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दयालपाल मुनि - रचना- रूपसिद्धि (शाकटायन व्याकरण दानशेखरसुरि- तपागच्छीय हेमविमल सूरि के समकालीन । का प्रक्रिया-ग्रन्थ)। इसके अतिरिक्त दो टीकाकारों ने प्रक्रिया जिन माणिक्यगणि के प्रशिष्य और अनन्तहंसगणि के शिष्य । ग्रंथ की रचना की है। अभयचन्द्राचार्य (प्रक्रियासंग्रह), और ग्रंथ :- भगवती-विशेषपद-व्याख्या। संबद्ध विषयों का विस्तृत भावसेन विद्यदेव (शाकटायन टीका)। रूपसिद्धि प्रकाशित विवेचन इस ग्रंथ में किया है। है पर शेष दो अप्राप्य हैं। भावसेन को "वादिपर्वतवज्र' भी दामोदर- ई. 17 वीं शती। गुजरात के संन्यासी कवि। वेदों कहते हैं।
के उपासक। रचना- "पाखण्ड-धर्म-खण्डन" नामक तीन अंकी दवे, जयन्तकृष्ण हरिकृष्ण - कार्यवाह, संस्कृत विश्व परिषद्।। नाटक। कृति-सोमनाथ प्रतिष्ठापन के प्रसंग पर रचित सोमराजस्तवः।। दामोदर- पुष्टि-मार्ग (वल्लभ-संप्रदाय) की मान्यता के अनुसार ४० श्लोकों का शिवस्तोत्र। भारतीय विद्याभवन द्वारा आंग्लानुवाद भागवत की महापराणता के पक्ष में सहित प्रकाशित । मुंबई के भारतीय विद्याभवन के निदेशक।। "श्रीमद्भागवत-निर्णय-सिद्धान्त” नामक लघु कलेवर ग्रंथ के अंग्रेजी में लिखे हुए अनेक शोधलेख प्रकाशित हैं। शंकराचार्य
लेखक। प्रस्तुत कृति एक स्वल्पाकार गद्यात्मक रचना है जिससे द्वारा महामहोपाध्याय उपाधि प्राप्त ।
दामोदर द्वारा पुराणों के विस्तृत अनुशीलन किये जाने का दांडेकर, रामचंद्र नारायण (पद्मभूषण)- जन्म- सन 1901 में, परिचय मिलता है। सातारा (महाराष्ट्र) में। डेक्कन कॉलेज (पुणे) में उच्च शिक्षा
दामोदरशर्मा गौड (पं.)- वैद्य। वाराणसी में वास्तव्य । ग्रहण। 1931 में हिडलबर्ग (जर्मनी) में एम्. ए. उपाधि तथा
ए.एम.एस.। रचना-अभिनव-शारीरम् (पृष्ठ 582, श्वेतकृष्ण तथा 1938 में वहीं पर पीएच.डी. उपाधि प्राप्त। 1932 से 50
रंगीन चित्रों व आकृतियों सहित) । वैद्यनाथ आयुर्वेदीय प्रकाशन । तक फर्ग्युसन कालेज (पुणे) में संस्कृत के आचार्य। 1939
1975 ई.। से भांडारकर प्राच्यविद्या संस्थान के सतत अवैतनिक सचिव।
दामोदरशास्त्री- समय- 1848-1909 ई. में नूतन विचारों से डेक्कन एज्युकेशन सोसाइटी के मंत्री। 1964 से 74 तक पुणे
संबंधित पाक्षिक पत्र “विद्यार्थी' का सम्पादन कर आपने विश्वविद्यालय के संस्कृत उच्चाध्ययन केंद्र के निदेशक। विश्व के सभी देशों में, जहां भी संस्कृत के सम्मेलन हुए, वहां
संस्कृत साहित्य की अपूर्व सेवा की है। उनके द्वारा रचित, भारत के प्रतिनिधि होकर सहभागी हुए। विदेशों में सर्वत्र
"बालखेलम्" नामक पांच अंकों वाला नाटक, श्रीगंगाष्टकम्
तथा जगन्नाथाष्टकम् आदि अष्टक, कालिदास व हर्षवर्धन की मान्यता प्राप्त। 1943 से अ. भारतीय प्राच्यविद्या परिषद् के
