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नीलांबर शर्मा - सन् 1823-1883। ज्योतिष-शास्त्रव के एक आचार्य। मैथिलीय ब्राह्मण। पटना के निवासी और वहीं जन्म। इन्होंने कुछ समय तक अपने बड़े भाई जीवनाथ के पास, तथा बाद में कुछ दिनों तक काशी की पाठशाला में ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन किया था। अलवर-नरेश शिवदाससिंह। की सभा में ये मुख्य ज्योतिषी के पद पर रहे। इन्होंने पाश्चात्य पद्धति के अनुसार "गोल-प्रकाश" नामक एक ग्रंथ की रचना की है। पांच अध्यायों में विभाजित इस ग्रंथ के विषय हैं : ज्योत्पत्ति, त्रिकोणमिति-सिद्धांत, चापीय रेखागणित-सिद्धांत और चापीय त्रिकोणमिति-सिद्धांत । इस ग्रंथ का प्रकाशन बापूदेव ने काशी में किया। नीलांबर ने कतिपय भास्करीय ग्रंथों पर टीकाएं भी लिखी हैं। पिता-शंभुनाथ शर्मा। नमेध- ऋग्वेद के 8 वें मंडल के क्रमांक 89-90, 98-99
और 9 वें मंडल के क्रमांक 27 व 29 के सूक्त नृमेध के नाम पर हैं किंतु उन सूक्तों में नृमेध का नाम कहीं पर भी दिखाई नहीं देता। आंगिरसकुलोत्पन्न नमेध सामों के भी द्रष्टा
थे। अग्नि ने इन्हें संतति प्रदान की ऐसा ऋग्वेद में उल्लेख है (ऋ. 10-83-3)। इनके एक सुपुत्र शकपूत भी सूक्तद्रष्टा
थे। ऋग्वेद के एक उल्लेखानुसार, एक बार मित्रावरुण ने नमेध की रक्षा की थी (ऋ. 12-132-7) । प्रतीत होता है, कि नमेध परूच्छेप के शत्रु थे। इन्द्र एवं सोम की स्तुति नृमेध के सूक्तों का विषय है। उनके मतानुसार सोम काव्यवृत्तिप्रेरक । तथा पापनाशक है। नृसिंह - ई. 16 वीं शती। गोदावरीतटस्थ गोलग्रामस्थ दिवाकर के कुल में नृसिंह का जन्म हुआ था। आपने अपने पिता तथा चाचा के पास अध्ययन किया। नृसिंह ने सूर्यसिद्धांत पर "सौरभाष्य" नामक एक ग्रंथ की रचना की। श्लोकसंख्या है- 42001
आपने "सिद्धान्तशिरोमणि" पर वासनावार्तिक अथवा वासनाकल्पलता नामक एक टीका भी लिखी जिसकी श्लोक संख्या 5500 है। नृसिंह- ई. 16 वीं शती। सुप्रसिद्ध ग्रहलाघवकार गणेश दैवज्ञ के भतीजे। जैसा कि सुधाकर ने लिख रखा है, आपने मध्यग्रहसिद्धि नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में केवल मध्यम-ग्रह ही दिये हैं। ग्रहलाघव की टीका और ग्रहकौमुदी नामक एक और ग्रंथ आपके नाम पर है। नृसिंह- सनगरवंशीय ब्राह्मण कवि। ई. 18 वीं शती। मैसूर के निवासी। पिता-सुधीमणि, भाई-सुब्रह्मण्य, गुरु-योगानन्द । गुरु से परा विद्या का अध्ययन और पिता से ज्ञान-विज्ञान का। एक अन्य गुरु-पेरुमल। आश्रयदाता-नंजराज (1739-59 ई.) मैसूर के राजा कृष्णराज द्वितीय (1734-1766 ई.) के श्वशुर तथा सर्वाधिकारी। अभिनव- कालिदास की उपाधि से प्रख्यात। चन्द्रकला-कल्याण (नाटक) के प्रणेता।
