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में शिक्षा। अपने भक्त पितृव्यों की भक्ति तथा वैराग्य के उज्वल आदर्श से प्रभावित हो अल्पायु में ही घर बार त्याग कर परम विरक्त बन गए। काशी में मधुसूदन सरस्वती से वेदांत शास्त्र का पूर्ण अध्ययन किया। पश्चात् वृंदावन में अपने पितृव्यों की संगति में आकर रहने लगे। प्रकांड पंडित के रूप में इनकी ख्याति सर्वत्र फैली। कहते हैं कि इन्होंने असम के रूपनारायण नामक एक उद्धत संन्यासी को शास्त्रार्थ में पराजित कर, उसका गर्वहरण किया था कितु इनके पितृव्य सनातनजी उनसे इस वैष्णव विरोधी कार्य पर रुष्ट हुए थे। बाद में रूप गोस्वामी ने बडी युक्ति से इन्हें क्षमा प्रदान कराई थी। बादशाह अकबर के आग्रह करने पर ये एक दिन के लिये आगरा भी गए थे।
भजन भक्ति और ग्रंथप्रणयन ही इनके जीवन का व्रत था। इनके ग्रंथ गौडीय वैष्णव संप्रदाय के सिद्धान्तों के प्रकाश स्तंभ हैं जिनमें इनकी विद्वत्ता पाठकों को पग पग पर विस्मित करती है। इनके प्रमुख ग्रंथों के नाम हैं। षट्संदर्भ, क्रमसंदर्भ, दुर्गमसंगमनी, ब्रह्मसंहिता की टीका, कृष्ण-कर्णामृत की टीका, हरिनामामृत-व्याकरण और कृष्णार्चन-दीपिका। ब्रह्मसंहिता की टीका और कृष्णकर्णामृत की टीका को चैतन्य महाप्रभु अपनी दक्षिण यात्रा के समय अपने साथ ले गए थे।
इनके अतिरिक्त इनकी अन्य रचनाएं भी मिलती हैं। चैतन्य मत के षट्गोस्वामियों (6 आचार्यो) का कार्य, इस मत के इतिहास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। जीव गोस्वामीजी, इन छहों गोस्वामियों में निःसंदेह प्रगल्भतम आचार्य थे। इनका अलौकिक कार्य विवेचक को विस्मय विमुग्ध करने वाला है।
ये एक ऐसे महनीय आचार्य हैं जिन्होंने भागवत पर 3 टीकाओं का प्रणयन करते हुए, उसके रहस्यभूत एवं गूढतम अर्थ की अभिव्यक्ति की।
इनके अतिरिक्त इन्होंने लघुतोषिणी, धातुसंग्रह, सूत्रमालिका, माधवमहोत्सव, गोपालचंपू, गायत्रीव्याख्या निवृत्ति, गोपालतापिनी, योगसारस्तोत्र आदि छोटे बड़े ग्रंथों की रचना की है।
केवल 25 वर्ष की आयु में ही अपने चाचा रूप गोस्वामी से वैष्णव पंथ की दीक्षा ली और आजन्म नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहकर अपने संप्रदाय की सेवा में संलग्न रहे। इन्होंने चैतन्य मत को सुदृढ़ दार्शनिक भित्ति पर प्रतिष्ठित किया। अतः इन्हें चैतन्य मत का महान् भाष्यकार कहा जाता है। जीवधर शर्मा - ई. 17 वीं शती। मेवाड के कवि। इनकी कृति है : “अमरसार" नामक महाकाव्य। इसमें मेवाड़ के राणा प्रताप, राणा अमरसिंह और राणा करणसिंह के शासनकाल का वर्णन है। जीवनलाल नागर - समय - 1823-1869 ई.। नागर बूंदी के महाराजा रामसिंह के शासनकाल में बूंदी राज्य के मुख्यमंत्री थे। "कृष्णखण्डकाव्य" इनकी प्रसिद्ध कृति है।
