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श्री पिशेल ने "सूत्रधार" जैसे शब्दों के आधार पर संस्कृत नाटक की उत्पत्ति का स्रोत, कठपुतली के नाच को माना है।
डॉ. कीथ, मेक्समूलर, हटेंल, ओल्डेनबर्ग जैसे विद्वान, ऋग्वेद के संवाद सूक्तों में संस्कृत नाटकों का मूल देखते हैं। उनके मतानुसार इन संवादात्मक सूक्तों की संख्या अनिश्चित होते हुए भी पर्याप्त है। याज्ञिक परंपरा में इन संवादों का कोई उपयोग ज्ञात नहीं है। ओल्डेनबर्ग का मत है कि इन सूक्तों के मंत्र किन्हीं गद्यमय आख्यानों के अंग है, जिनमें उत्कट भावों को पद्यों में ग्रथित किया गया था। इस मत का प्रतिपादन करने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण के शुनःशेप आख्यान और शतपथ ब्राह्मण के पुरुरवा-ऊर्वशी आख्यान के उदाहरण दिये जाते हैं। प्रो. कीथ और हिलेब्रांड जैसे विद्वानों ने संस्कृत नाटक की उत्पत्ति की कल्पना वैदिक यज्ञों की कुछ विधियों में मानी है। इसके उदाहरण में, सोमयाग में सोमक्रय और महाव्रत में श्वेतवर्ण वैश्य और कृष्ण वर्ण शूद्र का झगड़ा (जिसमें वैश्य विजयी होकर श्वेतवर्ण गोल चर्मखंड को प्राप्त करता है) निर्दिष्ट किया जाता है।
पातंजल महाभाष्य में उल्लिखित कंसवध और बलिबन्ध को धार्मिक नाटक मानकर डा. कीथ संस्कृत नाटकों की उत्पत्ति और विकास, धार्मिक कृत्यों और भावनाओं में निहित मानते हैं। उनके विचार में कंसवध में, वनस्पतियों की श्रीवृद्धि की कामना के निमित्त क्रियाकलापों का ही परिष्कृत रूपकात्मक वर्णन है।
नाटकों में विदूषक की सत्ता भी, नाटकों की धार्मिक क्रियाओं से उत्पत्ति की द्योतक मानी गई है। “विदूषक' पद का अर्थ है दूषण, गालियाँ देनेवाला व्यक्ति। संस्कृत नाटकों में, विदूषक का रानी की दासियों से कई बार गरमागरम उत्तर प्रत्युत्तर होता है जिसमें उसे मार भी खानी पड़ती है। इस घटना का मूल डा. कीथ, महाव्रत के ब्राह्मण-गणिका संवाद तथा सोमयाग के सोमक्रय में पीटे जानेवाले शूद्र से जोड़ते हैं। विदूषक ब्राह्मण होता है, अतः उसका मूल महाव्रत के ब्राह्मण-गणिका संवाद के गालीप्रदान में हो सकता है।
नाटक के प्रारंभ में, इन्द्रध्वज का नमस्कार प्रमुख कृत्य है। भरतनाट्यशास्त्र में उल्लखित, मृत्युलोक में प्रदर्शित सर्वप्रथम नाटक का प्रयोग भी "इन्द्रध्वजमह" (मह = उत्सव) के अवसर पर किया गया था। इन्द्रध्वजप्रणाम का यह प्रमुख कृत्य भी नाटक की धार्मिक उत्पत्ति का एक प्रबल प्रमाण माना जाता है। पं. हरप्रसाद शास्त्री, नाटक की उत्पत्ति इन्द्रध्वज प्रमाणाम की विधि में ही मानते हैं।
कृष्णजन्माष्टमी के अवसर पर, कृष्ण के जन्म और कंस के वध का अभिनय कृष्ण की रासलीला और कृष्ण यात्राएं, भारतीय नाटक पर कृष्णोपासना का प्रभाव सूचित करती हैं। नाटकों में शौरसेनी गद्य की प्रधानता भी श्रीकृष्ण की लीलाभूमि (शूरसेन प्रदेश) का प्रभाव सूचित करती है। श्री. बेलवलकर जैसे कुछ विद्वान् नाटक का उद्गम वैदिक कर्मकाण्ड के साथ किये जाने वाले विनोदों में मानते है।
प्रो. हिलेबांड और कोनो का मत है कि नाटक की उत्पत्ति धार्मिक क्रियाकलापों से मानना अयोग्य है। इन को नाटक के विकास में सहायक माना जा सकता है। नाटक का मूल लौकिक ही है। लोगों में अनुकरण की प्रवृत्ति स्वाभाविक होती है। उस अनुकरण की कला में निपुण कुशीलव, सूत, भंड जैसे कलाकारों ने रामायण, महाभारत आदि वीरकाव्यों की सहायता से नाटकों का विकास किया है। ये अनुकरण कुशल लोग गाने, बजाने, नाचने में तथा इन्द्रजाल, मूक अभिनय और तत्सदृश कलाओं में भी निपुण थे। प्रो. ल्यूडर्स के विचार में संस्कृत नाटक के विकास में "छाया नाटक" एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व रहा है। महाभाष्य में वर्णित "शोभनिक" (अथवा शोभिक) मूक अभिनेताओं या छायामूर्तियों की चेष्टाओं के व्याख्याता थे। प्रो. ल्यूडर्स यह भी जानते हैं कि वीरकाव्यों की कथाओं को छायाचित्रों द्वारा हृदयंगम कराया जाता था। प्राचीन नटों की कला से मिलकर छायाचित्रों का प्रदर्शन नाटक के रूप में परिणत हो गया।
प्रो. लेवी का विचार है कि भारतीय नाटक पहले प्राकृत भाषा में अस्तित्व में आए। संस्कृत चिरकाल तक धार्मिक भाषा मानी जाती रही। उसका साहित्य में प्रयोग बहुत बाद में हुआ। तब ही नाटकों में क्रमशः संस्कृत का प्रयोग आरंभ हुआ। उनके विचार में नाटकों में प्राकृत भाषाप्रयोग का यथार्थता से कोई संबंध नहीं क्यों कि भारतीयों में यथार्थकता के सृजन की प्रवृत्ति का अभाव रहा है। अपने इस मत की पुष्टि में उन्होंने नाट्यशास्त्र के कुछ पारिभाषिक शब्दों को उद्धृत किया है, जिनका रुप विचित्र सा है और जिनमें मूर्धन्य वर्गों की बहुलता, उनके प्राकृत मूल को सूचित करती है।
पाश्चात्य विद्वानों ने इस प्रकार, संस्कृत नाट्य के उदगम तथा विकास के विषय में जो विविध उपपत्तियाँ स्थापित करने का प्रयास किया है, प्रायः सभी के युक्तिवादों एवं प्रमाणों का खंडन हो चुका है। तथापि इस विषय में हुई बहुमुखी चर्चा निश्चित ही महत्त्वपूर्ण है।
2 नाट्यशास्त्रीय प्रमुख ग्रंथ पाणिनि की अष्टाध्यायी में उल्लिखित नटसूत्र अभी तक प्राप्त नहीं हुए। अतः भरत का “नाट्यशास्त्र" नामक आकर ग्रंथ ही इस विषय का आद्य और सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ माना गया है। 36 अध्यायों के इस ग्रंथ का स्वरूप एक सांस्कृतिक ज्ञानकोश
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 215
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