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पूर्व मूल सूत्रग्रन्थ पर कुछ टीकात्मक ग्रंथ लिखे गये थे ऐसा शाबरभाष्य के अवलोकन से प्रतीत होता है। शाबरभाष्य पर इ. 7 वीं शती में कुमारिलभट्ट ने तीन महत्त्वपूर्ण वृत्तिग्रंथों की रचना की : 1) श्लोकवार्तिक 2) तंत्रवार्तिक तथा 3) टुपटीका । कुमारिलभट्ट के प्रसिद्ध शिष्य मण्डनमिश्र ने विधिविवेक, भावनाविवेक, विभ्रमविवेक और मीमांसानुक्रमणी नामक ग्रंथ लिखे। कुमारिलभट्ट के वैशिष्ट्यपूर्ण प्रतिपादन के कारण उनके मतप्रणाली को “भाट्टमत" कहते हैं। इस मत के अनुयायियों में तर्करत्न, न्यायरत्नमाला, न्यायरत्नाकर तथा शास्त्रदीपिका इन चार ग्रंथों के लेखक पार्थसारथिमिश्र, न्यायरत्नमालाकार माधवाचार्य और भाट्टकौस्तुभ, भाट्टदीपिका एवं भाट्टरहस्य के लेखक खंडदेव मिश्र विशेष प्रसिद्ध हैं।
___ कुमारिलभट्ट के समकालीन प्रभाकर मिश्र ने शाबरभाष्य पर दो टीकाएँ लिखी हैं : 1) बृहती एवं 2) लघ्वी। प्रभाकर की विचारपरंपरा को प्राभाकर संप्रदाय तथा गुरुमत कहते हैं। प्रभाकर के शिष्य शालीकनाथ मिश्र ने "बृहती" पर ऋजुविमला
और "लघ्वी" पर दीपशिखा नामक टीकाओं द्वारा प्राभाकर मत का समर्थन किया है। उन्होंने अपने प्रकरणपंजिका नामक स्वतंत्र ग्रंथ में मीमांसाशास्त्र का प्रयोजन, प्रमाणविचार, ज्ञान तथा आत्मा के संबंध में सविस्तर विवेचन किया है। इसी गुरुमत के
अनुयायी भवनाथ (या भवदेव) ने अपने नयविवेक (या न्यायविवेक) नामक ग्रंथ में शालीकनाथ के तीनों ग्रंथों का सारांश दिया है। प्राभाकर संप्रदाय के लेखकों में न्यायरत्नाकर (जैमिनिसूत्रों की व्याख्या) तथा अमृतबिन्दु के लेखक चन्द्र (जो गुरुमताचार्य उपाधि से विभूषित थे), प्रभाकर विजय के लेखक नन्दीश्वर (ई. 14 वीं शती केरल के निवासी), नयतनसंग्रह के लेखक भट्टविष्णु (ई. 14 वीं शती) भवनाथ मिश्रकृत न्यायविवेक पर अर्थदीपिका टीका के लेखक वरदराज (ई. 16 वीं शती) इत्यादि नाम उल्लेखनीय हैं। रामानुजाचार्यकृत तंत्ररहस्य ग्रंथ स्वल्पकाय होते हुए भी "प्रभाकरमत-प्रवेशिका" माना जाता है।
"मुरारेस्तृतीयः पन्थाः" यह लोकोक्ति मीमांसादर्शन के अन्तर्गत मुरारिमिश्र के तृतीय संप्रदाय का निर्देश करती है। गंगेश उपाध्याय एवं उनके पुत्र वर्धमान उपाध्याय (ई. 13 वीं शती) के ग्रंथों में (कुसुमांजलि तथा उसकी व्याख्या) मुरारि की तीसरी परंपरा का उल्लेख हुआ है। इसी संप्रदाय का वाङ्मय लुप्तप्राय होने के कारण यह परंपरा आज विशेष महत्त्व नहीं रखती। मुरारिकृत त्रिपादनीतिनय और एकादशाध्यायाधिकरण, प्रकाशित हुए हैं। प्रथम ग्रंथ में जैमिनिसूत्रों के चार पादों की एवं द्वितीय में एकादश अध्याय के कुछ अंशों की व्याख्या है। आधुनिक काल में डॉ. गंगानाथ झा (जिन्होंने शाबरभाष्य, तंत्रवार्तिक और श्लोकवार्तिक का अंग्रेजी में अनुवाद किया) कृत मीमांसानुक्रमणिका (ले. मंडनमिश्र) की मीमांसामंडन नामक व्याख्या, वामनशास्त्री किंजवडेकरकृत पश्वालंभनमीमांसा, पं. गोपीनाथ कविराज कृत मीमांसाविषयक हस्तलिखित ग्रंथों की सूची, कर्नल जी.