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बेगडा महंमद का स्तुतिपूर्ण वर्णन है।
उद्दंड कवि समय- 16 वीं शताब्दी का प्रारंभ। पिता रंगनाथ | माता- रंगांबा । बधुल गोत्रीय ब्राह्मण कुल में जन्म। 'कोकिल-संदेश' नामक काव्य के प्रणेता। इसके अतिरिक्त 'मल्लिका - मारुत' नामक (10 अंकों के) एक प्रकरण के भी रचयिता कालीकट के राजा जमूरिन के सभा-कवि । उद्भट नाम से ये काश्मीरी ब्राह्मण प्रतीत होते हैं इनका समय ई. 8 वीं शती का अंतिम चरण व 9 वीं शती का प्रथम चरण माना जाता है। कल्हण की 'राजतरंगिणी' से ज्ञात होता है कि ये काश्मीर नरेश जयापीड के सभा-पंडित थे और उन्हें प्रतिदिन एक लाख दीनार वेतन के रूप में प्राप्त होते थे
विद्वान् दीनारलक्षेण प्रत्यहं कृतवेतनः । भट्टोऽभूद्भटस्तस्य भूमिभर्तुः सभापतिः ।।
(4-495)
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जयापीड का शासनकाल 779 ई. से 813 ई. तक माना जाता है। अभी तक उद्भट के 3 ग्रंथों का विवरण प्राप्त होता भामह - विवरण, कुमारसंभव (काव्य) व काव्यालंकार - सारसंग्रह । उनमें भामह - विवरण, भामहकृत 'काव्यालंकार' की टीका है, जो संप्रति अनुपलब्ध है। कहा जाता है कि यह ग्रंथ इटाली से प्रकाशित हो गया है पर भारत में अभी तक नहीं आ सका है। इस ग्रंथ का उल्लेख प्रतिहारेंदुराज ने अपनी 'लघुविवृति' में किया है। अभिनवगुप्त, रुय्यक तथा हेमचंद्र भी अपने ग्रंथों में इसका संकेत करते हैं। इनके दूसरे ग्रंथ कुमारसंभव का उल्लेख प्रतिहारेंदुराज की 'विवृति' में है। इनमें महाकवि कालिदास के 'कुमारसंभव' के आधार पर उक्त घटना का वर्णन है। 'कुमारसंभव' के कई श्लोक उद्भट ने अपने तीसरे ग्रंथ 'काव्यालंकार सारसंग्रह' मे उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किये हैं। प्रतिहारेंदुराज व राजानक तिलक, उद्भट के दो टीकाकार हैं, जिन्होंने क्रमशः 'लघुविवृति' तथा 'उद्भट विवेक' नामक टीकाओं का प्रणयन किया है। उद्भट भामह की भांति अलंकारवादी आचार्य हैं।
'अभिनव भारती' के छठे अध्याय में इनका उल्लेख है'निर्देशे चैतत्क्रमव्यत्यसनादित्यौद्धाः' अभिनवभारती में 'नैतदिति भट्टलोल्लट' उल्लेख के कारण, इन्हें लोल्लट का पूर्ववर्ती माना जाता है। अतः ये सातवीं शती के अन्तिम अथवा आठवीं शती के आरंभिक के भाग के माने जा सकते हैं।
उद्भट ने 'उद्घटालंकार' नामक एक और ग्रंथ की रचना की है और भरत मुनि के 'नाट्य-शास्त्र' पर टीका लिखी है।
इनके समय जयापीड की राजसभा में मनोरथ, शंखदत्त, चटक, संधिमान् तथा वामन मंत्री थे। सद्गुरु-सन्तान परिमल ग्रंथ (कामकोटिपीठ के 38 वें आचार्य के समय की रचना ) में भी यह दर्शित है। राजा जयापीड, कल्लट नाम धारण
