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विशेष बल दिया है कि, समस्त गोचर पदार्थ अयथार्थ, प्रतिभासात्मक या विकल्पात्मक हैं। चित् मात्र ही सत्य है, जो निराभास एवं निर्विकल्प है।
सुवर्णप्रभासूत्र एक पंद्रह परिवर्तों का महायान ग्रंथ है। इसके धार्मिक एवं दार्शनिक सिद्धान्तपरक दो भाग हैं। जापान में इस ग्रंथ की महती ख्याती है। जापान के अधिपति शोकोतु ने इसकी प्रतिष्ठापना के निमित्त भव्य बौद्ध मंदिर निर्माण करवाया। राष्ट्रपालपरिपृच्छा (या राष्ट्रपालसूत्र) में आचारभ्रष्ट बौद्ध भिक्षुओं के शिथिल एवं दांभिक चरित्र का सविस्तर प्रकाशन हुआ है। रत्नकूट के अन्तर्गत उग्रपरिपृच्छा, उदयनवत्सराज-परिपृच्छा, उपालिपरिपृच्छा, चन्द्रोत्तरादारिका-परिपृच्छा, विमलश्रद्धा-दारिका-परिपृच्छा, सुमतिदारिका-परिपृच्छा, अक्षयमतिपरिपृच्छा आदि अनेक परिपृच्छासूत्र उल्लेखनिय हैं।
7 धारणीसूत्र 'धारणी' शब्द का उल्लेख प्रथमतः ललितविस्तर तथा सद्धर्मपुण्डरीक में हुआ है। यह शब्द रक्षायंत्र (ताबीज अथवा मंत्रसूत्र) के अर्थ में यत्र तत्र व्यवहृत हुआ है। नेपाल में 'पंचरक्षा' नामक पंच धारिणियों का संग्रह अधिक प्रचलित है। वहां न्यायालयों में पंचरक्षा की सौगन्ध खाने की प्रथा है। इन पंच धारिणियों में सम्मोहन एवं वशीकरण की अतुलनीय शक्ति मानी जाती हैं। इनके नाम है : 1) महाप्रतिसरा 2) महासहस्रप्रमर्दिनी, 3) महामयूरी, 4) महाशितवती और 5) महामंत्रानुसारिणी। धारणीसूत्रों के अन्तर्गत गणपतिधारणी, नीलकंठधारणी, महाप्रत्यंगिराधारणी जैसे ग्रंथ भारत तथा भारतबाह्य देशों में प्रसिद्ध हैं। भगवान् बुद्ध ने जिस पंचशील-प्रधान और आर्यसत्यवादी अष्टांगिक मार्गी धर्ममत का प्रतिपादन किया, उसमें आगे चलकर विविध संप्रदाय निर्माण हुए। इन संप्रदायों को 'निकाय' कहते हैं। सम्राट अशोक के समय तक भारत के विभिन्न भागों में 18 निकाय प्रवर्तित हुए थे। इन निकायों के ग्रंथों में विचार और आचार में भेद दिखाई देते हैं। प्रमुख निकायों की नामावलि इस प्रकार है :
1) स्थिविरवादी (नामान्तर थेरवादी या वैभाषिक) - बुद्धनिर्वाण के 300 वर्षों बाद कात्यायनीपुत्र ने ज्ञानप्रस्थानशास्त्र नामक ग्रंथ में इस अतिप्राचीन निकाय के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। वसुबंधु कृत अभिधर्मकोश में भी इस मत की विचार प्रणाली का प्रतिपादन मिलता है। 2) महीशासक 3) सर्वास्तिवादी : महाराजा कनिष्क इसके आश्रयदाता थे। पंजाब तथा उत्तर में इसका प्रचार हुआ। इस निकाय ने धर्मग्रंथों की निर्मिति के लिए पाली भाषा को त्याग कर संस्कृत को अपनाया। 4) हैमावत। 5) वात्सीपुत्रीय : इस निकाय का प्रचार मध्यभारत के अवंती प्रदेश में हुआ था। महाराजा हर्ष की भगिनी राज्यश्री ने इस संप्रदाय को प्रश्रय दिया था। 6) धर्मगुप्तिक : चीन तथा मध्य एशिया में इसका विशेष प्रचार हुआ 7) काश्यपीय 8) सौत्रांतिक : (नामान्तर-संक्रांतिवादी) १) महासांघिक : इस संप्रदाय का प्रमाण ग्रंथ है महावस्तु । पाटलीपुत्र (पटना) और वैशाली में इस संप्रदाय के केन्द्र थे। 10) बहुश्रुतीय : महासांघिक पंथ की उपशाखा । 11) चैत्यक : महासांघिक पंथ की इस उपशाखा के संस्थापक थे महादेव । यह पंथ बुद्ध और बोधिसत्व को देवस्वरूप मानता है। 12) माध्यमिक : (नामान्तर शून्यवादी) - इस संप्रदाय के मतप्रतिपादन के हेतु नागार्जुन ने अनेक ग्रंथ लिखे। 13) योगाचार : (विज्ञानवादी) - इस संप्रदाय के प्रवर्तक थे मैत्रेय। इसका प्रमाण ग्रंथ है लंकावतारसूत्र । बोधिप्राप्ति के लिए योगसाधना का विशेष महत्त्व योगाचार में माना गया है। इसी संप्रदाय में मंत्रयान, वज्रयान और सहजयान इत्यादि तांत्रिक उपसंप्रदाय निर्माण हुए। मैत्रेय कृत मध्यान्तविभाग, अभिसमयालंकार, सूत्रालंकार, महायान उत्तरतंत्र, एवं धर्मधर्मताविभंग इस संप्रदाय के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं। दिङ्नाग, धर्मकीर्ति और धर्मपाल इस पंथ के प्रमुख पंडित थे।
इन संप्रदायों के अतिरिक्त नेपाल में चार बौद्ध संप्रदाय प्रचलित हैं : 1) स्वाभाविक 2) ऐश्वरिक 3) कार्मिक और 4) यात्रिक। ईसा की प्रथम शती से बौद्ध समाज में शैव मत के प्रभाव के कारण तांत्रिक साधना का प्रचार होने लगा। सुखावतीव्यूह, अमितायुषसूत्र, मंजुश्रीकल्प तथागतगुह्यकतंत्र आदि ग्रंथों में बौद्धों की तांत्रिक साधना का परिचय मिलता है। बौद्धों के विज्ञानवाद के अनुसार विज्ञान (अर्थात् चित् मन, बुद्धि) के कारण, सांसारिक पदार्थों की असत्यता की प्रतीति होती है; अतः उस 'विज्ञान' को सत्य मानना चाहिए इस मत के प्रतिष्ठापक थे मैत्रेय (या मैत्रेयनाथ) जिन्होंने अनेक ग्रंथों का निर्माण
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 203
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