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शान्तिसूरि द्वारा लिखित “जीववियार" पर संस्कृत वृत्ति (वि.सं. विद्वान इन्हें कौशांबी या प्रयाग का निवासी मानने के पक्ष में 1610) सलेकशाह के राज्य में। इस पर मेघनन्दन (वि.सं. हैं, किन्तु अधिकांश मत शालातुर के ही पोषक हैं। पाणिनि 1610) समयसुन्दर (वि.सं. 1698), ईश्वराचार्य तथा क्षमाकल्याण के गुरु का नाम था वर्ष। वर्ष के भाई का नाम उपवर्ष । (वि.सं. 1850) ने भी संस्कृत में वृत्तियां लिखी हैं। 2) पाणिनि के भाई का नाम पिंगल व उनके शिष्य का नाम रचनाविचार पर वृत्ति।
कौत्स मिलता है। "स्कंद पुराण" के अनुसार पाणिनि ने गो पाठक, वासुदेव - ई. 20 वीं शती। एम.ए., साहित्याचार्य । पर्वत पर तपस्या की थी जिससे उन्हें वैयाकरणों में महत्व बी.डी. कॉलेज, अहमदाबाद के प्राचार्य। "साम्मनस्य' त्रैमासिक प्राप्त हुआ। पत्रिका के सम्पादक। कृतियां- प्रबुद्ध, आराधना, साम्मनस्य "गोपर्वतमिति स्थानं शंभोः प्रख्यापितं पुरा। आदि लघु नाटक।
यत्र पाणिनिना लेभे वैयाकरणिकाग्रता ।।" पाठक, श्रीधरशास्त्री (म.म.) - धुलिया (महाराष्ट्र) निवासी । अरूणाचल महात्म्य, उत्तरार्ध 2-28)। इनके धर्मशास्त्र के व्याख्यान (पुस्तकबद्ध) नागपुर वि.वि. में पाणिनि की मृत्यु - "पंचतंत्र" के एक श्लोक के अनुसार मीमांसा तथा धर्मशास्त्र की शास्त्री परीक्षा के लिये पाठ्य पाणिनि सिंह द्वारा मारे गए थे (पंचतंत्र, मित्रसंप्राप्ति श्लोक पुस्तक के रूप में निर्धारित थे। अन्त में संन्यासी होकर आप 36)। एक किंवदंती के अनुसार इनकी मृत्यु त्रयोदशी को गंगातट पर निवास करने चले गए। आचार्य विनोबाजी भावे हुई थी। अतः अभी भी वैयाकरण उक्त दिवस को अनध्याय के गीता-प्रवचन नामक ग्रंथ का संस्कृत अनुवाद आपने ही करते हैं। किया है। अन्य रचना - अष्टाध्यायीशब्दानुक्रमणिका। पाणिनि के ग्रंथ - "महाभाष्य-प्रदीपिका" से ज्ञात होता है, पाणिनि (भगवान्) - "अष्टाध्यायी' नामक अद्वितीय व्याकरण । कि पाणिनि ने "अष्टाध्यायी" के अतिरिक्त "धातुपाठ", गणपाठ, ग्रंथ के प्रणेता। पाश्चात्य व आधुनिक भारतीय विद्वानों के उणादिसूत्र व लिंगानुशासन की रचना की है। कहा जाता है अनुसार, इनका समय ई. पू. 7 वीं शती है, किन्तु पं. युधिष्ठिर कि पाणिनि ने "अष्टाध्यायी" के सूत्रार्थ परिज्ञान के लिये वृत्ति मीमांसक के अनुसार ये वि.पू. 2900 वर्ष में हुए थे। इनका लिखी थी, किन्तु वह अनुपलब्ध है, पर उसका उल्लेख
