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विष्णुस्वामी, निंबार्क, मध्वाचार्य और रामानुजाचार्य के द्वारा संस्थापित सम्प्रदायों के अनुक्रम, रुद्रसंप्रदाय, सनकादि संप्रदाय, ब्रह्मसंप्रदाय और श्रीसम्प्रदाय कहते हैं। महाराष्ट्र में संत ज्ञानेश्वर, एकनाथ, तुकाराम और रामदास के द्वारा चार प्रकार के वैष्णव संप्रदाय प्रचलित हुए। श्रीज्ञानेश्वर का प्रकाश संप्रदाय, एकनाथ का आनंद सम्प्रदाय, तुकाराम का चैतन्य संप्रदाय और रामदास का स्वरूप संप्रदाय कहा जाता है। इन चार वैष्णव संप्रदायों को "वारकरी" चतुष्टय कहते हैं। 11 वीं शती में चक्रधर स्वामी द्वारा "महानुभाव" नामक वैष्णव संप्रदाय महाराष्ट्र के विदर्भ प्रदेश में प्रवृत्त हुआ। इस संप्रदाय मे हंस, दत्तात्रेय, श्रीकृष्ण, प्रशान्त और पंथ संस्थापक श्रीचक्रधर की उपासना 'पंचकृष्ण' नाम से होती है। इस द्वैतवादी संप्रदाय का प्रमाणभूत वाङ्मय 12 वीं शताब्दी की मराठी भाषा में उपलब्ध है। 15 वीं शती में नागेन्द्रमुनि जैसे कार्यकर्ताओं ने महानुभावी वैष्णव मत का प्रचार पंजाब, काश्मीर, अफगानिस्तान जैसे दूरवर्ती प्रदेशों में किया। वहां भी सांप्रदाय के लोग मराठी को ही अपनी धर्मभाषा मानते हैं। वारकरी संप्रदाय का प्रारंभ 12 वीं शताब्दी में संत ज्ञानेश्वर से माना जाता है। ज्ञानेश्वर के ज्येष्ठ भ्राता निवृत्तिनाथ ही उनके गुरुदेव थे। निवृत्तिनाथ को नाथ संप्रदाय के सिद्ध योगी गहनीनाथ द्वारा अनुग्रह प्राप्त हुआ था। निवृत्तिनाथ की ही प्रेरणा से ज्ञानेश्वर ने अपनी 16 वर्ष की आयु में श्रीमद्भागवद्गीता पर भाष्य निर्माण किया जो "ज्ञानेश्वरी" नामक मराठी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ माना गया है। वारकरी संप्रदाय में ज्ञानेश्वरी, एकनाथी भागवत (श्रीमद्भागवत के 11 वें स्कन्ध की पद्यात्मक सविस्तर टीका) और संत तुकाराम का "गाथा' नामक भक्तिकाव्यसंग्रह, परम प्रमाण माने जाते हैं। समर्थ रामदास का सम्प्रदाय रामोपासक है। उनके दासबोध ग्रंथ में ज्ञान, वैराग्य, उपासना और सामर्थ्य (या प्रवृत्ति मार्ग) का प्रतिपादन किया है। समर्थ रामदास ने अपने कार्यकाल में 11 हनुमानजी के मंदिर तथा 11 सौ मठों की स्थापना करते हुए, समाज में ऐसी सतर्क संघशक्ति का निर्माण करने का प्रयास किया जो छत्रपति शिवाजी महाराज के स्वराज्य संस्थापना के महान क्रांतिकार्य में सहायक हुआ। समर्थ रामदास से शिवाजी महाराज ने अनुग्रह प्राप्त किया था। संत नामदेव, ज्ञानेश्वर के समकालीन थे। ज्ञानेश्वर ने 22 वर्ष की आयु में समाधि लेने के बाद, नामदेव महाराज ने वारकरी पंथ की विचार प्रणाली का प्रचार कीर्तनों द्वारा सर्वत्र किया। इस प्रकार का वैष्णवी भक्ति मार्ग का प्रचार करने वाले महाराष्ट्र के वारकरी संतो में जनाबाई, बहिणाबाई, नरहरि सोनार, सावता माली, गोरा कुंभार (कुम्हार), चोखा महार, रोहीदास चांभार (चम्हार), भानुदास, एकनाथ, तुकाराम, निलोबाराय, हैबतराव इत्यादि अनेक सत्पुरुषों के नाम महाराष्ट्र में प्रसिद्ध हैं। आधुनिक काल (20 वीं शती) में विदर्भ के महान् दार्शनिक