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प्रकरण - 9 जैन-बौद्ध वाङ्मय
1 जैन वाङ्मय __ भारत के प्राचीन धर्ममतों में जैन (अर्थात् जिनद्वारा प्रस्थापित) धर्ममत, महत्त्वपूर्ण माना जाता है। बॅरिस्टर जैनी, रावजी नेमिचंद शाह जैसे आधुनिक जैन विद्वानों ने वेद तथा श्रीमतद्भागवत में उल्लेखित ऋषभ एवं जैन तीर्थंकर ऋषभदेव का एकत्व प्रतिपादन कर, जैन धर्ममत को वेद के समकालीन माना है। अन्य मतानुसार महावीर पूर्व (तेईसवें) तीर्थंकर पार्श्वदेव को जैन धर्ममत का प्रतिष्ठापक माना गया है। अंतिम (24 वें) तीर्थंकर भगवान महावीर का उदय निश्चित ही भगवान बुद्ध से पहले हुआ था। प्राचीन जैन धर्म को व्यवस्थित स्वरूप देने का श्रेय उन्हीं को दिया जाता है। वास्तव में वे जैन धर्म के संस्थापक नहीं थे। महावीर पूर्वकालीन जैन धर्म का स्वरूप निश्चित क्या था, यह अन्वेषण का विषय है। कुछ ऐतिहासिक प्रमाणों के
आधार पर इस धर्म का प्रचार प्राचीन काल में संपूर्ण भारत में और भारतबाह्य देशों में भी हुआ था, यह तथ्य सिद्ध हुआ है। भगवान महावीर के पश्चात् उनके शिष्य सुधर्मा ने महावीर का कार्य व्यवस्थित सम्हाला। विद्यमान जैन धर्म के प्रतिष्ठापकों या संरक्षकों में सुधर्मा का नाम उल्लेखनीय है।
प्राचीन काल में इस धर्ममत का विशेष प्रसार मगध (अर्थात् बिहार) प्रदेश में था। ई.पू. 310 में (चंद्रगुप्त मौर्य के काल में) मगध देश में घोर अकाल पड़ने के कारण, अनेक जैन धर्मी लोगों ने भद्रबाहु के नेतृत्व में देशत्याग किया। जो लोग मगध में ही रहे उनके नेता थे स्थूलभद्र, जिन्होंने स्व-साम्प्रदायिकों का एक सम्मेलन आयोजित कर, अपने लुप्तप्राय धर्मग्रंथों का सुव्यवस्थित संकलन तथा संस्करण करने का महान प्रयास किया। अकाल के समाप्त होने पर वापस लौटे हुए भद्रबाहु तथा उनके अनुयायी विद्वानों ने स्थूलभद्र के उस महान् शोधकार्य को मान्यता नहीं दी। परिणाम यह हुआ की धर्ममत में दो संप्रदाय निर्माण हुए- (1) भद्रबाहु का दिगंबर और (2) स्थूलभद्र का श्वेताम्बर। ये दोनों संप्रदाय आज भी भारत भर सर्वत्र विद्यमान हैं। आगे चल कर श्वेतांबर संप्रदाय में स्थानकवासी (या ढुंढिया) नामक उपपंथ स्थापित हुआ। इस उपपंथ ने दीक्षाप्राप्त यति जनों के अतिरिक्त अन्य सभी जैन स्त्री-पुरुषों को धर्मग्रन्थों का स्वाध्याय करने का स्वातंत्र्य प्रदान किया। इन तीन पंथों के अतिरिक्त, पीतांबरी, मंदिरपंथी, साधुपंथी, सारावोगी, रूपनामी समातनधर्मी इत्यादि विविध उपपंथ जैन समाज में विद्यमान हैं।
ई. दसवीं शती मे जैन समाज में हुए उद्योतन नामक महान् भट्टारक के शिष्यों द्वारा 84 "गच्छ” (अर्थात् गुरुपरंपराएं) जैन समाज में प्रचलित हुईं। गुच्छ के प्रमुख आचार्य को "सूरि" और शिष्य को "गणि" कहते है। तपागच्छ, चंद्रगच्छ, नागेन्द्रगच्छ, खरतरगच्छ, चैत्रगच्छ, वृद्धगच्छ, राजगच्छ, सरस्वतीगच्छ, धर्मघोषगच्छ, विमलगच्छ, हर्षपुरीय, इत्यादि गच्छनाम प्रसिद्ध हैं। सभी जैन संप्रदाय, जिन 24 तीर्थंकरों को पूज्य मानते हैं, उनकी नामावलि :- ऋषभ, अजित, संभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रम, सुपार्श्व, चंद्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतल, श्रेयान्, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व और वर्धमान (महावीर) इस क्रम से प्रसिद्ध है। इन नामों का निर्देश "देव" या "नाथ" शब्दसहित होता है। इन में "मल्लि" यह नाम स्त्रीवाचक या पुरूषवाचक है, इस विषय में मतभेद है। जैन परंपरा के अनुसार "तीर्थंकर" अनेक माने गये हैं, किन्तु उनके उपदेश में अनेकता नहीं मानी गई। तत्तत् काल में जो भी अंतिम तीर्थंकर हो गए उन्हीं का उपदेश
और शासन, जैन समाज में आचार तथा विचार के लिये मान्य रहा है। इस दृष्टि से भगवान् महावीर अंतिम तीर्थंकर होने से, उन्हीं का उपदेश आज अंतिम उपदेश है, और वही सर्वत्र प्रमाणभूत माना जाता है।
सर्वप्रथम भगवान महावीर ने जो उपदेश दिया उसका सकलन द्वादश अंगों में हुआ। उन का यह उपदेश भगवान पार्श्वनाथ के उपदेश के सामन ही था। उस उपदेश के आशय को शब्दबद्ध करने का कार्य गणधर के द्वारा हुआ। इन द्वादशांगों के नाम हैं:- 1) आचारंग, 2) सूत्रकृतांग, 3) स्थानांग, 4) समवायांग, 5) व्याख्याप्रज्ञप्ति, 6) ज्ञाताधर्मकथा, 7) उपासकदशा, 8) अंतकृतदशा, 9) अनुत्तरौपपातिकदशा, 10) प्रश्नव्याकरण, 11) विपाकसूत्र और 12) दृष्टिवाद। इस अंतिम अंग दृष्टिवाद के प्रामाण्य के विषय में श्वेतांबर-दिगंबरों में मतभेद है। इन अंगो के प्रथम संकलन का कार्य स्थूलभद्र ने पाटलिपुत्र (पटना) में किया। अतः इस संकलन को “पाटलिपुत्र-वाचना" कहते हैं। भगवान् महावीर के पश्चात् 609 वें वर्ष में आर्य स्कंदिल की अध्यक्षता में संकलन का द्वितीय कार्य मथुरा में हुआ। इसे "माथुरी-वाचना" कहते है। तीसरा संकलन कार्य ई. पांचवी शती
188 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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