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किया है। कामसूत्र के अनुसार पाटलिपुत्र की गणिकाओं के उन्होंने अग्नि से प्रार्थना की है कि वह मृतक के कलेवर के अनुरोध पर कामशास्त्र के वैशिक अध्याय की रचना दत्तक किसी भी भाग को इधर या उधर न होने देते हुए उसे पूर्णतः मे की थी। ये दत्तक, दंतिल या दत्तिल से अभिन्न थे या दग्ध करे और उसे पितरों के लोक में ले जाकर छोड़े। नहीं यह संदिग्ध है। अभिनवभारती की बड़ोदा में सुरक्षित जिस मृतक की देह को अग्नि ने दग्ध किया, उसके लिये पांडुलिपि में आतोद्य तथा ताल के प्रसंग में दत्तिल के अनेक अंत में दमन ने यह आश्वासन मांगा है कि दहनभूमि पर पद्य उद्धृत हैं। इससे केवल यह सुस्पष्ट है कि ये भी एक पुनः दूर्वाकुरों की हरियाली फैले और वल्लरियों की आल्हाददायक नाट्याचार्य थे। दत्तिल को आचार्य विश्वेश्वर ने भरत का पूर्ववर्ती शीतलता छाए। माना है परंतु बाबूलाल शुक्ल ने समकालीन माना है। सुरेन्द्रनाथ
___ इस प्रकार एक मृत संबंधी के प्रति स्नेहभावना से सरोबार दीक्षित का भी यही मत है। श्री. शुक्ल के अनुसार आचार्य
होने के कारण इस सूक्त को काव्यात्मकता प्राप्त हुई है। दमन दत्तिल का "दत्तिल-कोहलीयम्" नामक नृत्यकला विषयक ग्रंथ
को यम का पुत्र माना जाता है। है जिसकी अप्रकाशित पाण्डुलिपि तंजौर के ग्रन्थागार में विद्यमान
दयानंद सरस्वती - समय- 1824-1883 ई.। मूल नाम है। "दत्तिलम्" नामक प्रसिद्ध तथा सर्वविदित प्राप्य संगीत
मूलशंकर (मूलजी)। पिता- अंबाशंकर, सामशाखीय औदीच्य ग्रंथ का भी उल्लेख किया गया है। नाट्यशास्त्र के संगीतकला
ब्राह्मण । कर्मठ, धर्मनिष्ठ, संपन्न शैव परिवार में जन्म । जन्मस्थान विषयक 28 वें अध्याय में दत्तिल के मत का उल्लेख प्रायः
मोरवी (काठियावाड)। पिता के पास आठ वर्ष की आयु में 14 बार किया गया है, तथा उसके कुछ उद्धरण भी हैं।
ही यजुर्वेद का अध्ययन तथा व्याकरण से परिचय। छोटी भरत के एक पुत्र को इन्होंने संगीत सिखाया था। भरत ने
बहन तथा पितृव्य की मृत्यु के कारण संसार से विरक्ति । अपने ग्रंथ में दत्तिलाचार्य का उल्लेख किया है।
गृह-त्याग। स्वामी पूर्णानंद से सन 1845 में संन्यास- दीक्षा दफ्तरदार, विठोबाअण्णा - सन् 1813-1873 । एक महाराष्ट्रीय
। स्वामी विरजानंद के पास व्याकरण का अध्ययन । रचनाएंकवि। इनका जन्म बेदरे उपनामक शांडिल्यगोत्र के देशस्थ
सत्यार्थ-प्रकाश, संस्कार-विधि, ऋग्वेदादि-भाष्य-भूमिका, ग्राम्हण-परिवार में क-हाड में हुआ था। मूलतः उनका घराना ऋग्वेद-भाष्य, यजुर्वेद-भाष्य, उणादिकोश-वृत्ति आदि। बेदर का, किन्तु इनके पितामह पेशवा की सेवा में कहाड आर्य-समाज के संस्थापक, वेदों के आधुनिक भाष्यकार और विभाग के दफ्तरदार बने और क-हाड ही में यह घराना बस महान् समाज-सुधारक के नाते सुप्रसिद्ध। गुरु विरजानंद की गया। तभी से इनका परिवार बेदरे के बदले दफ्तरदार-उपनाम इच्छा के अनुसार की हुई प्रतिज्ञानुसार उन्होंने अपना पूरा से पहचाना जाने लगा।