संत प्रज्ञाचक्षु श्रीगुलाबराव महाराज ने इसी वारकरी संप्रदाय पर आधारित "मधुराद्वैत" संप्रदाय की स्थापना की। श्री गुलाबराव महाराज का आध्यात्मिक साहित्य संस्कृत मराठी और हिंदी भाषा में है। उनके ग्रंथों की कुल संख्या 125 से अधिक है। श्री तुकडोजी महाराज (जो "राष्ट्रसंत" उपाधि से अपने वैशिष्ट्यपूर्ण कार्य के कारण सर्वत्र प्रसिद्ध हुए) ने अपने गुरुदेव सेवा में मंडल द्वारा इसी संतपरंपरा का संदेश अपने ओजस्वी एवं प्रासादिक हिंदी-मराठी भजनों द्वारा सर्वत्र देते हुए ग्रामोद्धार एवं स्वावलंबन का विचार महाराष्ट्र की सामान्य जनता में प्रचारित किया। उनका ग्रामगीता नामक 41 अध्यायों का पद्य ग्रंथ महाराष्ट्र में अल्पावधि में अत्यंत लोकप्रिय हुआ है। देशकालोचित समाज सुधारक विचारों के कारण यह ग्रामगीता संत साहित्य में अपूर्व है। इस, ग्रामगीता के हिंदी और श्री. भा. वर्णेकर कृत संस्कृत अनुवाद प्रकाशित हुए हैं।
वैष्णव संप्रदायों मे 14 वीं शताब्दी के संत रामानंद का योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। रामानंद ने प्रारंभ में रामानुजीय विशिष्टाद्वैत संप्रदाय की दीक्षा राघवानंद से ग्रहण की थी। बाद में उन्होंने अपना स्वतंत्र संप्रदाय स्थापन किया। इस अभिनव संप्रदाय में कबीरदास, सेना नाई, धन्ना जाट, रैदास चम्हार, जैसे अन्यान्य जातिपाति के 12 प्रमुख शिष्य रामानंद के अनुयायी थे। वैष्णव संप्रदायों में जातीय श्रेष्ठ-कनिष्ठता का विकृत भाव पनपा था। श्रीरामानंद ने भगवद्भक्ति करने वाले सभी मानव समान है, वे सहभोजन भी कर सकते है, इत्यादि समानता का विचार दृढमूल किया। भगवद्भक्ति एवं सद्धर्म के प्रचार के लिए लौकिक जनवाणी को महत्त्व देने का कार्य भी रामानंदजी ने शुरू किया। राधाकृष्ण की उपासना के समान, सीताराम की युगुलोपासना भी रामानंद ने प्रसारित की। रामानंद के प्रभाव से उत्तर भारत में संत सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई, इत्यादि विभूतियों के द्वारा कृष्णभक्ति तथा रामभक्ति का सर्वत्र प्रचार हुआ जिसका प्रभाव आज भी विद्यमान है।
श्रीमद्भागवत के समान वाल्मीकीरामायण का भी योगदान भक्तिमार्गी विचारधारा के सार्वत्रिक प्रचार में सर्वमान्य है। उत्तर भारत में संत तुलसीदासजी के रामचरित मानस के प्रभाव से अन्य पादेशिक भाषाओं भी रामचरित्र विषयक हृद्य ग्रंथ श्रेष्ठ कवियों द्वारा लिखे गये जिनमें तामिल भाषीय कंबरामायण, तेलगुभाषीय रंगनाथ रामायण और भास्कर रामायण, कन्नड भाषीय पम्परामायण, बंगलाभाषीय कृत्तिवासा कृत रामायण, मलयालम् भाषीय एज्युतच्चनकृत अध्यात्मरामायण असमिया में माधवकन्दली कृत रामायण, उडिया भाषीय सरलादास कृत विलंकारामायण और बलरामदासकृत रामायण, मराठी में एकनाथ कृत भावार्थ रामायण, जैसे श्रेष्ठ ग्रंथों के कारण रामोपासनापरक वैष्णव संप्रदाय का प्रचुर मात्रा में प्रचार हुआ। इन रामायणों के रचयिता वैष्णव संतों में पूज्य माने जाते हैं।
186 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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