________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
भागवतचम्पू :- ले- सोमशेखर (या राजशेखर)। आनन्दवृन्दावनचम्पू :- ले- परमानन्ददास। बालकृष्णचम्पू। ले- जीवनजी शर्मा। मन्दारमन्दचम्पू- श्रीकृष्ण। रुक्मिणीपरिणय-लेअम्मल और वेंकटाचार्य । रुक्मिणीवल्लभपरिणय.-ले- नरसिंह तात । इनके अतिरिक्त 25 से अधिक कृष्णचरित्र विषयक चम्पू अमुद्रित हैं।
वैष्णव आख्यानों पर आधारित चम्पूकाव्य : नृसिंह ले- केशवभट्ट, (2) दैवज्ञ दुर्ग और (3) संकर्षण। वराहचम्पू- लेश्रीनिवास। गजेन्द्रचम्पू ले- पंतविठ्ठल इत्यादि उल्लेखनीय हैं। कुछ चम्पूग्रंथ ऐतिहासक दृष्टि से भी महत्त्व रखते हैं, जिनमें जयराम पिण्डये कृत राधामाधवविलासचम्पू (इसके उत्तरार्ध में छत्रपति शिवाजी महाराज के पिता शहाजी की राजसभा के वैभव का वर्णन किया है।) शंकर दीक्षित कृत शंकरचेतोविलासचम्पू (इसमें काशीनरेश चेतसिंह का चरित्र वार्णित है)
राजराजवर्मकृत :- विशाखतुला-प्रबन्धचम्पू, गणपतिशास्त्री कृत विशाखसेतुयात्रा वर्णन चम्पू। रामस्वामीशास्त्री कृत विशाखकीर्तिविलासचम्पू इन तीन ग्रंथों में त्रिवांकुरनरेश विशाख महाराज का चरित्र वर्णित है। भूमिनाथ मल्लदीक्षित कृत धर्मविजयचम्पू में तंजौरनरेश शहाजी (व्यंकोजी भोसले के पुत्र) का चरित्र और वेंकटेश कविकृत भोसलवंशावली चम्पू में तंजौर के भोसला राजवंश का चरित्र दर्शन किया है।
मैसूर नरेश के चरित्र विषयक उल्लेखनीय चम्पू :- महीशूराभिवृद्धिप्रबन्धचम्पू ले- वेंकटराम शास्त्री। महीशूरदेशाभ्युदयचम्पू ले- सीताराम शास्त्री। कृष्ण-राजेन्द्र, यशोविलास- ले- एस नरसिंहाचार्य । कृष्णराजकलोदय ले- यदुगिरि अनन्ताचार्य। श्रीकृष्णनृपोदयचम्पू ले-कुक्के सुब्रह्मण्य शर्मा।
तीर्थक्षेत्र माहात्म्य विषयक चम्पू :
भद्राचलचम्पू :- ले- राघव। विषय- वेंकटगिरी तथा भगवान् श्रीनविास। धर्मराजकृत वेंकटशचम्पू तथा श्रीनिवासकविकृत श्रीनिवासचम्पू भी इस विषय पर लिखे हैं।
मार्गसहायचम्पू :- ले- नवनीतकवि। विषय- विरंचिपुर का मार्गसहायमंदिर। व्याघालयेशाष्टमी-महोत्सवचम्पू विषय- त्रिवांकुर का मंदिर। सम्पतकुमारविजयचम्पू ले- रंगनाथ। विषय- मेलकोटे (कर्णाटक) के देवतामहोत्सव। पद्मनाभचरितचम्पू ले- कृष्ण । विषय-तिरुअनंतरपुरम् के भगवान् पद्मनाभ की कथा । हस्तिगिरिचम्पू ले- वेंकटाध्वरी । विषय- कांचीवरम् के देवराज का माहात्म्य।
चम्पूकाव्यों की इस नामावली से यह स्पष्ट दिखाई देता है कि भारत के अन्य प्रदेशों के लेखकों की अपेक्षा दक्षिण भारत के विद्वानों ने चम्पूकाव्यों की रचना में अधिक योगदान दिया है । ज्ञात चम्पू काव्यों की संपूर्ण संख्या अढ़ाई सौ के आसपास मानी जाती है।
