________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
दाशरथिशतकम्, कृष्णशतकम् भास्करशतकम्, सुभाषितशतकम्, (तेलुगुशतककाव्यों के अनुवाद) और सुषुप्तिवृत्तम् । चित्सुखाचार्य समय 1220-1284 ई. अद्वैत वेदान्त के महनीय आचार्य गुरु ज्ञानोत्तम तत्संबंधी अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया। आप अपनी मौलिक प्रमेय बहुला कृति "तत्त्वदीपिका" (प्रख्यात नाम चित्सुखी) से विख्यात हैं जो अद्वैत वेदांत का प्रमाण-ग्रंथ है, परन्तु इनकी व्याख्यायें भी कम महत्त्व की नहीं। इनमें शारीरक भाष्य की भावप्रकाशिका, ब्रह्मसिद्धि पर अभिप्रायप्रकाशिका तथा नैष्कर्म्यसिद्धि पर भावतत्त्वप्रकाशिका पर्याप्त रूप से विख्यात हैं । इन्होंने विष्णुपुराण तथा भागवत पर भी व्याख्यायें लिखी थीं। जीव गोस्वामी द्वारा निर्दिष्ट भागवत के व्याख्याकारों का कालक्रम अज्ञात है फिर भी चित्सुखाचार्य ही भागवत के सर्वाधिक प्राचीन व्याख्यानुसार प्रतीत होते हैं।
श्रीधर स्वामी ने विष्णु पुराण के अपने व्याख्या "आत्मप्रकाश" के आरंभ में चित्सुख-रचित व्याख्या का किया है किन्तु यह टीका उपलब्ध नहीं है। इसी प्रकार भागवत के व्याख्या ग्रंथ का निर्देश ही इतर टीकाग्रंथों में मिलता है। समग्र ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। जीव गोस्वामी ने अपनी भागवत - व्याख्याओं में चित्सुख द्वारा निर्दिष्ट पाठ का सम्मान के साथ संकेत किया है। यदि यह टीका उपलब्ध हो तो भागवत के अर्थ - परमार्थ जानने के अतिरिक्त उसके मूल पाठ की भी समस्या का विशेष समाधान हो सकता है।
चित्सुख का समय निर्धारण, शिलालेखों के आधार पर किया गया है। दक्षिण के दो शिलालेखों में चित्सुख का नाम मिलता है। 1220 ई. के शिलालेख में चित्सुख सोमयाजी का तथा 1284 ई. के शिलालेख में चित्सुख भट्टारक उपनाम नरसिंह मुनि का उल्लेख है। ये दोनों ग्रंथकार, प्रसिद्ध अद्वैत वेदांत चित्सुख से अभिन्न माने जाते हैं अतः उनका समय, इन शिलालेखों के समकालीन (1220 ई. 1284 ई.) माना जाता है।
चित्सुख के कुछ अन्य छोटे-बडे ग्रंथ हैं पंचपादिका विवरण की व्याख्या "भावद्योतिनी" "न्यायमकरंदटीका", "प्रमाणरत्नमाला व्याख्या", "खंडनखंडद्य - व्याख्यान", “अधिकरणसंगति”, “अधिकरणमंजरी" और वृहत्शंकरविजयः । चित्रसेन- ई. 17 वीं शती । बरद्वान निवासी। जैन धर्मगुरु । रचना - चित्रचम्पू ।
चित्रभानु इस कवि के तीन काव्य विशेष उल्लेखनीय है(1) पाण्डवाभ्युदयम् (2) भारतोद्योतः तथा (3) तरुणभारतम् । चिदम्बर- पिता- अनन्त नारायण । चिदम्बर का विलक्षण भाषा - प्रभुत्व लक्षणीय है। रचना- राघव यादव- पाण्डवीयम् (सन्धानकाव्य ) । इस पर पिता की टीका अन्य रचनाएं (1) पंचकल्याणचम्पू । इस पंचार्थश्लिष्ट काव्य में पांच देवताओं के
21
