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गोस्वामी को इस कार्य हेतु वृंदावन भेजा। ये स्वयं भी काशी, प्रयाग होते हुए वृंदावन पहुंचे और कुछ महीनों तक वहां निवास किया। किन्तु इनकी लीला-स्थली बनी जगन्नाथपुरी, जहां रथ-यात्रा के अवसर पर बंगाल के भक्तों की अपार भीड़ जुटती थी।
इनसे संबंधित काशी की दो घटनाएं चैतन्य चरितामृत में उल्लिखित हैं- (1) बंगाल के नवाब हुसेनशाह के प्रधान अमात्य सनातन को भक्ति का उपदेश और (2) स्वामी प्रकाशानंद सरस्वती की शास्त्रार्थ में पराजय। प्रकाशानंद महान् अद्वैत वेदांती थे, किन्तु महाप्रभु के उपदेश से कृष्णभक्त बने
और प्रबोधानंद के नाम से विख्यात हुए। ___ महाप्रभु चैतन्य, श्रीकृष्ण के अवतार माने जाते हैं। भक्तमाल की टीका में प्रियादास ने लिखा है- "जसुमतिसुत सोई सचीसुत गौर भये"। संप्रदाय में भी अनंतसंहिता, शिवपुराण, विश्वसारतंत्र, नृसिंहपुराण तथा मार्कंडेयपुराण के तत्तत् वचनों के अनुसार इन्हें अवतार माना जाता है। जीव गोस्वामी ने भी भागवत की टीका "क्रमसंदर्भ" के आरंभ में ही इनके अवतार की सूचना, भागवत के प्रख्यात श्लोक (12-32) के द्वारा दिये जाने का उल्लेख किया है। साथ ही अगले पद्यों में इस श्लोक का अर्थ विशेष देते हुए उन्होंने उनका निर्गलितार्थ निम्न प्रकार दिया है
अन्तः कृष्णं बहिगौर दर्शिताङ्गादिवैभवम्। कलौ संकीर्तनाद्यैः स्म कृष्णचैतन्यमाश्रिताः ।। चैतन्य के जीवन-काल में ही बहुत से लोगों को उनके अवतार होने में विश्वास हो गया था परन्तु उनकी मूर्ति की पूजा संप्रदाय में कब आरंभ हुई इसका निर्णय कठिन है। इस बारे में वंशीदास और नरहरि सरकार का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय माना जाता है। "वंशी-शिक्षा' के अनुसार वंशीदास ने चैतन्य की मूर्ति-पूजा का प्रचार किया। इन्होंने चैतन्य की धर्मपत्नी श्रीविष्णुप्रिया देवी के लिये चैतन्य की काष्ठ-मूर्ति बनाई और नरहरि सरकार ने चैतन्य के विषय में बहुत से पदों की रचना की तथा चैतन्य-पूजा के विधिविधानों को व्यवस्थित किया। परन्तु चैतन्यमत का शास्त्रीय रूप, विधि-विधानों की व्यवस्था, भक्तिशास्त्र के सिद्धान्तों का निर्णय बंगाल में न होकर, सुदूर वृंदावन में जिन विद्वान गोस्वामियों के द्वारा किया गया, वे छह गोस्वामी (षट् गोस्वामी के नाम से) प्रसिद्ध हैं। __ चैतन्य महाप्रभु का कोई भी ग्रंथ प्राप्त नहीं होता। केवल 8 पद्यों का एक ललित संग्रह ही उपलब्ध है। ये 8 पद्य, चैतन्य द्वारा समय-समय पर भक्तों से कहे गये थे। निम्न पद । में चैतन्य के उपदेश का सार है
जीवे दया, नामे रुचि, वैष्णव सेवन, इहा इते धर्म नाई सुनो सनातन ।
