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अनंतदेव- ई. 17 वीं शती। पैठन (महाराष्ट्र) के एकनाथ महाराज के बाद चौथे पुरुष। पिता का नाम आपदेव। आपदेव ने 'मीमांसान्यायप्रकाश' नामक ग्रंथ लिखा है। मीमांसाशास्त्र का अध्ययन इस परिवार में परंपरा से चल रहा था। इनके आश्रयदाता, अलमोडा एवं नैनीताल के चन्द्रवंशीय शासक बाजबहादुर थे (17 वीं सदी)। उन्हींकी प्रेरणा से अनंतदेव ने 'राजधर्मकौस्तुभ' नामक ग्रंथ लिखा"बाजबहादुरचंद्र-भूपतेस्तस्यभूरियशसे प्रतन्यते। राजधर्मविषयेऽत्र कौस्तुभेऽनेकपद्धतियुतोऽर्थ-दीधितिः ।।" इन्होंने राज-धर्म के पूर्वस्वीकृत सिद्धान्तों का समावेश करते हुए, अपने इस ग्रंथ की रचना की है। अनन्तदेव की अन्य रचनाएं हैं- सैनिक शास्त्र तथा त्रिवर्णिक-धर्म। इनका रचना-काल 1662 ई. के आसपास है। ___ भारत के सर्वोच्च न्यायलय ने इनके 'स्मृतिकौस्तुभ' नामक ग्रंथ को प्रमाणभूत माना है। दत्तक विधान पर इसमें उल्लेख है। संस्कारकौस्तुभ, अग्निहोत्र-प्रयोग आदि ग्रंथ भी इन्होंने लिखे हैं। ये कृष्णभक्तिचंद्रिका नामक नाटक के भी प्रणेता हैं।
अनन्तनारायण- बृहदम्मा तथा मृत्युंजय के पुत्र । रचना-'सराफोजीचरितम्'। 'पंचरत्नकवि' की उपाधि प्राप्त। ई. 19 वीं शती। अनन्तनारायण- ई. 18 वीं शती। ये पाण्ड्य-प्रदेशीय थे। इन्हें केरलनरेश मानविक्रम तथा त्रिचूरनरेश रामवर्मा द्वारा सम्मानित किया गया था। इनका 'शृंगारसर्वस्व' नामक भाण प्रसिद्ध है। अनंतभट्ट- 'भारतचंपू' तथा 'भागवतचंपू' के रचियता। समय अज्ञात। कहा जाता है कि भागवतचंपू' के प्रणेता अभिनव कालिदास की प्रतिस्पर्धा के कारण ही इन्होंने उक्त दो चंपू-काव्यों का प्रणयन किया था। इस दृष्टि से इनका समय 11 वीं शती है। 'भारतचंपू' पर मानवदेव की टीका प्रसिद्ध है, जिसका समय 16 वीं शती है। प. रामचंद्र मिश्र की हिन्दी टीका के साथ 'भारतचंपू' का प्रकाशन, चौखंबा विद्याभवन से 1957 ई. में हो चुका है। अनन्तवीर्य (बृहद् अनन्तवीर्य)- अनन्तवीर्य नाम के अनेक विद्वान हुए हैं। उनमें से हुम्मवंशी पंचवस्तिवर्ती प्रांगण के पाषाण-लेख में (ई.1077) अकलंक-सूत्र के वृत्तिकर्ता के रूप में इनका नामोल्लेख है। ये द्रविडसंघ के आचार्य-ग्रंथकार रहे हैं। ये वादिराज के दादागुरु और श्रीपाल के सधर्मा थे। समय ई. 10-11 वीं शती। रविभद्र के शिष्य। रचनाएं सिद्धिविनिश्चय-टीका और प्रमाण-संग्रह-भाष्य या प्रमाणसंग्रहालंकार (दार्शनिक ग्रंथ)। मणिप्रवाल की तरह इनकी गद्य-पद्यमय रैली चंपूकाव्य जैसी है। अकलंक के सिद्धिविनिश्चिय की टीका करते समय इन्होंने प्रकरणगत अर्थ को स्वरचित श्लोकों में व्यक्त किया है।
अनंतवीर्य- समय लगभग 11 वीं सदी। जैनधर्मी दिगंबरपंथी __ आचार्य। इन्होंने परीक्षामुख नामक ग्रंथ पर प्रमेयरत्नमाला एवं