नृसिंह- ई. 18 वीं शती का पूर्वार्ध। कैरविणीपुरी (मद्रास) के निवासी। भारद्वाज गोत्र। पिता-कृष्णम्माचार्य। अनुमिति-परिणय (नाटक) के प्रणेता। न्यायशास्त्र पर यह लाक्षणिक नाटक आधारित है। नृसिंह पंचानन - ई. 17 वीं शती। रचनान्यायसिद्धान्त-मंजरी-भूषा। नृसिंह (बापूदेव) - सन् 1821-1890 । एक सुप्रसिद्ध ज्योतिषी व गणितज्ञ। महाराष्ट्रीय ऋग्वेदी चित्तपावन ब्राह्मण। मूल निवास-नगर जिले का गोदावरी- तटस्थ टोकेगाव। नागपुर में
आपका प्राथमिक शिक्षण हुआ और वहीं पर ढुंढिराज नामक एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण विद्वान् के पास भास्कराचार्य के लीलावती व बीजगणित नामक ग्रंथों का अध्ययन हुआ। नृसिंह का गणित-विषयक ज्ञान देखकर, विल्किन्सन नामक एक अंग्रेज अधिकारी उन्हें सिहूर की संस्कृत पाठशाला में अध्ययनार्थ ले गए। वहीं पर सेवाराम नामक एक गुरुजी के पास उन्होंने रेखागणित का अध्ययन किया। सन् 1841 में नृसिंह काशी की एक संस्कृत-पाठशाला में रेखागणित के अध्यापक बने और बाद में वहीं पर बने गणित-शाखा के मुख्याध्यापक। सन् 1864 में ग्रेट ब्रिटेन व आयर्लंड की रॉयल एशियाटिक सोसायटी के और सन् 1868 में बंगाल की एशियाटिक सोसायटी के वे सम्माननीय सदस्य बने। पश्चात् सन् 1869 में उन्हें कलकत्ता तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालयों की फेलोशिप प्रदान की गई। फिर सन् 1887 में सरकार ने उन्हें महामहोपाध्याय की पदवी से गौरवान्वित किया। नृसिंह द्वारा लिखे गए ग्रंथ हैं- रेखागणित, सायनवाद, ज्योतिषाचार्याशयवर्णन, अष्टादशविचित्रप्रश्नसंग्रह (सोत्तर), तत्त्वविवेकपरीक्षा, मानमंदिरस्थ-यंत्र- वर्णन और अंकगणित। इनके अतिरिक्त नृसिंह द्वारा लिखित कुछ छोटे-बडे अप्रकाशित लेख हैंचलनकलासिद्धान्तबोधक बीस श्लोक, चापीयत्रिकोणमिति संबन्धी कुछ सूत्र, सिद्धांत ग्रंथोपयोगी टिप्पणियां, यंत्रराजोपयोगी छेद्यक व लघुशंकुच्छिन्नक्षेत्रगुण। नृसिंह के कुछ ग्रंथों के हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित हो चुके हैं। नृसिंहाचार्य - "त्रिपुर-विजय-चम्पू" के रचयिता। तंजोर के भोसला नरेश एकोजी के अमात्यप्रवर। चंपू- का रचना-काल ई. 16 वीं शती के मध्य के आस-पास माना जाता है। पिता-भारद्वाज गोत्रोत्पन्न आनंद यज्वा। “त्रिपुर-विजयचम्पू" एक साधारण कोटि का काव्य है जो अभी तक अप्रकाशित है। इसका विवरण तंजौर केटलाग संख्या 4036 में प्राप्त होता है। नृसिंहाश्रम - ई. 16 वीं शती। एक आचार्य व ग्रंथकार । ये पहले दक्षिण में तथा बाद में काशी में रहते थे। इनके गुरु थे सर्वश्री गीर्वाणेंद्र सरस्वती और जगन्नाथाश्रम। कहा जाता है कि इनके संपर्क में आने पर ही अप्पय्य दीक्षित ने शांकरमत की दीक्षा ली थी। इनके द्वारा लिखे गए ग्रंथों के
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड/357
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