एस. जेकब द्वारा संपादित शाबरभाष्य का सूचीपत्र तथा लौकिक न्यायांजलि (3 खंडों में), म.म. वेंकटसुब्बाशास्त्री का भट्टकल्पतरु, म.म. चिन्नस्वामी शास्त्री द्वारा लिखित मीमांसान्यायप्रकाश-टीका, तंत्रसिद्धान्त-रत्नावली और यज्ञतत्त्वप्रकाश; केवलानंद सरस्वती (महाराष्ट्र में वाई क्षेत्र के निवासी) कृत मीमांसाकोश, भीमाचार्य झलकीकरकृत न्यायकोश इत्यादि ग्रंथों ने मीमांसा दर्शनविषयक संस्कृतवाङ्मय की परंपरा अक्षुण्ण रखी है।
2 "मीमांसा दर्शन की रूपरेखा"
"अथातो धर्मजिज्ञासा-" यह मीमांसा दर्शन का प्रथम सूत्र है। अर्थात् धर्म ही इस का मुख्य प्रतिपाद्य है जिस का निर्देश कर्म, यज्ञ, होम, आदि अनेक शब्दों से होता है। जैमिनिसूत्रों के बारह अध्यायों में कुल 56 पाद (प्रत्येक अध्याय में 4 पाद। केवल अध्याय 3 और 6 में आठ आठ पाद हैं।) और लगभग एक हजार अधिकरणों में इस मुख्य विषय का प्रतिपादन हुआ है। इनके निरूपण के प्रसंग में सैंकडों "न्याय" और सिद्धान्त स्थापित हुए हैं जिनका उपयोग प्रायः सभी शास्त्रों (विशेषतः धर्म शास्त्र) ने किया है। अधिकरण में अनेक सूत्र आते हैं जिनमें एक प्रधान सूत्र और अन्य गुणसूत्र होते हैं। विषय, संशय, पूर्वपक्ष, सिद्धान्त और प्रयोजन तथा संगति नामक छह अवयव अधिकरण के अंतर्गत होते हैं।
मीमांसासूत्रों के "द्वादशलक्षणी" नामक प्रथम खंड के प्रथम अध्याय में धर्म का विवेचन हुआ है। "चोदना-लक्षणोऽर्थो धर्मः" (अर्थात्-वेदों के आज्ञार्थी वचनों द्वारा विहित इष्ट कर्म) यह इस शास्त्र के अनुसार धर्म का लक्षण है। यहां पर विधि, अर्थवाद, मन्त्र, और नामधेय इन वेदों के चारों भागों को प्रमाण माना जाता है। इसी तरह वेद के द्वारा निषिद्ध कर्म के अनुष्ठान से अधर्म होता है। यज्ञ-याग धर्म है और ब्रह्महत्या इत्यादि अधर्म है। इष्टसाधनता, वेदबोधितता और अनर्थ से असंबंद्धता जहाँ हो, वही कर्म, मीमांसकों के मतानुसार, "धर्म" कहने योग्य है। वैदिक धर्म का ज्ञान मुख्य रूप से विधि, अर्थवाद, मन्त्र, स्मृति, आचार, नामधेय, वाक्यशेष, और सामर्थ्य या शिष्टाचार इन आठ प्रमाणों से होता है।
मीमांसाशास्त्र में "भावना" एक विशिष्ट पारिभाषिक शब्द प्रचलित है जिस का अर्थ है, होने वाले कर्म की उत्पत्ति के अनुकूल, प्रयोजक में रहने वाला विशेष व्यापार। यह व्यापार,वेद अपौरुषेय होने के कारण “यजेत' इत्यादि शब्दों में ही रहता है। इस लिए इसे "शाब्दी भावना" कहते हैं। शाब्दी भावना को तीन अंशों की अपेक्षा होती है :- (1) साध्य, (2)
164/ संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथकार खण्ड
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