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
विवाह का वर्णन श्लेषालंकार से वर्णित है। इस पर स्वयं कवि की टीका है और (2) भागवत - चम्पू । चिद्विलासयति रचना - शंकरविजयविलासः । यह संवादात्मक काव्य है। संवादक हैं- विज्ञानकांड और तपोधन । चिरंजीव भट्टाचार्य- समय- 15 वीं शती । वास्तवनाम - रामदेव अथवा वामदेव किन्तु चिरंजीव नाम से विख्यात । शतावधानी राघवेन्द्र भट्टाचार्य के पुत्र । ढाका के नायब दीवान यशवन्तसिंह का समाश्रय प्राप्त था। मूलतः राधापुर (बंगाल) के निवासी । गोत्र - काश्यप ।
कृतियां कल्पलता, शिवस्तोत्र, शृंगार तटिनी, माधवचम्पू और विद्वन्मोदतरंगिणी ( इसमें इन्होंने अपने वंश का वर्णन किया है। दो ग्रंथ, क्रमशः कलकत्ता तथा मुंबई से प्रकाशित) । चिरंजीव शर्मा - समय ई. 18 वीं शती । बंगाल के निवासी । कृतियां काव्यविलास और वृत्तरत्नावली।
चूडानाथ भट्टाचार्य - ई. 20 वीं शती। शासकीय संस्कृत महाविद्यालय, काठमाण्डू (नेपाल) के प्राचार्य "परिणाम" नामक सात अंकी नाटक के प्रणेता।
चैतन्य (गौरांग महाप्रभु) कृष्णचैतन्य- समय-1485-1536 ई. । गौडीय वैष्णव मत अथवा चैतन्य-मत के प्रवर्तक । वंशदेशीय नदिया (नवद्वीप) के एक पवित्र ब्राह्मण कुल में जन्म (1485 ई.) । बाल्यकाल का नाम विश्वंभर मिश्र । नवद्वीप के प्रख्यात पंडित गंगादास से विद्याध्ययन। समस्त शास्त्रों में, विशेषतः तर्कशास्त्र में, अत्यधिक विचक्षणता प्राप्त । अनेक पंडितों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। अपनी पाठशाला खोलकर छात्रों को ज्ञानदान का कार्य किया । पिता जगन्नाथ ने उनका नाम विश्वंभर रखा था। माता शचिदेवी उन्हें निमाई के नाम से पुकारती थीं क्यों कि उनका जन्म नीम-वृक्ष के तले हुआ था । पास-पडोस के लोग उनका गौरवर्ण देखकर उन्हें गौरहरि कहते थे ।
गौरांग प्रभु के नाना महान् ज्योतिषी थे। गौरांग के जन्म के पश्चात् उसके शरीर के शुभचिन्ह देखकर उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि एक महापुरुष अवतरित हुआ
है ।
अपने पिता के श्राद्ध हेतु 1507 ई. में गया धाम गये। वहां ईश्वरपुरी से वैष्णव- दीक्षा ली। फिर पुरीजी के गुरुभाई केशब भारती से 1508 ई. में संन्यासदीक्षा ग्रहण की। आप तभी से कृष्णचैतन्य के नाम से विख्यात हुए और वृद्धा माता तथा तरुण पत्नी के स्नेह - ममत्व को भुलाकर, राधाकृष्ण की भक्ति के प्रचार में जुट गए।
चैतन्य महाप्रभु ने अखिल भारत के विख्यात तीर्थो की यात्रा करते हुए भक्ति का प्रचार किया। सन् 1510-11 ई. में उत्तर भारत की यात्रा करते समय इनका ध्यान वृंदावन के उद्धार की ओर गया। अतः इन्होंने अपने सहपाठी लोकनाथ
For Private and Personal Use Only
बाड्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 321
-