शैलियों का अपना कर लिखी गयी "चन्द्रावलि" नाटिका के सचिव का दायित्व। विश्व संस्कृत सम्मेलन, वाराणसी-अधिवेशन
अतिरिक्त दार्शनिक सिद्धान्तों के विवेचन में "एकान्तवासः" के अध्यक्ष। अवकाश प्राप्ति के बाद पुणे विश्वविद्यालय में
नामक निबंध विशेष उल्लेखनीय है। "एमेरिटस् प्रोफेसर" पद प्राप्त । इन विविध संमानों के अतिरिक्त 1973 में इण्टरनेशनल यूनियन फार ओरिएंटल अॅण्ड एशियन
दिङ्नाग- "कुन्दमाला" नामक नाटक के प्रणेता। इस नाटक स्टडीज के अध्यक्ष, यूनेस्को के जनरल असेंब्ली ऑफ दी
की कथा "रामायण" पर आधृत है। रामचंद्र-गुणचंद्र द्वारा इंटर नेशनल कौन्सिल फॉर फिलॉसाफी अॅण्ड ह्यूमेनिस्टिक
रचित "नाट्य-दर्पण" में "कुंदमाला" का उल्लेख है। अतः स्टडीज के सदस्य, इत्यादि विविध प्रकार के दुर्लभ सम्मान
इनका समय 1000 ई. के निकट माना गया है। बौद्ध न्याय डॉ. दाण्डेकरजी को प्राप्त हुए। ग्रंथ- देर वेदिक (1938),
के जनक आचार्य दिङ्नाग से ये भित्र हैं। ज्ञानदीपिका (आदिपर्व) 1941, ए हिस्ट्री आफ् गुप्ताज् 1941,
दिङ्नाग- उच्च ब्राह्मण-कुल में जन्म। बौध्दन्याय के जनक । प्रोग्रेस ऑफ इंडिक स्टडीज (1942), रसरत्नदीपिका (1945),
दीक्षा के पूर्व का नाम नागदत्त । ये दक्षिणी ब्राह्मण थे। जन्म वैदिक बिब्लिओग्राफी, प्रथम खंड (1951), द्वितीय खंड
कांची के निकट सिंहवक्र नामक गांव में। प्रारंभ में वे (1961), तृतीय खंड (1973), न्यू लाइट ऑन् वैदिक
हीनयान संप्रदायांतर्गत वात्सीपुत्रीय शाखा के नागदत्त के शिष्य माइथॉलाजी (1951), श्रौतकोष-तीन खण्डो में (1958-73),
थे। पश्चात् त्रिपिटक का सूक्ष्म अध्ययन करने के बाद उन्होंने क्रिटिकल एडिशन ऑफ दी महाभारत शल्यपर्व (1961),
महायान पंथ में प्रवेश किया और वे आचार्य वसुबंधु के अनुशासनपर्व (1966), सुभाषितावली (1962), सम् आस्पेक्टस्
शिष्य बने। वसुबंधु के मार्गदर्शन में उन्होंने महायान पंथ के ऑफ हिस्ट्रि ऑफ हिंदुईज्म (1967), इस बहुमूल्य वाङ्मय
सभी प्रमाणभूत ग्रंथो का अध्ययन किया। कहते हैं कि उन सेवा के अतिरिक्त देश-विदेश की अनेक शोध पत्रिकाओं तथा
पर बोधिसत्त्व मंजुश्री की असीम कृपा थी। अतः उन्हें कुछ अभिनंदन ग्रंथों में डॉ. दाण्डेकरजी के अनेक विद्वत्तापूर्ण निबंध
भी अगम्य न रहता था। उनकी तीक्ष्ण बुद्धि तथा प्रकांड प्रकाशित हुए हैं। संस्कृत वाङ्मय की सेवा आपने केवल
पांडित्य की कीर्ति जब नालंदा पहुंची, तो नालंदा विद्यापीठ अंग्रेजी के माध्यम से की। संस्कृत भाषा में आपकी कोई
के आचार्य ने उन्हें वहां सादर आमंत्रित किया। वहां पहुंच रचना नहीं।
कर उन्होंने सुदुर्जय नामक एक वैदिकधर्मीय तार्किक को तथा
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 335
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