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"महावीर-चरित" की प्रस्तावना में प्रस्तुत किया है। उन्होंने स्वयं अपने श्रीकण्ठ नाम का संकेत किया है। इसी प्रकार का परिचय, किंचित् परिवर्तन के साथ, उनके "मालती-माधव" नाटक में भी प्राप्त होता है। इन्होंने अपने गुरु का नाम ज्ञाननिधि दिया है। कहा जाता है कि देवी पार्वती की प्रार्थना में बनाये गये एक श्लोक से प्रभावित होकर तत्कालीन पंडित-मंडली ने उन्हें "भवभूति' की उपाधि प्रदान की थी। "मालती-माधव" के टीकाकार जगद्धर के अनुसार भी इनका नाम श्रीकण्ठ था भवभूति नाम से वे प्रसिद्ध हुए- “नाम्ना श्रीकण्ठः प्रसिद्धया भवभूतिः"
इस संबंध में एक अति महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया गया है कि क्या भवभूति उंबेकाचार्य से अभिन्न थे। “मालती-माधव' के एक हस्तलेख के तृतीय अंक की पुष्पिका में इसके लेखक का नाम उंबेक दिया गया है। उंबेक मीमांसा शास्त्र के प्रसिद्ध । विद्वान् कुमारिल भट्ट के शिष्य थे। उन्होंने कुमारिल रचित "श्लोकवार्तिक" की टीका भी लिखी थी। म.म.कुप्पुस्वामी शास्त्री, म.म.पां.वा. काणे तथा एस.आर. रामनाथ शास्त्री, उंबेक व भवभूति को एक ही व्यक्ति मानते हैं। पं. बलदेव उपाध्याय भी इसी मत का समर्थन करते हैं। किंतु डा. कुन्हन राजा व म.म.डा. मिराशी ने भवभूति व उंबेक को भिन्न व्यक्ति माना है। कुन्हन राजा तो भवभूति के मीमांसक होने पर भी संदेह प्रकट करते हैं। उनके अनुसार भवभूति का आग्रह वेदांत पर अधिक था किंतु डा. राजा का यह मत इस आधार पर खंडित हो जाता है कि भवभूति ने स्वयं अपने को "पदवाक्य-प्रमाणज्ञ" कहा है। डा. मिराशी के अनुसार उंबेक का रचना-काल 775 ई. है, और भवभूति 8 वीं शती के आदि चरण में हुए थे। भवभूति व उंबेक की एकता प्राचीन काल से ही चली आ रही है। अतः दोनों को पृथक् व्यक्ति स्वीकार करना ठीक नहीं है।
भवभूति ने अपने नाटकों की प्रस्तावना में अपना समय निर्दिष्ट नहीं किया है। अतः इनका काल-निर्णय भी विवादास्पद बना हुआ है। इनके बारे में प्रथम उल्लेख वाक्पतिराज कृत "गउडवहो' में मिलता है। इसमें कवि ने भवभूति रूपी सागर से निकले हुए काव्यामृत की प्रशंसा की है (779)। वाक्पतिराज, कान्यकुब्ज-नरेश यशोवर्मा के सभाकवि थे, जिनका समय 750 ई. है। भवभूति भी जीवन के अंतिम दिनों में राजा यशोवर्मा के आश्रित हो गए थे। "राजतरंगिणी" में लिखा है कि यशोवर्मा की सभा में भवभूति आदि कई कवि थे. (4-144)। वामन के 'काव्यालंकार" में भवभूति के पद्य उद्धृत हैं। वामन का समय 8 वीं शती का उत्तरार्ध या १ वीं शती का चतुर्थांश है। अतः भवभूति का समय 7 वीं शती का अंतिम चरण या 8 वीं शती का प्रथम चरण हो सकता है।
भवभूति की केवल तीन रचनाएं प्राप्त होती हैं
मालती-माधव (कल्पित कथात्मक प्रकरण)। महावीर-चरित (नाटक) व उत्तररामचरित (नाटक), दोनों नाटक राम-कथा पर आधारित हैं। 'उत्तररामचरित' उनकी सर्वश्रेष्ठ व अंतिम रचना है। इसमें सीतानिर्वासन की करुण गाथा वर्णित है। भवभूति के संबंध में अनेक कवियों की उक्तियां प्राप्त होती है। राजशेखर ने इन्हें वाल्मीकि का अवतार बताया है।
भवभूति, "नाटककारों के कवि" कहे जाते हैं। कालिदास के साथ इन्हें संस्कृत का सर्वोच्च नाटककार माना जाता है। इन्हें विशुद्ध नाटककार नहीं कहा जा सकता क्यों कि इनकी अधिकांश रचनाएं गीति-नाट्य (लिरिकल ड्रामा) है। भवभूति की भाव-प्रवणता, उनकी कला का प्राण है। इनके भाव-पक्ष में वैविध्य व विस्तार दिखाई पडता है। कालिदास की भांति ये केवल भावों के ही कवि नहीं है। इन्होंने कोमल के साथ ही साथ गंभीर व कठोर भावों का भी चित्रण किया है। इनकी शैली का प्रमुख वैशिष्ट्य, उसकी उदात्तता है। भाषा पर इनका अधिकार है। इन्होंने छोटे-बडे विविध छंदों का प्रयोग किया है। क्षेमेंद्र ने शिखरिणी छंद के प्रयोग में इनकी प्रशंसा की है। इनमें अलंकार-वैचित्र्य भी अधिक पाया जाता है।
कुछ आलोचकों ने नाटककार के रूप में इन्हें उच्च कोटि का नहीं माना है और इनके अनेक दोषो का निर्देश किया है। किंतु कतिपय दोषों के होते हुए भी भवभूति संस्कृत भाषा-साहित्य के गौरव हैं।
भवभूति के बारे में एक किंवदंती इस प्रकार है :- एक बार भवभूति अपने उत्तररामचरित नाटक के प्रति कालिदास का अभिप्राय जानने के लिये गये। उस समय वे चौसर खेल रहे थे। उन्होंने भवभूति को नाटक पढकर सुनाने को कहा। कालिदास ने नाटक की प्रशंसा की परंतु उसके एक श्लोक के एक शब्द से अनुस्वार हटा देने की सूचना की। श्लोक इस प्रकार है -
किमपि किमपि मन्दं मन्दमासत्तियोगाद् अविरलितकपोलं जल्पतोरक्रमेण । अशिथिलपरिरम्भव्यापृतैकैकदोष्णोः
अविदितगतयामा रात्रिरेवं व्यरसीत्।। इस श्लोक के चतुर्थ चरण के "एवं" शब्द से अनुस्वार हटा देने की कालिदास की सूचना भवभूति ने स्वीकार कर ली। इससे उसका सुधारित रूप इस प्रकार हुआ___ "रात्रिरेव व्यरंसीत्"। इसके कारण शब्द के अभिधार्थ के स्थान पर हद्य व्यंग्यार्थ उत्पन्न हुआ। "एवं" सहित इस चरण का मुल अर्थ था- "वार्तालाप में मग्न इस प्रकार रात समाप्त हो गयी"। परंतु "एव" के कारण रात्रि ही समाप्त हुई परंतु प्रेमालाप समाप्त नहीं हुआ, यह व्यंग्यार्थ ध्वनित हुआ। भवभूति-कथा - 1 भवभूति के पिता का नाम नीलकण्ठ था। उन्होंने अपने पुत्र का नाम श्रीकण्ठ रखा। (श्रीकण्ठ
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 393
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