5 "गीतिकाव्य" गीतगोविन्दकार जयदेव कवि को गीतिकाव्यों के युगप्रवर्तकत्व का समान संस्कृत साहित्य के सभी समालोचक देते है। उनके गीतिकाव्यों की सरसमधुरता के कारण सुभाषितकार हरिहर, जयदेव की रचना का तो कालिदास से भी अधिक सरस मानते हैं :
__ "आकर्ण्य जयदेवस्य गोविन्दानन्दिनीर्गिरः। बालिषा कालिदासाय स्पृहयन्तु धयं तु न।। (सुभाषितावली-17)
(जयदेव की वाणी कृष्णप्रेमपूर्ण है। उसे सुनने पर, कालिदास के काव्य पर बालिश लोग ही आस्था रखेंगे। हम तो नहीं रखते)। इस काव्य में मात्रिक वृत्तों के साथ संगीत के मात्रिक पदों का मनोहर समन्वय किया है। इस प्रकार की "मधुर-कोमल-कान्त पदावली" से ओतप्रोत राग-तालनुकूल पदरचना, जयदेव के पहले किसी ने की होगी, परंतु जयदेव की रचना इतनी उत्कृष्ट हुई कि वे इस प्रकार की काव्यरचना के युगप्रवर्तक हो गये। 12 सर्गों के इस प्रबन्धात्मक काव्य में श्रीमद्भागवत की रासलीला के अनुसार रासलीला तथा राधाकृष्ण की विप्रलंभ-संभोगात्मक शृंगार लीला का वर्णन हुआ है। इस के पाश्चात्य समीक्षकों में विलियम जोन्स ने इसे पैस्टोरल ड्रामा (पशुचारण नाट्य) कहा है। पिशेल मेलो ड्रामा (अत्युक्तिपूर्ण कृत्रिम नाट्य) कहते हैं, तो सिल्वाँ लेवी गीत और नाट्यकी समन्वित रचना मानते हैं । इस प्रकार इस गीतिकाव्य का स्वरूप विवाद्य सा हुआ है।
तमिळ साहित्य में पेरियपुराणम् नामक एक प्राचीन "गेयचरित्रम्" प्रसिद्ध है। वह 63 नायन्पारों (शैवसंतों) की चरित्रगाथा पर आधारित है। इस गेयचरित्रम् का स्वरूप संगीत नाटक सा होता है, परंतु उसमें अंक, दृश्य इत्यादि विभाग नहीं होते। कुछ हेर फेर कर के गेयचरित्रम् को नाटकवत् किया जा सकता है। जयदेव के गीतगोविन्दम् की यही अवस्था है। रंगमंच पर गीतगोविंद के नाट्यवत् अभिनयपूर्ण प्रयोग होते हैं। दक्षिण भारत में "गेयनाटकम्" के संगीतमय प्रयोग भी लोकप्रिय है। इस में नाटक के अभिनय से संगीत को ही अधिक प्रधानता होती है। सुप्रसिद्ध आधुनिक “वाग्गेयकार" त्यागराज के गेय नाटक दक्षिण भारतीय समाज में अत्यंत लोकप्रिय है। तमिळनाडु में "भागवतमेलानाटकम्" नामक एक नृत्यप्रकार प्रचलित है, परंतु उसका प्रारंभ ई. 17 वीं शती से माना जाता है। जयदेव का गीतगोविंद 12 वीं शताब्दी की रचना है। संभव है कि गीतगोविंद के सार्वत्रिक प्रचार एवं प्रभाव के कारण दक्षिण में भगवद्भाक्ति परक भागवतमेलानाटकम् का उदय हुआ।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 247
For Private and Personal Use Only