कर, अन्यान्य राज्यों का भ्रमण करते हुए गौड़ देश में आया। वहां पौण्डरवर्धन गांव के कार्तिकेय मन्दिर में उसने भरत नाट्य देखा। वह इतना प्रभावित हुआ कि कमला नामक नर्तिका को अपने साथ ले गया तथा उसे अपनी रानी बनाया। संभवतः इसी राजा के आदेश से उद्भट ने अपनी साहित्य-शास्त्रीय कृति 'काव्यालंकार - सारसंग्रह' की रचना की है। "योतकर समय- ई. षष्ठ शताब्दी । शैव आचार्य । बौद्ध पंडित धर्मकीर्ति के समकालिक । 'वात्स्यायनभाष्य' पर 'न्यायवार्तिक' नामक टीका ग्रंथ के रचयिता । इन्होंने अपने 'न्यायवार्तिक' ग्रंथ का प्रणयन, दिनाग प्रभृति बौद्ध नैयायिकों के तर्कों का खंडन करने हेतु किया था। अपने इस ग्रंथ में बौद्ध मत का पंडित्यपूर्ण निरास कर ब्राह्मण-न्याय की निर्दष्टता प्रमाणित की है। सुबंधु कृत 'वासवदत्ता' में इनकी महत्ता इस प्रकार प्रतिपादित की गई है- 'न्यायसंगतिमिव उद्योतकरस्वरूपाम्' । स्वयं उद्योतकर ने अपने ग्रंथ का उद्देश्य निम्न श्लोक में प्रकट किया है
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"यदक्षपादः प्रवरो मुनीनां शमाय शास्त्रं जगतो जगाद । कुतार्विकाज्ञाननिवृत्तिहेतोः, करिष्यते तस्य मया प्रबंधः ।। "
ये भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण तथा पाशुपत संप्रदाय के अनुयायी थे- ('इति श्रीपरमर्षिभारद्वाज - पाशुपताचार्य श्रीमदुद्योतकरकृतौ न्यायवार्तिके पंचमोऽध्याव') आप पाशुपताचार्य के नाम से भी जाने जाते थे। आपने दिङ्नाग के आक्रमण से क्षीणप्रभ हुए न्याय-विद्या के प्रकाश को पुनरपि उद्योतित कराते हुए, अपने शुभनाम की सार्थकता सिद्ध की। इनका यह ग्रंथ अत्यंत प्रौढ व पांडित्यपूर्ण है । कतिपय विद्वान काश्मीर को इनका निवासस्थान मानते हैं, तो अन्य कुछ विद्वान मिथिला को। उपनिषद् ब्राह्मण (संन्यासी) कांचीवरम् निवासी। इन्होंने 100 उपनिषदों तथा भगवद्गीता पर भाष्य-रचना की है। - उपाध्याय पद्मसुन्दर - नागौर निवासी जैन तपागच्छ के विद्वान् । गुरु- पद्ममेरु और प्रगुरु आनन्दमेरु । अकबर द्वारा सम्मानित । स्वर्गवास वि.सं. 1639 ग्रंथ (1) रायमल्लाभ्युदय (चोबीस तीर्थंकरों का चरित्र) - सेठ चौधरी रायमल्ल की अभ्यर्थना और प्रेरणा से रचित (2) भविष्यरतचरित (3) पार्श्वनाथराय प्रमाणसुंदर, (4) सुंदरप्रकाशशब्दार्णव, (5) शृंगारदर्पण, (6) जम्बूचारित, और (7) हायनसुंदर
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उपाध्याय मेघविजय व्याकरण, न्याय, साहित्य, अध्यात्मविद्या, योग तथा ज्योतिर्ज्ञान के निष्णात पण्डित। समय ई. 17 वीं शती। गुरुपरम्परा- हीरविजय, कनकविजयशीलाविजय सिद्धिविजय कमलविजय कृपाविजय मेघविजय तपागच्छीय जैन विद्वान् विजयप्रभसूरि द्वारा 'उपाध्याय' की पदवी से विभूषित। राजस्थान और गुजरात प्रमुख कार्यक्षेत्र । प्रमुख ग्रंथ - 1. अर्हद्गीता (36 अध्याय 772 श्लोक ), 2. युक्तिप्रबोध (इसमें बनारसीदास के मत का खण्डन किया गया
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 283