जीवन सत्य के प्रचार, मूर्तिपूजा व अंध रूढियों के खंडन-उच्चाटन विठोबाअण्णा ने संस्कृत एवं मराठी श्रेष्ठ कवियों की रचनाओं तथा वैदिक ज्ञान की पुनःस्थापना के हेतु समर्पित कर दिया था। का सूक्ष्म अध्ययन किया था। अपनी रसीली वाणी से वे दयानंदजी का जन्म वेदविद्या के हासकाल में हुआ पुराणों का कथन भी किया करते थे। अपने वक्तृत्व को संगीत था। अंग्रेजी विद्या बड़ी तेजी से भारत में प्रतिष्ठित होने लगी से सजा कर, उन्होंने कीर्तन-कला में भी प्रावीण्य प्राप्त किया ___ थी। अपनी भारतीय विद्या के संबंध में उदासीनता भी उसी था। बचपन से ही वे आशुकवि थे। उन्होंने संस्कृत में अनेक तरह फैल रही थी। ऐसे समय दयानन्दजी प्रकट हुए और काव्यों की रचना की। वे भगवान राम के उपासक थे। उन्होंने उन्होंने ऋग्वेद और यजुर्वेद पर भाष्य-रचना कर वेद-विद्या पर अपनी रामभक्ति, अपने काव्य में अनेक प्रकार से व्यक्त की नया प्रकाश डाला। है। उन्होंने गजेन्द्रचंपू, सुश्लोकलाघव, हेतुरामायण, वेदों में एकेश्वर-उपासना ही प्रतिपादित है, यह उनका मन्तव्य प्रबोधोत्सवलाघव, साधुपार्षदलाघव आदि दस-बारह संस्कृत था। सायण-सदृश पूर्ववर्ती भाष्यों से उन्होंने कुछ सहायता ली काव्य-ग्रंथों की रचना की है। उनके मराठी काव्य पर भी किन्तु अर्थ का व्याख्यान स्वतंत्र रूप से किया। कर्म, उपासना संस्कृत का काफी प्रभाव है।
व ज्ञानकाण्ड का अधिक विस्तार न कर उन्होंने संहितामंत्रों के अपनी आयु के साठवें वर्ष, चैत्र वद्य एकादशी के दिन मूल अर्थ की खोज करने पर ही अधिक ध्यान दिया। अतः प्रातः इन्होंने इहलोक छोडा। अपने कीर्तनों को प्रभावशाली पूर्ववर्ती भाष्यकारों का उन्होंने उचित स्थल, पर खण्डन भी किया है। बनाने हेतु महाराष्ट्र के कीर्तनकार आज भी विठोबाअण्णा के उनके मत से अरुचि रखने वाले अभ्यासक भी उनकी संस्कृत ब मराठी काव्य का सहारा लिया करते हैं। असाधारण विद्वत्ता, अलौकिक प्रतिभा, उत्कृष्ट वक्तृत्व व दमा - ऋग्वेद के दसवें मंडल के सोलहवें सूक्त के द्रष्टा वाक्यटुता, स्वदेशाभिमान और परम वेदनिष्ठा को सदैव मानते किन्तु ऋग्वेद में इनका कहीं पर भी नामोल्लेख नहीं। अपने रहेंगे। प्रतिकूल काल में उन्होंने वेदनिष्ठा जगाई और वेदविद्या एक मृत संबंधी के कलेवर को भस्मसात् करने वाली अग्नि के रक्षण के लिए तथा वेदानुकूल समाज-सुधार के लिए आर्य को संबोधित करते हुए इस सूक्त की रचना दमन ने की है। समाज जैसी प्रभावी संघटना की स्थापना की।
334 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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