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प्रकरण - 10 "काव्य शास्त्र" 1 "काव्य दर्शन"
संस्कृत भाषा के आद्य ग्रंथ ऋग्वेद में पर्याप्त मात्रा में काव्यात्मकता प्रतीत होती है। अनेक सूक्तों में रमणीय उपमा दृष्टान्त भी मिलते हैं। कुछ सूक्तों में वीररस तथा कहीं कहीं नाट्य गुण भी मिलते हैं। वेदों के षडंगों में से व्याकरण और निरुक्त में शब्दों एवं उनके अर्थों का विचार मार्मिकता से हुआ है। निरुक्तकार ने ऋग्वेद की उपमाओं का विश्लेषणात्मक विचार किया है। पाणिनि की अष्टाध्यायी में शिलालि और कृशाश्व के नटसूत्रों का निर्देश हुआ है। (4-3-110/111) इसका अर्थ पाणिनि के पूर्वकालीन शास्त्रीय वाङ्मय में नाट्यशास्त्र की रचना का श्रीगणेश हो चुका था किन्तु अलंकार शास्त्र या साहित्य शास्त्र का निर्देश अष्टाध्यायी में नहीं मिलता। व्याकरण भाष्यकार पतंजलि ने "आख्यायिका" नामक साहित्यप्रकार का उल्लेख किया है और वासवदत्ता, सुमनोत्तरा तथा भैमरथी नामक तीन आख्यायिकाओं का निर्देश भी किया है। रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत जैसे काव्यात्मक इतिहास पुराणग्रंथों का प्रचार समाज में अतिप्राचीन काल में हुआ था, किन्तु इन सारे काव्यात्मक ग्रन्थों की रमणीयता की दृष्टि से आलोचना साहित्यिक दृष्टि से करने वाला प्राचीन ग्रंथ भरत कृत नाट्यशास्त्र के अतिरिक्त दूसरा नहीं मिलता। नाट्यशास्त्र के विवेचन में कुछ प्राचीन ग्रंथों के अस्तित्व के प्रमाण मिलते हैं, किन्तु वे ग्रंथ अप्राप्य हैं।
आधुनिक विद्वानों ने नाट्यशास्त्र की रचना ई. दूसरी या तीसरी शती मानी है। अर्थात् इसके पूर्व कुछ सदियों से संस्कृत के काव्यशास्त्र की निर्मिति हो चुकी थी। नाट्यशास्त्र के 6, 7, 17, 20 और 32 क्रमांक के अध्यायों में काव्यशास्त्रीय विषयों का विवेचन मिलता है, जो नाट्यशास्त्र का अंगभूत हैं। नाट्यशास्त्र में रसों का विवेचन सविस्तर हुआ है। विभाव, अनुभाव, व्याभिचारि भाव, स्थायी भाव, इत्यादि रसशास्त्रीय पारिभाषिक संज्ञाओं का प्रथम उल्लेख नाट्यशास्त्र में ही मिलता है। नाट्यशास्त्रान्तर्गत रसविवेचन ही भारतीय रस सिद्धान्त का मूल स्रोत है।
काव्यप्रयोजन मम्मटाचार्य के काव्यप्रकाश में
"काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये। सद्यः परिनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ।।" - इस सुप्रसिद्ध कारिका में काव्यनिर्मिति की प्रेरणा देनेवाले 6 प्रयोजन या हेतु बताए हैं : 1) कीर्तिलाभ, 2) धनलाभ, 3) व्यवहारज्ञान, 4) अशुभ निवारण, 5) कान्ता के समान उपदेश और 6) तत्काल परम आनंद। काव्यनिर्मिति के यह छः प्रयोजन सर्वमान्य हैं। इनमें अंतिम प्रयोजन (सद्यःपरनिर्वृति) काव्य के समान, संगीतादि अन्य सभी ललित कलाओं का परम श्रेष्ठ प्रयोजन माना गया है। इन प्रयोजनों के साथ ही नैसर्मिक प्रतिभा, बहुश्रुतता और अन्यान्य शास्त्रविद्या, कला, आचारपद्धति आदि का ज्ञान भी सभी साहित्यशास्त्रकारों ने काव्यनिर्मिति के लिए आवश्यक माना है। विशेषतः जन्मसिद्ध प्रतिभा (जिसका लाभ पूर्वजन्य के संस्कार तथा देवता या सिद्ध पुरुष की कृपा से मनुष्य को होता है।) उत्तम काव्य की निर्मिति के लिए अत्यंत आवश्यक होती है। जन्मसिद्ध प्रतिभा शक्ति के अभाव में केवल शास्त्राभ्यास आदि परिश्रमों से निर्मित काव्य की गणना मध्यम या अधम काव्य की श्रेणी में की जाती है।
साहित्य शास्त्र में शब्द और उसकी अभिधा, लक्षणा और व्यंजना नामक तीन शक्तियाँ तथा उनके कारण ज्ञात होने वाले वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ की गंभीरता से चर्चा हुई है। शब्द की अभिधा शक्ति के कारण, उसके मुख्य अर्थ (वाच्यार्थ) का बोध होता है। वाच्यार्थ के तीन प्रकार होते हैं : 1) रूढ अर्थ : जो लौकिक संकेत के कारण शब्द में रहता है। 2) यौगिक अर्थ : शब्द के प्रकृति प्रत्यय आदि अवयवों का पृथक बोध होने से व्युत्पत्तिद्वारा इस अर्थ का बोध होता है जैसे दिनकर, सुधांशु, आदि यौगिक शब्दों से सूर्य, चंद्र आदि अर्थों का बोध होता है। 3) योगरूढ अर्थ : वारिज, जलज आदि शब्दों का यौगिक अर्थ है पानी में उत्पन्न होनेवाला शंख, शुक्ति, मत्स्य, शैवल आदि
मध्य आवश्यक होती है। जन्मसिदा या सिद्ध पुरुष की कृपा से आवश्यक माना है। विशेषतः अवधा, कला, आचारपद्धति
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 207
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