जीवनलाल पारेख - ई. 20 वीं शती। सूरत महाविद्यालय में व्याख्याता । "छायाशकुन्तला" नामक एकांकी रूपक के प्रणेता। जीव न्यायतीर्थ - जन्म- ई. 1894 में बंगाल के चौबीस परगना जिले के भट्टपल्ली (भाटपाडा) ग्राम में। पंचानन तर्कशास्त्र के पुत्र। गुरु-काशी निवासी म.म. राखालदास ।
1929 में कलकत्ता वि.वि. में संस्कृत के प्राध्यापक। वहां 29 वर्ष अध्यापन । फिर भट्टपल्ली के संस्कृत कालेज के प्राचार्य। "प्रणवपारिजात" तथा "अर्थशास्त्र" नामक पत्रिकाओं के संपादक। राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित। 1955 से सटीक महाभारत का सम्पादन। जीवबुध - ई. 17 वीं शती। पिता- कोनेरी राजा। जन्म उपद्रष्टा वंश में जिसमें पण्डितराज जगन्नाथ हुए थे। रचना-“नलानन्द" नामक नाटक। जीवराज - "गोपालचम्पू" के रचयिता। इसका प्रकाशन वृंदावन से वंगाक्षरों में हुआ है। इन्होंने स्वयं ही अपने इस चम्पू काव्य पर एक टीका लिखी है। आप महाप्रभु चैतन्य के समकालीन व परम वैष्णव थे। ये महाराष्ट्र निवासी तथा भारद्वाज गोत्रोत्पन्न कामराज के पौत्र थे। जीवानन्द विद्यासागर - ई. 19 वीं शती। कृतियां-हर्षचरित, दशकुमारचरित तथा वासवदत्ता पर व्याख्याएं। मृच्छकटिक, शाकुन्तल, रत्नावली, मुद्राराक्षस, मालतीमाधव, उत्तररामचरित, बालरामायण, विद्धशालभंजिका तथा कर्पूरमंजरी इन नाटकों की व्याख्याएं। "काव्यसंग्रह" (संस्कृत पद्य रचनाएं)।
रघुवंश, कुमारसम्भव, मेघदूत, भट्टिकाव्य, किरात, शिशुपालवध, घटकर्पर तथा नलोदय पर टीकाएं। साहित्यदर्पण पर "विमला" नामक वृत्ति तथा श्रुतबोधव्याख्यान । जुह - ऋग्वेद के 10 वें मण्डल के 109 वें सूक्त के द्रष्टा । इस सूक्त में उन्होंने कहा है कि सृष्टि और उसके लिये आवश्यक तप की उत्पत्ति सत्य से हुई है। जैमिनि . कौत्सकुलोत्पन्न। वेदव्यास के शिष्य । सामवेद के अध्यापक व प्रसारक। पूर्वमीमांसादर्शन के सूत्रकार के रूप में महर्षि जैमिनि का नाम प्रसिद्ध है। समय ई.पू. 4 थी शती। विष्णुशर्मा कृत "पंचतंत्र" में हाथी द्वारा जैमिनि के कुचल दिये जाने की घटना का उल्लेख है। (मित्रसंप्राप्ति, 36 श्लोक)। महर्षि जैमिनि, मीमांसा दर्शन के प्रवर्तक न होकर उसके सूत्रकार माने जाते हैं क्यो कि इन्होंने अपने पूर्ववर्ती व समसामयिक 8 आचार्यों का नामोल्लेख किया है। वे है : आत्रेय, आश्मरथ्य, कार्णाजिनि, बादरि, ऐतिशायन, कामुकायन, लाबुकायन व आलेखन। पर इन आचार्यों के कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं होते। जैमिनिकृत "मीमांसासूत्र" 16 अध्यायों में विभक्त है जिसमें इस दर्शन के मूलभूत सिद्धान्तों का निरूपण है। इस पर अनेक वृत्तियों व भाष्यों की रचना हुई है।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 329 .
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