है:- रस-मंजरी, रस-तरंगिणी, अलंकार-तिलक, चित्र-चंद्रिका, गीत-गौरीश, मुहूर्तसार, रस-कल्पतरु, कुमारभार्गवीय आदि । "श्रृंगार-दीपिका'' नामक एक अन्य ग्रंथ भी इन्हीं का माना जाता है। ___ "रस-मंजरी" नायक-नायिका-भेद विषयक अत्यंत प्रौढ ग्रंथ है। इसकी रचना सूत्र-शैली में हुई है और स्वयं भानुदत्त ने इस पर विस्तृत वृत्ति लिखकर उसे अधिक स्पष्ट किया है।
नाधक स्पष्ट किया है। इस पर आचार्य गोपाल ने 1428 ई. में "विवेक' नामक टीका की रचना की है। आधुनिक युग में पं. बद्रीनाथ शर्मा ने “सरभि" नामक व्याख्या लिखी हैं जो चौखंबा विद्याभवन से प्रकाशित है। आचार्य जगन्नाथ पाठक कृत इसकी हिन्दी व्याख्या भी वहीं से प्रकाशित हो चुकी है।
भानुदत्त की प्रसिद्धि मुख्यतः “रस-मंजरी" व "रस-तरंगिणी" के कारण हैं। ये रसवादी आचार्य है। "रस-तरंगिणी' का हिंदी टीका के साथ प्रकाशन वेंकटेश्वर प्रेस मुंबई से हुआ है। भामह - समय- ई. 6 वीं शती का मध्य। “काव्यालंकार" नामक ग्रंथ के प्रणेता। अनेक. आचार्यों ने दंडी को भामह से पूर्ववर्ती माना है पर अब निश्चित हो गया है कि दंडी भामह के परवर्ती थे। भामह के व्यक्तिगत जीवन के बारे में कुछ भी पता नहीं चलता। अपने काव्यालंकार ग्रंथ के अंत में इन्होंने स्वयं को "रक्रिलगोमिन्" का पुत्र कहा है (6-64)। "रक्रिल" नाम के आधार पण कुछ विद्वानों ने इन्हें बौद्ध
माना है पर अधिकांश विद्वान् इससे सहमत नहीं क्यों कि भामह ने अपने ग्रंथ में बुद्ध की कहीं भी चर्चा नहीं की है। इसके विपरीत उन्होंने सर्वत्र रामायण व महाभारत के नायकों का निर्देश किया है। अतः वे निश्चित रूप से वैदिक-धर्मावलंबी ब्राह्मण थे। वे काश्मीर-निवासी माने जाते हैं।
भामह अलंकार-संप्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं। इन्होंने अलंकार को ही काव्य का विधायक तत्त्व स्वीकार किया है। इन्होंने ही सर्वप्रथम काव्य-शास्त्र को स्वतंत्र शास्त्र का रूप प्रदान किया और काव्य में अलंकार की महत्ता स्वीकार की। भामह के अनुसार बिना अलंकारों के कविता-कामिनी उसी प्रकार सुशोभित नहीं हो सकती जिस प्रकार आभूषणों के बिना कोई रमणी। इन्होंने रस को "रसवत्" आदि अलंकारों में अंतर्भूत कर उसकी महत्ता कम कर दी है। भारतचन्द्र राय (गुणाकर) - जन्म, ई. 1712 में, बंगाल के हुगली-जनपद के बसन्तपुर ग्राम में। मृत्यु सन् 1860 में। नदिया के राजा कष्णचन्द्र राय (1728-1782) के सभाकावा 'गणाकर' की उपाधि से विभूषित। संस्कृत, फारसी, बंगला, हिन्दी तथा व्रजभाषा में प्रवीण। __ बर्दवान के राजा द्वारा जमीनदारी छीनी जाने के बाद दरिद्र अवस्था में मामा के यहां इनका वास्तव्य रहा। कई वर्षों पश्चात्, जमीनदारी मांगने पर कारागृहवास हुआ। कारागार के अधिकारियों की सहायता से भाग कर जगन्नाथपुरी में शंकराचार्य के मठ में संन्यास ग्रहण किया। सम्बधियों के अनुरोध पर पुनरपि गृहस्थाश्रम स्वीकार किया। परन्तु दारिद्रय के कारण पत्नी को मायके भेजकर स्वयं फ्रान्सीसी शासकों के मंत्री इन्द्रनारायण चौधरी के सम्पर्क में रहे। नदिया के राजा कृष्णचन्द्र राय का आश्रय इन्द्रनारायण की मध्यस्थता से मिला।
कृष्णचन्द्र द्वारा "मूलाजोड" ग्राम में भारतचन्द्र के सपत्नीक रहने की व्यवस्था की गई। मूलाजोड के नये स्वामी रामदेव नाग द्वारा अत्याचार हुए परंतु मूलाजोड के निवासियों से प्रेमसम्बन्ध के कारण वहीं वास्तव्य रहा। संस्कत कतियांआनन्दमंगल, विद्यासुन्दर, मानसिंह, चोरपंचाशत्, रसमंजरी, सत्यापीड, ऋतुवर्णना और चण्डीनाटक।
अन्य भाषा में रचनाएं- बंगला राधाकृष्ण के प्रेमालाप, घेडे बंडेर कौतुक, नानाभाषा की कवितावली, गोपाल उडेर, कवितावली
और नागाष्टक। हिन्दी कवितावली और फरदरफत। भारतीकृष्णतीर्थ (अद्वैत- ब्रह्मानन्द) - विद्यारण्य स्वामी के गुरु। सन् 1333 में विद्यातीर्थ महेश्वर के पश्चात् श्रृंगेरी- पीठ के आचार्यपद पर आसीन हुए। सन् 1346 में विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहरराय ने विजयप्राप्ति के लिये अपने पांचों बंधुओं के साथ शृंगेरी की यात्रा की तथा भारती कृष्णतीर्थ का आशीर्वाद प्राप्त किया था। विद्यारण्य ने अपने गुरु का स्तवन इस प्रकार किया है -
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 395
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