अकलंक के ग्रंथ पर न्यायविनिश्चयवृत्ति नामक टीकाएं लिखी हैं। अनन्ताचार्य- 'प्रपन्नामृतम्' काव्य के रचयिता। इसमें दक्षिण भारत के अलवार-संप्रदाय के कतिपय साधुओं का चरित्र ग्रंथित है। अनन्ताचार्य- मैसूर राज्य के उदयेन्द्रपुर-निवासी। इन्होंने 'यादव-राघवपाण्डवीयम्' नामक काव्य की रचना की। भगवान कृष्ण, राम, तथा पांडवचरित्र विषयक तीन अर्थों की सभंग
और अभंग श्लेषद्वारा अभिव्यक्ति यह इस काव्य की अनोखी विशेषता है। अनंताचार्य (अनंत) - समय - ई. 18 वीं शती। काण्ववंशीय ब्राह्मण पंडित। काण्वसंहिता (शुक्ल यजुर्वेद) का भाष्य (भावार्थदीपिका) इनकी प्रमुख रचना है। इनके अन्य ग्रंथ हैं- (1) शतपथब्राह्मण भाष्य। इसके 13 वें अर्थात् अष्टाध्यायीकाण्ड के भाष्य का एक लेख मद्रास में है। (2) कण्वकण्ठाभरण। इसके हस्तलेख भी मद्रास में हैं। (3) पदार्थ-प्रकाश नामक याजुष प्रातिशाख्य-भाष्य और (4) भाषिक-सूत्र-भाष्य।
इन कृतियों में से काण्व-संहिता के उत्तरार्ध पर विरचित भाष्य-ग्रंथ में अनन्ताचार्य का मातृ-पितृनाम, निवास-स्थान इत्यादि विषयक कुछ जानकारी प्राप्त होती है। तदनुसार पिता नागदेव या नागेश भट्ट। माता-भागीरथी और वे काशी में रहते थे। अनंताचार्यजी स्वयं को प्रथम शास्त्रीय कहते हैं। काण्व-संहिता के केवल उत्तरार्ध पर भाष्य-रचना करने का कारण यह बतलाया गया है कि केवल पूर्वार्ध पर ही सायणाचार्यजी का भाष्य उपलब्ध है, उत्तरार्ध पर नहीं। किन्तु हाल की में संपूर्ण काण्वसंहिता पर सायणाचार्यजी की भाष्यरचना उपलब्ध होने का दावा कुछ अभ्यासकों ने किया और तद्नुसार ग्रंथ प्रकाशित भी हुआ है। इससे यह बात स्पष्ट है कि अनन्ताचार्यजी को काण्वसंहिता का सायणाचार्यविरचित समग्र भाष्य उपलब्ध नहीं था।
अनन्ताचार्यजी की भाष्य-रचना पर महीधराचार्यजी (माध्यन्दिनसंहिता के भाष्यकार) का प्रभाव है।
श्रौत अर्थ के अतिरिक्त कई मन्त्रों में अनन्ताचार्यजी ने पौराणिक अर्थ दिखाया है। इन्होंने ब्राह्मण-ग्रंथ का गहरा अध्ययन किया था। संभवतः वे माध्व-संप्रदाय के थे। अनन्ताचार्य- समय- 1874-1942 ई. । श्री. रामानुज सम्प्रदाय के प्रकाण्ड पण्डित, महान दार्शनिक तथा धर्मप्रचारक थे। वे कांचीवरस्थ प्रतिवदि-भयंकर मठ के अधिपति थे। इन्होंने अपने मत के प्रचारार्थ 'मंजुभाषिणी' नामक पत्रिका का अनेक वर्षों तक सम्पादन और भारत-भ्रमण किया। 'संसारचरितम्' और 'वाल्मीकि-भावप्रदीप', इनकी श्रेष्ठ रचनाएँ हैं। इनकी अन्य रचनाएं हैं- वासिष्ठचरितम् तथा एकांतवासी योगी( अंग्रेजी काव्य (हरमिट) का अनुवाद)।
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संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 271
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