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घट का अभाव। (2) प्रध्वंसाभाव - जैसे फूटे हुए घट के टुकड़ों में घट का अभाव। (३) अत्यन्ताभाव - जैसे आकाशपुषा या वन्ध्यापुत्र का अभाव ।
अभाव पदार्थ" न मानने पर सभी पदार्थ नित्य रहेंगे। प्रागभाव न मानने पर सभी पदार्थ अनादि मानने पड़ेंगे। प्रध्वंसाभाव न मानने पर सभी पदार्थ अविनाशी मानने पडेंगे। अत्यंताभाव न मानने वंध्यापुत्र और शशशंग की सत्ता माननी पड़ेगी; और अन्योन्याभाव न मानने पर, वस्तुओं में परस्पर अभिन्नता माननी होंगी। इस प्रकार की आपत्ति के कारण अभाव का पदार्थत्व वैशेषिकों ने माना है।
वैशेषिक मतानुसार सृष्टि की उत्पत्ति परमाणु-संयोग से होती है और परमाणु संयोग ईश्वरेच्छा से होता है। सृष्टि का प्रलय भी ईश्वर की इच्छा से ही होता है।
वैशेषिक दर्शन में ज्ञान के दो प्रकार : (1) विद्या और (2) अविद्या माने हैं। विद्या के चार भेद : प्रत्यक्ष, अनुमान, स्मृति और आर्ष (प्रातिभ) तथा अविद्या के चार भेद : संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और स्वप्न माने हैं। बौद्धों के समान वैशोषिक प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाण मानते हैं। अतः विरोधी दार्शनिकों ने उनका निर्देश "अर्धवैनाशिक" (अर्थात् अर्धबौद्ध) संज्ञा से किया है। न्याय दर्शन में संमत, उपमान और शब्द प्रमाण का अन्तर्भाव वे अनुमान में करते हैं।
कणाद ऋषि ने की हुई, "यतोऽभ्युदयानिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः" (अर्थात् जिस कारण अभ्युदय और निःश्रेयस (मोक्ष) की सिद्धि होती है उसे धर्म कहते हैं) यह धर्म की व्याख्या सर्वमान्य सी हुई है। धर्म के साधक कर्म दो प्रकार के होते हैं। 1) सामान्य (अहिंसा, सत्य, अस्तेय इत्यादि) और 2) विशेष (वर्णाश्रमानुसार विशिष्ट कर्म) । निष्काम कर्माचरण से तत्त्वज्ञान का उदय होता है और तत्त्वज्ञान से निःश्रेयस की प्राप्ति होती है। दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति तथा आत्मा के विशेष गुणों का उच्छेद ही मुक्ति का स्वरूप इस दर्शन में माना गया है।
वैशोषिकों के विचारों का खण्डन, जैन, बौद्ध तथा वेदान्तियों ने स्वमत-स्थापना के निमित्त किया है, परंतु उनकी भौतिक जगत् की उपपत्ति लौकिक दृष्टि से ग्राह्य मानी जाती है। "कणादं पाणिनीयं च सर्वशास्त्रोपकारकम्" (अर्थात् कणाद का वैशेषिक
और पाणिनि का व्याकरण शास्त्र अन्य सभी शास्त्रों के ज्ञान के लिए उपकारक है।) यह सुभाषित संस्कृतज्ञ विद्वानों में सर्वमान्य हुआ है। शब्दार्थ के यथोचित निर्णय के लिए पाणिनीय व्याकरण जितना उपकारक है, उतना ही पदार्थों का स्वरूपनिर्णय करने मे वैशेषिक दर्शन उपकारक है। ऐतिहासिक दृष्ट्या ई. 15 वीं शती तक वैशेषिक और न्याय दर्शन का स्वतंत्र रूप से विकास होता रहा। बाद में दोनों दर्शनों का संमिश्रण कर ग्रंथ लिखे गये। दोनों की तत्त्वविवेचन की पद्धति समान होने के कारण, कुछ मतभेद होते हुए भी, दोनों का संबंध (सांख्य और योग के समान) निकटतर माना जाता है।
138/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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