सनातन गोस्वामी को काशी में दो मास तक उपदेश देने के पश्चात् चैतन्य ने उक्त पद को ही सब का सार बतलाया था। डॉ. राजवंश सहाय “हीरा" के संस्कृत साहित्य कोश के अनुसार चैतन्य के शिष्यों ने “दशमूलश्लोक" को इनकी रचना माना है। चोकनाथ- ई. 17 वीं शती। गदाचार्य तिप्पाध्वरीन्द्र के पंचम पुत्र । गुरु-स्वामी शास्त्री व सीताराम शास्त्री। बंधुद्वय-कुप्पाध्वरी
और तिरुमल शास्त्री। पिता के अग्रहार शाहजीपुरम् के निवासी। तंजौर के राजा शाहजी भोसले से समाश्रय प्राप्त। दक्षिण कर्नाटक के बसव-भूपाल की राजसभा में भी कुछ समय तक आश्रय। कृतियां- (दो नाटक) सेवान्तिका-परिणय तथा कान्तिमती-शाहराजीय, और रसविलास (भाण) । छज्जूराम शास्त्री- जन्म-शेखपुर लावला (कर्नाल जनपद, कुरुक्षेत्र), में, सन् 1895 में। पिता-मोक्षराम। आशुकवि । "कविरत्न" की उपाधि से अलंकृत। षड्दर्शन-विषयक पांडित्य के कारण, 25 वर्ष की अवस्था में शंकराचार्य द्वारा "विद्यासागर" की उपाधि प्राप्त। यमुनातटवर्ती गौरिशंकर मन्दिर विद्यालय में अध्यापक।
रचना- "सुलतानचरितम्" (महाकाव्य)। अनुप्रासयुक्त । कल्पना नैषध के समान। पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कवि की बड़ी प्रशंसा की है। अन्य रचनाएं- (1) दुर्गाभ्युदय (नाटक), (2) छज्जुराम-शतकत्रयम्, (3) साहित्यबिन्दु, (4) मूलचन्द्रिका, (न्यायमुक्तावली की टीका), (5) सरला नामक न्यायदर्शन की वृत्ति, (6) सारबोधिनी (सदानन्द कृत वेदान्तसार की टीका)। सभी प्रकाशित ।
अप्रकाशित रचनाएं- (1) निरुक्त-पंचाध्याय की परीक्षा-टीका, (2) व्याकरण महाभाक्य के दो आह्निकों की परीक्षा-टीका, (3) कुरूक्षेत्र-माहात्म्य टीका और, (4) प्रत्यक्षज्योतिषम्। "साहित्यबिन्दु" के सम्बन्ध में किसी टीकाकार ने कहा है कि साहित्य-सर्वज्ञ पं. छज्जूरामजी के आने से पंडितराज जगन्नाथ
और विश्वनाथ निरर्थक हुए। छत्रसेन- गुरु- समन्तभद्र। रचनाएं- मेरुपूजा, पार्श्वनाथपूजा, अनन्तनाथ-स्तोत्र आदि। समय-ई. 18 वीं शती। छत्रे, विश्वनाथ- पिता-केशव। जन्म-नासिक (पंचवटी) में दि. 27 अक्तूबर 1906 | माध्यमिक शिक्षा के बाद रेल-विभाग में कर्मचारी। संगीत-कला में कुछ नैपुण्य प्राप्त किया। हरिकीर्तन और प्रवचन के कार्यक्रम सेवाकाल में करते थे। 36 वर्षों की सेवा के बाद अवकाश प्राप्त होने पर संस्कृत साहित्य रचना में उत्तरायुष्य सफल किया। निवास स्थान- कल्याण (जिला-ठाणे महाराष्ट्र) । ग्रंथ- श्रीसुभाषचरितम्, काव्यत्रिवेणी (इसमें ऋतुचक्रम्, गंगातरंगम् और गोदागौरवम् इन तीन खण्ड काव्यों का अन्तर्भाव है)। सिद्धार्थप्रव्रजनं (नाटक), अपूर्वः शांतिसंग्रामः (गांधीजी की दाण्डीयात्रा पर
322 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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