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का रचना - काल 1684 ई. है। इसका प्रकाशन कृष्णाजी गणपत प्रेस, मुंबई से, 1909 ई. में हो चुका है। केशव मिश्र काव्यशास्त्र के एक आचार्य। इन्होंने "अलंकार - शेखर" नामक ग्रंथ की रचना की है। समय 16 वीं शताब्दी का अंतिम चरण । ग्रंथ रचना, कांगडा नरेश माणिक्यचन्द्र के आग्रह पर की। "अलंकार - शेखर" में 8 रत्न या अध्याय है व कारिका, वृत्ति और उदाहरण इसके 3 विभाग हैं। अध्यायों का विभाजन 22 मरीचियों में हुआ है। स्वयं लेखक ने कारिका व वृत्ति की रचना की है। उदाहरण अन्य ग्रंथों से लिये हैं। ग्रंथ में वर्णित विषय हैं (1) काव्य - लक्षण, (2) रीति, (3) शब्द-शक्ति, (4) आठ प्रकार के पददोष, (5) अठारह प्रकार के शब्द-दोष, (6) आठ प्रकार के अर्थ-दोष, (7) पांच प्रकार के शब्द-गुण, (8) अलंकार व (9) रूपक। ग्रंथकार के अनुसार कारिकाओं की रचना, "भगवान् शौद्धोदनि" के अलंकार-ग्रंथ के आधार पर हुई है।
केशव मिश्र समय- ई. 13 वीं शती । न्यायदर्शन के लोकप्रिय लेखकों में केशव मिश्र का नाम अधिक प्रसिद्ध है। इनकी प्रसिद्ध रचना "तर्कभाषा" है। संस्कृत में तर्कभाषा के 3 लेखक है, और तीनों भिन्न-भिन्न दर्शन के अनुयायी हैं। केशव मिश्र के शिष्य बंगाल के गोवर्धन मिश्र ने प्रस्तुत "तर्कभाषा" पर "तर्कभाषाप्रकाश" नामक व्याख्या लिखी है। गोवर्धन ने अपनी व्याख्या में अपने गुरु का परिचय भी दिया है। केशव मिश्र के पिता का नाम बलभद्र और दो ज्येष्ठ भ्राताओं के नाम विश्वनाथ व पद्मनाभ थे। अपने बड़े भाई से तर्कशास्त्र का अध्ययन करके ही केशव मिश्र ने अपने ग्रंथ का प्रणयन किया था। ये मिथिला के निवासी थे। केशिवराज समय ई. 11 वीं शती सुधार्णव के कर्ता मल्लिकार्जुन के पुत्र । होयसालवंशी राजा नरसिंह के कटकोपाध्याय सुमनोबाण के दौहित्र और जनकवि के भांजे कर्नाटकवासी। ग्रंथ-चोलपालकचरित, सुभद्राहरण, प्रबोधचन्द्र, किरात और शब्दमणिदर्पण |
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कैकिणी, व्यंकटराव मंजुनाथ (डॉ.) - मुंम्बई के प्रसिद्ध डाक्टर व कवि । शैक्षणिक पात्रता बी.ए. एम.बी.बी.एस., एफ. आर. सी. एस. साहित्यभूषण डाक्टरनी ने अपने पूर्वज साधु (जो कारवार जिले के कैकिणी ग्रामवासी थे) शिवकैवल्य का चरित्र 6 उल्लासों में "शिवकैवल्यचरितम्" नामक काव्य में प्रथित किया है।
कैटभट्ट समय ई. 11 वीं शताब्दी एक कश्मीरी वैयाकरण जिन्होंने पतंजलि के महाभाष्य पर "प्रदीप" नामक समीक्षा ग्रंथ लिखा। इस "प्रदीप" पर 15 टीकाएं लिखी गई है।
इनके बारे में कहा जाता है कि इन्हें पाणिनीय व्याकरण कंठस्थ था । "प्रदीप" में अनेक स्थानों पर "स्फोटवाद" का
