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सत्कार्यवाद - भारतीय तत्त्वज्ञान में “सत्कार्यवाद" और "असतकार्यवाद" इन दो पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग प्रायः सभी दार्शनिकों द्वारा हुआ है। यह सृष्टिरूप कार्य व्यक्त स्वरूप में उत्पन्न होने के पूर्व अस्तित्व में था या नहीं? इस तात्त्विक प्रश्न की चर्चा (मृत्तिका-घट दृष्टान्त के द्वारा) करते समय, बौद्ध, नैयायिक और वैशेषिक दार्शनिकों ने असत्कार्यवाद का पुरस्कार किया है और सांख्य तथा वेदान्ती दार्शनिकों ने "सत्कार्यवाद" का।
बौद्ध मतानुसार "असत्" तत्त्व से "सत्" तत्व की उत्पत्ति मानी गयी। वेदान्तमतानुसार एकमेवाद्वितीय सत् (ब्रह्म) तत्त्व से केवल आभासमय या मायामय संसार की उत्पत्ति हुई। सांख्य मतानुसार एक ही सत् तत्त्व से अनेक सद्वस्तुओं की उत्पत्ति हुई है। सत् तत्त्व से सृष्टि की उत्पत्ति मानने वाले सांख्य और वेदान्ती दोनों "सत्कार्यवादी" माने जाते हैं, किन्तु दोनों की विचारधारा में मौलिक भेद है। वेदान्ती संसार की कारणावस्था ब्रह्मरूप मानते हैं, किन्तु सांख्यवादी इस अवस्था को त्रिगुणात्मक-प्रकृतिरूप मानते हैं। वेदान्ती "जगन्मिथ्या" मानते हैं तो सांख्यवादी जगत् को सत्य मानते हैं। वेदान्ती एकमेवाद्वितीय ब्रह्म ही जगत् का आदिकारण मानते हैं तो सांख्यशास्त्रज्ञ प्रकृति और पुरुष दो तत्त्वों को आदिकारण मानते हैं। इसी कारण सांख्य "द्वैती' भी कहे जाते हैं।
इस प्रकार सद्रूप त्रिगुणात्मक मूल प्रकृति से उत्पन्न सृष्टि के अवांतर तत्त्वों का वर्गीकरण सांख्य दर्शन में अत्यंत मार्मिकता से किया है। ईश्वरकृष्ण ने यह वर्गीकरण एक कारिका में अत्यंत संक्षेप में बताया है :
"मूलप्रकृतिरविकृतिः महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ।।" अर्थात् मूल प्रकृति में सत्व, रज, तम गुणों की साम्यावस्था के कारण कोई विकृति नहीं होती। बाद में उस साम्यावस्था में क्षोभ उत्पन्न होने के कारण, 'महत्' आदि सात तत्त्वों (अर्थात् महत् याने बुद्धि), अहंकार और पांच तन्मात्राएं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) की उत्पत्ति होती है। ये सात तत्त्व मूलप्रकृति के कार्य तथा अवांतर तत्त्वों के कारण भी होते हैं; अतः इन्हें "प्रकृति-विकृति” (याने कारण तथा कार्य) कहा है। इनके अतिरिक्त 5 ज्ञानेन्द्रियां, 5 कर्मेन्द्रियां, 1 उभयेन्द्रिय (मन) और 5 महाभूत सोलह तत्त्वों की उत्पत्ति होती है। इनसे और किसी भी तत्त्व की निर्मिति नहीं होती। अतः इन्हें "विकार" (अर्थात् केवल कार्यरूप) कहा है। पुरुष न तो प्रकृति है, न ही विकृति । इस प्रकार 1) प्रकृति 2) प्रकृति-विकृति 3) विकृति 4) न प्रकृति न विकृति, इन चार वर्गों में व्यक्त अव्यक्त सृष्टि का वर्गीकरण सांख्यदर्शनकारों ने किया है।
सांख्यदर्शन के अनुसार प्रकृति "त्रिगुणात्मका" मानी गई है। प्रकृतिस्वरूप तीन गुण (सत्व, रज और तम) प्रत्यक्ष नहीं हैं। संसार के पदार्थों को देख कर इनका अनुमान किया गया है। एक ही वस्तु -जैसी कोई स्त्री पति को सुख देती है, उसी को चाहने वाले मनुष्य को दुःख देती है और उदासीन मनुष्य को न सुख न दुख देती है। यही अवस्था सर्वत्र होने के कारण सुख, दुःख और मोह के कारणभूत तीन गुणों का सिद्धान्त सांख्य दर्शन द्वारा स्थापित हुआ है। ये तीन गुण परस्परविरोधी होते हैं। इनमें से अकेला गुण कोई कार्य नहीं कर सकता। ये परस्पर सहयोगी होकर पुरुष का कार्य सम्पन्न करते हैं।
__ सत् तत्त्व से सृष्टिरूप सत्कार्य की उत्पत्ति का यह संक्षिप्त परिचयमात्र हुआ। इसका प्रतिपादन करने के लिए “सत्कार्यवाद' नामक जो सिद्धान्त सांख्यदर्शन द्वारा अपनाया गया, उसका समर्थन पांच कारणों द्वारा किया गया है।
ईश्वरकृष्ण ने एक कारिका में वे कारण बताए हैं :
___ "असद्करणाद् उपादानग्रहणात् सर्वसंभवाऽभावात्। शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावात् च सत्कार्यम्।।"
1) असद्करणात् - उदाहरण - तिल से ही तेल निकलता है, बालू से नहीं। बाल, में तेल नहीं होता अतः उससे कितने भी प्रयत्न करने पर तेल कदापि नहीं निष्पन्न होता।
2) उपादानग्रहणात् - प्रत्येक कार्य के लिये विशिष्ट उपादान कारण का ही ग्रहण आवश्यक होता है। उदाहरणार्थ, घट निर्माण करने के लिए मिट्टी ही आवश्यक होती है, तन्तु नहीं।
3) सर्वसम्भवाऽभावात् - सभी कार्य सभी कारणों से नहीं उत्पन्न होते । बालू से तेल या तिल से घट नहीं निर्माण होता।
4) शक्तस्य शक्यकरणात् - शक्तिसम्पन्न वस्तु से शक्य वस्तु की ही उत्पत्ति होती है। जैसे दूध से दही हो सकता है किन्तु तेल, घट या पट नहीं।
5) कारणभावात् - प्रत्येक कार्य, कारण का ही अन्य स्वरूप है। घटरूप कार्य, मिट्टि स्वरूप कारण का ही अन्य रूप है। दोनों का स्वभाव एक ही होता है।
सांख्य और वेदान्त दोनों सत्कार्यवादी हैं। किन्तु सांख्य का सत्कार्यवाद परिणामवादी और वेदान्त का विवर्तवादी कहा गया है। परिणामवाद के अनुसार दूध से दही जैसा वास्तविक विकार होता है वैसा ही प्रकृति से जगत् होता है। विवर्तवाद के अनुसार अंधकार में रज्जु पर सर्प, जिस प्रकार आभासमान होता है और प्रकाश आने पर उसका लय होता है, उसी प्रकार
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 141
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