________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्रारंभिक बौद्ध संस्कृत वाङ्मय में महत्त्वपूर्ण माना जाता है। अश्वघोषकृत बुद्धचरित, सौन्दरनंद महाकाव्य और सारीपुत्त प्रकरण नामक नाट्यग्रंथ का बौद्ध धर्म के प्रचार कार्य में विशेष योगदान है। सौन्दरनंद में बुद्ध का भाई नंद बौद्धधर्मी होने की कथा वर्णित है और सारीपुत्त प्रकरण में सारीपुत्त ओर मोद्गलायन के बौद्धधर्म स्वीकार की घटना चित्रित है बुद्धचरित और सौदरनंद महाकाव्य के कारण प्राचीन संस्कृत महाकवियों में अश्वघोष को अग्रपूजा का मान दिया जाता है। परंतु इन तीन काव्य ग्रंथों के अतिरिक्त 1) महायान श्रद्धोत्पादशास्त्र, 2) सूत्रालंकार और 3 ) वज्रसूची (नामान्तर वज्रच्छेदिका या कसूचिकोपनिषद) जैसे दार्शनिक मैथ, गण्डीस्तोत्रगाथा नामक गीतिकाव्य, सारिपुत्रप्रकरण नामक नाट्यग्रंथ और राष्ट्रपाल, उर्वशीवियोग तथा रूपकावेश (दो भाग) इन ग्रंथों का कर्ता, अश्वघोष को ही माना गया है। महायान श्रद्धोत्पादशास्त्र मूल संस्कृत में संप्रति अनुपलब्ध है किन्तु परमार्थकृत चीनी रूपान्तर के रूप में सुरक्षित है। इस रूपान्तर पर आधृत, इसके दो अंग्रेजी अनुवाद हो चुके हैं। सूत्रालंकार या सूत्रालंकारशास्त्र गद्यपद्यात्मक कथाकाव्य है। यह भी कुमारजीवकृत चीनी अनुवाद (ई. 5 वीं शती) के रूप में सुरक्षित है। इसमें रामायण एवं महाभारत के उल्लेख यत्र तत्र मिलते हैं।
1
वज्रसूची (या वज्रसूचिकोपनिषद्) :- इस ग्रंथ में वैदिक धर्म की वर्णव्यवस्था एवं जातिभेद का प्रखर खंडन किया है कुछ विद्वान धर्मकीर्ति को इसके रचियता मानते हैं किन्तु लोकमान्य तिलक, राहुल सांकृत्यायन जैसे विद्वान् अश्वघोष को ही इसके रचितया मानते हैं। गण्डीस्तोमगाथा में सम्धरा छंदोबद्ध 29 श्लोकों में बुद्ध एवं संघ की स्तुति की है। (गण्डी याने एक प्रकार का सुडौल काष्ठखंड, जिसके द्वारा पीट कर शब्द उत्पन्न किया जाता है) ।
ई. प्रथम शती में काश्मीर की राजधानी में बौद्धों की संगीति का चतुर्थ अधिवेशन हुआ। इसके अध्यक्ष थे वस्तुमित्र और उपाध्यक्ष थे महाकवि अश्वघोष । संगीति द्वारा त्रिपिटकों पर महाविभाषा नामक व्याख्या लिखी गई और बौद्धदर्शन के प्रतिपादनार्थ संस्कृत भाषा का स्वीकार हुआ। ई. 11 वीं शती में दीपंकर श्रीज्ञान नामक बौद्ध आचार्य तिब्बत में निमंत्रित हुए । उन्होंने तिब्बती भाषा में सैकड़ों संस्कृत ग्रंथों के अनुवाद करवाये। "कंजूर" नामक स्थान में बुद्धवचनात्मक ग्रंथों का और "तंजूर" में दर्शन, काव्य, वैद्यक, ज्योतिष, तंत्र इत्यादि विषयों के ग्रंथों का संग्रह, बुस्तोन नामक तिब्बती विद्वान ने किया है। इन तिब्बती अनुवादों के कारण संस्कृत के अनेक नष्ट ग्रंथों का पता चलाता है।
