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चैतन्य संप्रदाय के दार्शनिक मतानुसार ईश्वर स्वतंत्र, विभु, चैतन्यधन, सर्वकर्ता, सर्वज्ञ, मुक्तिदाता एवं विज्ञानस्वरूप है। वही इस सृष्टि का उपादान और निमित्त कारण है। अपनी अचिन्त्य शक्ति के कारण ईश्वर जगद्प से परिणत होकर भी स्वरूपतः अविकृत रहता है। जीवतत्त्व :- चिन्मय, अणुप्रमाण, अनादि है परंतु वह मायामोहित और ईश्वरपराङ्मुख है। ईश्वर की कृपा से ही वह बंधमुक्त हो कर, पृथगप से ब्रहमानंद का अनुभव पाता है। प्रकृति :- नित्य और परमात्मा की वशवर्तिनी शक्ति है। काल :- एक परिवर्तनशील जड द्रव्य है जो सृष्टिप्रलय का निमित्त कारण है। कर्म :- ईश्वर की शक्ति का ही एक रूप है जो अनादि किन्तु नश्वर और जड है।
इस मत के अनुसार श्रीकृष्णस्वरूप परमात्मा ही उपास्य है जिसके अन्यान्य रूप बताये गये हैं :1) स्वयंरूप :- अन्य किसी आश्रयादि की अपेक्षा न रखने वाला रूप। यह रूप अनादि एवं कारणों का कारण है। 2) तदेकात्मरूप :- स्वयंरूप से अभिन्न किन्तु आकृति, अंग, संनिवेश, चरित्र आदि में भिन्नवत् प्रतीत होता है। भगवान् जब अपने स्वयंरूप से अल्पमात्र शक्ति को प्रकाशित करते हैं, तब वह स्वांश रूप कहलाता है। मत्स्यादि लीलावतार स्वांशरूपी हैं। जिन महापुरुषों में ज्ञान, शक्ति आदि दिव्य कलाओं से परमात्मा आविष्ट सा प्रतीत होता है, वे परमात्मा के "आवेशरूप" कहलाते हैं, जैसे शेष, नारद, सनकादि। परमात्मा अचिन्त्य-शक्ति-सम्पन्न है। उन शक्तियों में अतरंग शक्ति, तटस्थ शक्ति और बहिरंग शक्ति प्रमुख हैं। 1) अंतरंग शक्ति को ही चिच्छक्ति, या स्वरूपशक्ति कहते हैं। यह भगवद्रूपिणी होती है, और अपने सत् अंश में “सन्धिनी', चित् अंश में "संवित्", और आनंद अंश में "ह्लादिनी-' होती है। सन्धिनी शक्ति से परमात्मा समस्त देश, काल और द्रव्यादि में व्याप्त होते हैं। संवित् शक्ति से वे ज्ञान प्रदान करते है, और ह्लादिनी शक्ति से स्वानन्द प्रदान करते हैं। 2) तटस्थ शक्ति :- जीवों के अविर्भाव का कारण है। इसी को जीव शक्ति कहते हैं । यह शक्ति परिच्छिन्न स्वभाव एवं अणुत्वविशिष्ट होती है। 3) बहिरंगशक्ति (योगमायाशक्ति) :- इसी के कारण जगत् का आविर्भाव होता है, और जीवों में अविद्या रहती है। अविद्या के प्रभाव से वह परमात्मा को भूल जाता है। परमात्मा और जीव का संबंध अग्नि-स्फुलिंग संबंध के समान है। इस संबंध को जानना ही मुक्ति है। यह जगत् परमात्मा की बहिरंग शक्ति का विलास होने के कारण सत्य है। वह आविर्भाव, तिरोभाव, जन्म और नाश इन विकल्पों से युक्त होते हुए भी अक्षय तथा नित्य है। सृष्टि-प्रलय होने पर यह जगत् कारणस्वरूप परमात्मा में विद्यमान होता है, केवल उसकी अभिव्यक्ति नहीं होती, जैसी रात में कोटरस्थित पक्षियों की नहीं होती।
चैतन्य मतानुसार भक्ति का नितान्त महत्त्व माना गया है। भक्ति "पंचम पुरुषार्थ है जो अन्य चार पुरुषार्थों से श्रेष्ठ है। वह परमात्मा की संविद् और ह्लादिनी शक्ति से युक्त होने के कारण साक्षात् भगवद्रूपिणी है।
ऐश्वर्य और माधुर्य दो परमात्मा के रूप हैं। इनमें ऐश्वर्यरूप की प्रतीति ज्ञान से होती है और नराकृति माधुर्यरूप की प्राप्ति, शांत, दास्य, सख्य, वात्सल्य एवं माधुर्य इन पंचविध भक्तियों के द्वारा की जाती है। माधुर्य भक्ति सर्वश्रेष्ठ है। इस के तीन प्रकार माने जाते हैं :- (1) साधारणी, (2) संमजसा और (3) समर्था। कुब्जा की भक्ति साधारणी, रुक्मिणी, जांबवती आदि भार्याओं की संमजसा और व्रजगोपिकाओं की सर्वोत्कृष्ट भक्ति थी समर्था । सर्वोत्कृष्ट भक्त केवल समर्था (माधुर्य) भक्ति की ही अपेक्षा रखता है। दार्शनिकों की मुक्ति वह नहीं चाहता।
चैतन्य संप्रदाय के प्रवर्तक चैतन्य महाप्रभु ने स्वमतप्रतिपादन के लिए प्रस्थानत्रयी अथवा श्रीमद्भागवत पर भाष्यादि ग्रंथ नहीं लिखे। वे अपनी समर्था भक्ति में इतने मग्न, एवं भावोन्मत्त थे कि, उत्कृष्ट पांडित्य होते हुए भी, इस प्रकार की अभिनिवेशयुक्त ग्रंथरचना करना उनके लिए असंभव था। यह कार्य उनके अनुयायी वर्गद्वारा हुआ। बलदेव विद्याभूषण कृत ब्रह्मसूत्र का "गोविन्दभाष्य" चैतन्यमत का सर्वश्रेष्ठ प्रमाणग्रंथ माना गया है। बंगाली, ओडिया, असामिया और हिंदी की भक्ति प्रधान कविता चैतन्यमतानुसार भक्ति रस से विशेष प्रभावित है।
प्रस्थानत्रयी तथा श्रीमद्भागवत पर आधारित शंकर, रामानुज, मध्य, वल्लभ और चैतन्य आदि प्रमुख आचार्यों ने वेदान्त दर्शन में विविध प्रकार का तात्त्विक मतप्रतिपादन किया, उसमें जो विभिन्नता प्रकट हुई, उसका संक्षेपतः स्वरूप इस प्रकार है:(अ) प्रमाण
(आ) प्रमेय1) माध्वमत- प्रत्यक्ष, अनुमान और श्रुति ।
1) मध्व- परमात्मनिर्मित जगत् 2) रामानुज- प्रत्यक्ष, अनुमान और श्रुति ।
2) रामानुज- परमात्मशरीर-भूत (दृश्य और अदृश्य) जगत्। 3) वल्लभ- प्रत्यक्ष, अनुमान, श्रुति और श्रीमद्भागवत ।
3) वल्लभ- परमात्मतत्त्व का परिणामभूत जगत्। 4) शंकर- प्रत्यक्ष, अनुमान, श्रुति और अनुभव ।
4) शंकर- मायामय जगत्
184/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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