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शकारी; गोपालों के लिए आभीरी तथा अन्य गौण पात्रों के लिए आवंतिका, पैशाची, शाबरी इत्यादि प्राकृत भाषाओं का विधान किया है। दशरूपक में प्राकृत भाषाओं के संबंध में एक मार्मिक नियम बताया है कि -
__ "यद्देशं नीचपात्रं यत्, तद्देशं तस्य भाषितम्।।" कार्यतश्चोत्तमादीनां कार्यों भाषाव्यतिक्रमः ।।" (द.रू. 2-66) ।।
__ अर्थात् जो पात्र जिस देश का रहनेवाला हो, उसी देष की बोली के अनुसार उसकी पाठ्य भाषा नाटक में योजित की जाय। वैसे कभी उत्तम या नीच पात्रों की भाषा में किसी कारण से अदल बदल भी हो सकना है, याने उत्तम पात्र प्राकृत का और नीच पात्र संस्कृत का यथावसर प्रयोग करें। आमन्त्रणप्रवृत्ति :- आमन्त्रण प्रवृत्ति के नियमानुसार उत्तम पात्रों द्वारा विद्वान, देवर्षि, तथा तपस्वी पात्र, "भगवन्" शब्द से संबोधित किए जाने चाहिये। विप्र, अमात्य, गुरुजनों या बड़े भाई को वे “आर्य" शब्द से संबोधित करें। नटी और सूत्रधार आपस में एक दूसरे को "आर्य" और "आर्ये' इन शब्दों से संबोधित करें। सारथी अपने रथी को आयुष्मान् कहे तथा पूज्य लोग, शिष्य या छोटे भाई आदि को "आयुष्मान्", वत्स, या “तात" कहें। शिष्य, पुत्र छोटे भाई आदि पूज्यों को "तात" या "सुगृहीतनामा" कह सकते हैं। पारिपाश्वर्क सूत्रधार को "भाव" कहे, तथा सूत्रधार पारिपार्श्वक को "मार्ष" अथवा "मारिष" कहे। उत्तम सेवक राजा को देव या स्वामी कहें और अधम भृत्य उसे “भट्टा" (भर्तः) कहे। ज्येष्ठ, मध्यम या अधम पात्र स्त्रियों को ठीक उसी तरह संबोधित करें, जैसे उनके पति को करते हैं सखियां एक दूसरी को "हला" कहें। नोकरानी "हजे" कहे । वेश्या को अज्जुका, कुट्टिनी तथा पूज्य वृद्धा स्त्री को “अम्ब" कहें। विदूषक, रानी व सेविका दोनों को "भवति" शब्द से संबोधित करें।
नाट्यशास्त्रोक्त इन भाषा-प्रवृत्ति और आमन्त्रण-प्रवृत्ति के नियमों का अनुपालन सभी नाटककारों ने निरपवाद किया है। संस्कृत के आधुनिक नाटककार (जिनकी संख्या काफी बड़ी है) प्रायः भाषाप्रवृत्ति के नियमों का पालन नहीं करते। वे केवल संस्कृत भाषा का ही सभी पात्रों के भाषणों में उपयोग करते हैं। वास्तविक वर्तमान संस्कृत नाटकों में वर्तमानकालीन प्राकृत भाषाओं का प्रयोग करना नाट्यशास्त्र की दृष्टि से उचित होगा।
अर्थसहाय नाटक का नायक राजा हो तो उसका सहायक मंत्री अवश्य होना चाहिये। उसके अतिरिक्त ऋत्विज, पुरोहित, तपस्वी, ब्रह्मज्ञानी आदि "धर्मसहायक"; मित्र, राजकुमार, आटविक, सामन्त और सैनिक इत्यादि "दण्डसहायक" होते हैं। नायक की कार्यसिद्धि में सहायक होने वाले, वर्षवर (नपुसंक व्यक्ति), किरात, गूंगे, बौने इत्यादि पात्र अन्तःपुर में होते हैं और म्लेच्छ, आभीर, शकार जैसे पात्र अन्यत्र सहायक होते हैं।
7 नायिका संस्कृत नाटकों में नायक "उत्तम प्रकृति" का ही होता है और तद्नुसार नायिका भी "उत्तम प्रकृति" की ही होना आवश्यक माना गया है। इस नायिका के स्वीया, अन्या और साधारणी (अर्थात गणिका) संज्ञक तीन प्रकार होते हैं।
___ स्वीया नायिका शीलसम्पन्न, लज्जावती, पतिव्रता, अकुटिल और पति के व्यवहारों में सहायता देने में बडी निपुण होती हैं। इन सामान्य गुणों से युक्त स्वीया नायिका के वयोभेद के अनुसार मुग्धा, मध्या तथा प्रगल्भा ये तीन भेद होते है। जिस नाटक में धीरललित नायक प्रमुख होता है, उसमें इन तीन प्रकार की, या प्रगल्ला और मुग्धा इन दो प्रकार की, नायिकाओं के प्रेमसंबंध में शृंगाररस का विकास किया जाता है। उपर्युक्त तीन प्रकार की नायिकाओं में मुग्धा के भेद नहीं होते। परंतु मध्या और प्रगल्भा के ज्येष्ठा तथा कनिष्ठा इस प्रकार दो भेद होते हैं। सब मिला कर प्रायः नायिका के 12 भेद नाट्यशास्त्रकार मानते हैं।
नायिका का दूसरा भेद है "परकीया"। वह कन्यका (अविवाहित) और विवाहित इस तरह दो प्रकार की हो सकती है परंतु शृंगारप्रधान रूपकों में आलंबन विभाग के रूप में अन्योढा अर्थात विवाहित परस्त्री को कहीं भी स्थान नहीं देना चाहिये- "नान्योढाङ्गिरसे क्वचित्" (द.रू. 2-20)। इस प्रकार को ऐमसंबंध भारतीय संस्कृति में सर्वथा अनैतिक माना गया है। नैतिकता का उल्लंघन जहां होता है, वहां सहृदय सामाजिकों को आनंद तो होता ही नहीं, प्रत्युत उद्वेग होता है। नाटक में नीतिबाह्य शृगांर रंगमंच पर दिखाया जा सकता है, परंतु वह शिष्ट और सहृदय सामाजिकों के अन्तःकरण में रति स्थायीभाव का उद्रेक नहीं कर सकता।
साधारणी स्त्री गणिका होती है, जो कलाचतुर, प्रगल्भा तथा धूर्त होती है। वेश्या कभी मुग्ध नहीं हो सकती। यह वेश्या प्रहसन में अनुरागिणी नहीं होती। अन्य रूपकों में उसे नायक के प्रति अनुरक्त रूप में ही चित्रित किया जाता है। जिन रूपकों में, नायक दिव्य प्रकृति अथवा धीरोदात्त नृपति होता है, वहां गणिका का समावेश नहीं किया जाता।।
मुग्धा, मध्या, प्रगल्भा आदि अवस्थाओं के अतिरिक्त नायक के संबंध में नायिका की मानसिक अवस्थाएं आठ प्रकार की बताई गई हैं। वे हैं :- (1) स्वाधीनपतिका, (2) वासकसज्जा, (3) विरहोत्कंठिता, (4) खंडिता, (5) कलहान्तरिता,
222 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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