महायानी ग्रंथों में अष्टसाहिस्रिका प्रज्ञापारमिता, सद्धर्मपुण्डरीक, ललितविस्तर लंकावतारसूत्र, सुवर्णप्रभास, गंडव्यूह, तथागतगुह्यक, समाधिराज और दशभूमीश्वर इन नौ ग्रंथों का महत्व विशेष माना गया है। नेपाली बौद्धों में इनको "नवधर्म" कहते हैं।
सद्धर्मपुण्डरीक की रचना ई. प्रथम शताब्दी में मानी जाती है। इस ग्रंथ में 27 अध्याय हैं और उनमें भगवान् तथागत एवं बोधिसत्व अवलोकितेश्वर की महिमा का वर्णन है।
प्रज्ञापारमिता ग्रंथ में शून्यता एवं प्रज्ञा इन महाबानों के मुख्य सिद्धान्तों का विवेचन मिलता है। नेपाली परंपरानुसार इस ग्रंथ की श्लोक संख्या सवालाख थी । विद्यमान ग्रंथ में आठ हजार श्लोक होने के कारण, उसे " अष्टसाहस्रिका प्रज्ञापारमिता" नाम दिया गया है।
लंकावतारसूत्र में भगवान् बुद्ध ने लंकाधीश रावण को जो उपदेश दिया उसमें "विज्ञान" ही एकमात्र सत्य है विज्ञान के अतिरिक्त वस्तुओं की कोई सत्ता नहीं, यह सिद्धान्त प्रतिपादन किया है। बौद्धों के सूत्रग्रंथों में समाधिराज सूत्र में योगाचार का और सुवर्णप्रभासूत्र में भगवान् बुद्ध के धर्मकार्य का प्रतिपादन किया है वैभाषिक संप्रदाय के ग्रंथों में अभिधर्मज्ञान, प्रस्थानशास्त्र, अभिधर्मकोश, वसुबंधुकृत समयप्रदीपिका उल्लेखनीय हैं।
योगाचार संप्रदाय में मध्यान्तविभाग (मैत्रेय कृत) तथा आर्य असंगकृत महायानसूत्रालंकार, महायानसंपरिग्रह दिङ्नागकृत प्रमाणसमुच्चय, न्यायप्रवेश, धर्मकीर्तिकृत प्रमाणवार्तिक और न्यायविंदु नागार्जुनकृत माध्यमिक शास्त्र, शांतरक्षितकृत तत्त्वसंग्रह महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रंथ हैं। इनके अतिरिक्त दशभूमिविभाषाशास्त्र नामक ग्रंथ महायान दर्शन का विश्वकोष माना जाता है। स्तोत्र एवं सूत्र
प्रारंभिक बौद्धकाव्य प्रधानतया ज्ञाननिष्ठ किन्तु भावहीन था । यथावसार महायान संप्रदाय ने भगवान् बुद्ध को आराध्य देवता के रूप में स्वीकार किया। "बुद्ध सरणं गच्छामि " इस शरणागति वचन का अनुपालन बुद्ध की अर्चना से होने लगा। सामान्यतः ई. पू. द्वितीय शती में (जब कृष्णोपासक संप्रदाय का विकास हो रहा था) बुद्धभक्ति तथा बुद्धोपासना का भी विकास होने लगा। कालान्तर में बौद्ध धर्म, शैव तथा तांत्रिक संप्रदायों से अधिक प्रभावित हुआ। एवं भागवत शैव और तांत्रिक संप्रदायों तथा भगवद्गीतोक्त भक्तियोग के प्रभाव के कारण महायान बौद्ध संप्रदाय में भक्तियोग या भक्तिमार्ग का प्रसार होता गया। इस भक्ति के केंद्रबिंदु भगवान् बुद्ध एक ऐतिहासिक विभूति थे बौद्धधर्म मूलतः ज्ञानवादी तथा कर्मप्रधान होते हुए भी, उतरकालीन बुद्धानुयायियों ने "बुद्धं शरणं गच्छामि' इस वचन के अनुसार उस महनीय ऐतिहासिक विभूति की अनन्य भाव से शरणागति स्वीकार की, जिसके कारण बौद्धवाङ्मय में भक्तिभावपूर्ण स्तोत्र काव्य का विकास हुआ। बौद्ध उपासकों के भक्तिपूर्ण स्तोत्रकाव्यों 200 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
For Private and Personal Use Only