वृत्त, अद्यावधि अज्ञात है। प्राचीन ग्रंथों में इनके कई "महाभाष्य" व "काशिका" में है। नाम मिलते हैं यथा पाणिन, पाणि, दाक्षीपुत्र, शालकि, शिक्षासूत्र- पाणिनि ने शब्दोच्चारण के ज्ञान के लिये "शिक्षासूत्र" शालातुरीय व आहिक। इन नामों के अतिरिक्त पाणिनेय व की रचना की थी जिसके अनेक सूत्र विभिन्न व्याकरण ग्रंथों पाणिपुत्र ये नाम भी इनके लिये प्रयुक्त किये गये हैं। पुरुषोत्तम में प्राप्त होते हैं। पाणिनि के मूल "शिक्षा सूत्र" का उद्धार देव कृत "त्रिकांड शेष" नामक ग्रंथ में सभी नाम उल्लिखित हैं। स्वामी दयानंद सरस्वती ने किया तथा उसका प्रकाशन "वर्णोच्चारण
कात्यायन व पतंजलि ने पाणिनि नाम का ही प्रयोग किया शिक्षा" के नाम से सं. 1936 में किया था। है। पाणिन नाम का उल्लेख "काशिका" व "चांद्रवृत्ति" में पाणिनि का कवित्व - वैयाकरण की प्रचलित दंतकथा के प्राप्त होता है। दाक्षीपुत्र नाम का उल्लेख "महाभाष्य", अनुसार पाणिनि ने "जाम्बवतीविजय" या "पातालविजय" समुद्रगुप्त कृत "कृष्णचरित" व श्लोकात्मक "पाणिनीय-शिक्षा' नामक एक महाकाव्य का भी प्रणयन किया था। उसके कतिपय में है। शालातुरीय नाम का निर्देश भामहकृत "काव्यालंकार", श्लोक लगभग 26 ग्रंथों में मिलते हैं। राजशेखर, क्षेमेंद्र व "काशिका विवरण पंजिका", "न्यास" तथा "गुणरत्न महोदधि' शरणदेव ने भी इस महाकाव्य का उल्लेख करते हुए उसका में प्राप्त होता है।
प्रणेता पाणिनि को ही माना है। पाणिनि द्वारा प्रणीत एक और वंश व स्थान - पं. शिवदत्त शर्मा ने "महाभाष्य" की काव्य ग्रंथ माना जाता है। उसका नाम है "पार्वतीपरिणय'। भूमिका में पाणिनि के पिता का नाम शलङ्क व उनका पितृ राजशेखर ने वैयाकरण पाणिनि को कवि पाणिनि (जांबवती व्यपदेशक नाम "शालाकि" स्वीकार किया है। शालातुर विजय के प्रणेता) से अभिन्न माना है। क्षेमेंद्र ने अपने "सुवृत्त अटक के निकट एक ग्राम था, जो लाहुर कहलाता था। तिलक" नामक ग्रंथ में सभी कवियों के छंदों की प्रशंसा पाणिनि को वहीं का रहनेवाला बताया जाता है। वेबर के करते हुए पाणिनि के "जाति" छंद की भी प्रशंसा की है। अनुसार पाणिनि उदीच्य देश के निवासी थे, क्यों कि शालंकियों कतिपय पाश्चात्य व भारतीय विद्वान, (जैसे पीटर्सन व भांडारकर) का संबंध वाहीक देश से था। श्यू आङ् चुआङ् के अनुसार कहते हैं कि कवि एवं वैयाकरण पाणिनि ऐसे सरस व अलंकृत पाणिनि गांधार देश के निवासी थे। इनका निवास स्थान श्लोकों की रचना नहीं कर सकते। साथ ही इस ग्रंथ के शालातुर, गांधार देश (अफगनिस्तान) में ही स्थित था, जिसके श्लोकों में बहुत से ऐसे प्रयोग हैं जो पाणिनीय व्याकरण से कारण पाणिनि शालातुरीय कहलाते थे। इनकी माता का नाम सिद्ध नहीं होते, अर्थात वे अपाणिनीय या अशुद्ध हैं पर रुद्रट दाक्षी होने के कारण इन्हें "दाक्षीपुत्र" कहा जाता था। कुछ कृत "काव्यालंकार" के टीकाकार नमिसाधु के कथन से, यह
368 / संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथकार खण्ड
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