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विवेचन किया गया है। महाभाष्य की प्राचीन टीकाओं में भर्तृहरि के पश्चात् "प्रदीप" का ही क्रम आता है। "देवीशतक" के टीकाकार कैयट से, प्रदीपकार कैयट भिन्न हैं। पिता-जैयट उपाध्याय । गुरु-महेश्वर। शिष्य उद्योतकर। कोक्कोक- समय ई. 12 वीं शती । पारिभद्र के पात्र । तेजो के पुत्र रचना- रतिरहस्यम्। नयचन्द्र और कुम्भकर्ण द्वारा उल्लेख। कोगण्टि सीतारामाचार्य ई. 20 वीं शती । अध्यात्म-शास्त्र तथा तन्त्र में निष्णात । साहित्यसमिति, गुण्टुर के सदस्य । प्रतिज्ञा- कौल्स, आमुख, एकलव्य तथा पद्मावती चरण चारण चक्रवर्ती नामक चार एकांकियों के प्रणेता । कोचा नरसिंहाचार्य तिरुपति के श्रीनिवासाचार्य के पुत्र । रचनाएं पिकसन्देशम् तथा गरुडसन्देशम् नामक दूतकाव्य । कौच्चुण्णि भूपालक- अपर नाम ताम्पूरान् । जन्म 1858 ई. में, कोटिलिंगपुर (कोचीन) के राजवंश में मूल नाम रामवर्मा । चाचा गोदावर्मा से काव्यशास्त्र की शिक्षा पाई। संगीत तथा इन्द्रजाल में विशेष रुचि । कोचीन के राजा द्वारा "कविसार्वभौम " की उपाधि प्राप्त । गुरु- कृष्णशास्त्री ।
कृतियाँ- अनंगजीवन तथा विटराजविजय भाण, विद्धयुवराज चरित, श्रीरामवर्मकाव्य, विप्रसन्देश, बाणयुद्धचेपू और देवदेवेश्वर-शतक । गोदावर्मा का अधूरा रामचरित भी इन्होंने पूर्ण किया ।
कोरड रामचन्द्र- आन्ध्र-निवासी रचना (1) "स्वोदयकाव्यम्” आत्मचरित्रपरकग्रंथ (यह रचना अप्रकाशित है ) (2) घनवृत्तम् (प्रकाशित) ।
कोलब्रुक ई.स. 1765 से 1837 एक ब्रिटिश प्राच्यविद्या पंडित । पूरा नाम - हेनरी टामस् कोलबुक । कलकत्ता में मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहते इन्होंने वेद, संस्कृत-व्याकरण, जैन आचार, हिन्दू विधि, भारतीय दर्शन, ज्योतिष आदि का गहरा अध्ययन कर अनेक लेख लिखे। यूरोपीय जनता को प्रथम बार हिन्दुओं के पवित्र ग्रंथों और दर्शनों का परिचय कराया । इनके पास अनेक संस्कृत हस्तलिखितों का संग्रह था जो ईस्ट इंडिया कम्पनी को 1818 में दानस्वरूप दिया गया।
को. ला. व्यासराजशास्त्री - “विद्यासागर" की उपाधि से विभूषित समय ई. 20 वीं शती कृतियां महात्मविजय, विद्युन्माला, चामुण्डा, शार्दूलसम्पात, निपुणिका तथा अन्य 19 लघु नाटक ।
कौषीतकी ऋग्वेद के कौषीतकी ब्रह्मण के कर्ता इनके नाम पर आरण्यक उपनिषद, सांख्यायन श्रौत व गृह्यसूत्र आदि ग्रंथ पाये जाते हैं। इनके मतानुसार प्राण ही ब्रह्म है। मन उसका भाष्यकार, वाणी उसकी सेवक, आंख संरक्षण और कान - श्रवणेन्द्रिय है। यज्ञोपवीत धारण, आचमन व उगते सूर्य की उपासना - यह त्रिविध उपासना भी इन्होंने बतायी है।
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संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 303