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विद्वानों ने प्रारंभ में नास्तिक और उसके बाद आस्तिक दर्शनों की जो सोपान परंपरा मानी है, उसके अनुसार ठीक चिन्तन करने पर जिज्ञासु वेदान्त के अद्वैत विचार तक पहुंचता है। इस दर्शन पंप स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम इस क्रम से वैचारिक प्रगति दिखाई देती है। उदाहरण के रूप में दार्शनिकों के आत्मविषयक विचार देखिए। अत्यंत स्थूल बुद्धि का मनुष्य "आत्मा वै जायते पुत्रः" इस वचन के अनुसार पुत्र को ही आत्मा मानता है। उसके उपर चार्वाकवादी “स वा एष पुरुषो अन्नरसमयः" इस वचन के अनुसार निजी स्थूल शरीर को ही आत्मा मानता है। इसके आगे लोका पत मतवादी इन्द्रियों को, प्राणात्मवादी शरीरसंचारी प्राण को, मनवादी मन को, योगाचारवादी (या विज्ञानवादी) बुद्धि को, प्रभाकर पीमांसक ज्ञान को, कुमारिल मतानुयायी अज्ञानस्थित चैतन्य को, माध्यमिक बौद्ध शून्य को और अंत में वेदान्तवाटी नित्य-शुक शुद्ध मुक्त-स्वभावी अन्नर्यामी चैतन्य को आत्मा मानते हैं। इस एकमात्र उदाहरण से दर्शनिकों की विचारधारा स्थूलतम से सूक्ष्मतम की ओर किस प्रकार बहती थी और उसकी परिसमाप्ति वेदान्त दर्शन में किस प्रकार हुई यह कल्पना आ सकती है। इस अनुक्रम से यह भी सिद्ध होता है कि अन्यान्य दर्शनों में आपाततः भासमान अन्योन्य विरोध, अंतिम सिद्धान्त का आकलन होने की दृष्टि से आवश्यक भेद के स्वरूप का है। अंतिम सिद्धान्त के आकलन के लिए वह पूरक सा है । वेदान्त दर्शन का मूल उपनिषदो, ब्रह्मसूत्रों और भगवतद्गीता इस प्रस्थानत्रयी में निर्विवाद है। भाष्यकार श्रीशंकराचार्यजी ने इस दर्शन को व्यवस्थित रूप में स्थापित करने का कार्य अपने ग्रंथों द्वारा किया, इस तथ्य को सभी मानते हैं, तथापि शंकराचार्य से प्राचीन वेदान्तवादी विद्वानों के नाम श्रीव्यासकृत ब्रह्मसूत्रों में मिलते हैं जैसे:आत्रेयः- स्वामिनः फलश्रुतेः इति आत्रेयः (ब्र सू. 3-3-55) । आश्मरथ्यः- "अभिव्यक्तेः इति आश्मरथ्यः' (ब्र.सू. 1-2-39) कार्णाजिनिः- "चरेदिति चेत् न उपलक्षणार्थे कार्णाजिनिः" (ब्र.सू. 3-1-9)। काशकृत्स्त्रः - “अवस्थितेः इति काशकृत्स्रः"। (ब्र.सू. 1-4-22) ।
इनके अतिरिक्त औडुलोमि, जैमिनि, बादरि, काश्यप इत्यादि पूर्वाचार्यों के नामों का निर्देश ब्रह्मसूत्रों में मिलता है।
वेदान्त दर्शन में श्रीशंकर, रामानुज, मध्व, आदि आचार्यो के भाष्यग्रंथ अग्रगण्य माने जाते हैं; परंतु इन भाष्यकारों ने अपने पूर्ववर्ती कुछ आचार्यों के विचारों का परामर्श लिया है। उनमें ज्ञानकर्म-समुच्चयवादी भर्तृप्रपंच, शब्दाद्वैतवादी भर्तृहरि (वाक्पपदीयकार) बौधायन, ब्रह्मनंदी, टंक, भारुचि, द्राविडाचार्य, सुन्दरपाण्ड्य, ब्रह्मदत्त आदि नाम उल्लेखनीय है। वेदान्त दर्शन की प्रस्थानत्रयी में, व्यासकत ब्रह्मसूत्रों का विशेष महत्त्व माना जाता है। इसका कारण इस ग्रंथ में शास्त्रीय पद्धति के अनुसार अन्य मतों का परामर्श लेते हुए ब्रह्मवाद का प्रतिपादन किया गया है। इस ग्रंथ में चार अध्याय और प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं। अध्यायों के नाम :- 1) समन्वयाध्याय, 2) अविरोधाध्याय, 3) साधनाध्याय और 4) फलाध्याय। इसके सूत्र इतने स्वल्पाक्षर हैं कि किसी भाष्य की सहायता के बिना उनका अर्थ या अभिप्राय समझना अत्यंत कठिन है। मूल सूत्रकार का सैद्धान्तिक मन्तव्य निर्धारित करने की आकांक्षा से कुछ महनीय आचार्यों ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य लिखे, जो वेदान्त दर्शन विषयक वाङ्मय में नितान्त महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं:
"ब्रह्मसूत्र के भाष्यकार" नाम समय भाष्याग्रंथ
सिद्धान्त 1) शंकराचार्य - 8-9 वीं शती - शारीरकभाष्य
निर्विशेषाद्वैत 2) भास्कर - 10 वीं शती - भास्करभाष्य
भेदाभेद 3) रामानुजाचार्य - 12 वीं शती
- श्रीभाष्य
- विशिष्टाद्वैत 4) मध्वाचार्य - 13 वीं शती - पूर्णप्रज्ञभाष्य
द्वैत 5) निंबार्काचार्य - 13 वीं शती - वेदान्तपारिजात
द्वैताद्वैत। 6) श्रीकण्ठ - 13 वीं शती - शैवभाष्य
शैवविशिष्टाद्वैत 7) श्रीपति - 14 वीं शती - श्रीकरभाष्य
- वीरशैवविशिष्टाद्वैत 8) वल्लभाचार्य -'15-16 वीं शती - अणुभाष्य
- शुद्धाद्वैत। 9) विज्ञानभिक्षु -- 16 वीं शती. - विज्ञानामृत - अविभागाद्वैत। 10) बलदेव
- 18 वीं शती - गोविंदभाष्य - अचिंत्य भेदाभेद। इन श्रेष्ठ विद्वानों ने ब्रह्मसूत्रों का अर्थनिर्धारण करने के प्रयत्नों में जो विविध सिद्धान्तों का प्रतिपादन अपनी पाण्डित्यपूर्ण शैली में किया है, उसके कारण मूल सूत्रकार का मन्तव्य निर्धारित करना कठिन हो गया है। भाष्यकारों में श्रीशंकर, रामानुज, मध्व, और निंबार्क के द्वारा सम्प्रदायों की स्थापना हुई है। इन सम्प्रदायों के अनुयायी विद्वान अपने ही संप्रदायप्रवर्तक के सिद्धान्त ब्रह्मसूत्रों का मन्तव्य मानते हैं। इन भाष्यकारों ने भगवद्गीता और उपनिषदों के भाष्य लिख कर, उनमें भी अपने सिद्धान्तों पर बल दिया है। इस मतभेद में सूत्रों और अधिकरणों की संख्या के विषय में तथा शब्दों के अर्थ के विषय में भी मतभेद व्यक्त हुए हैं।
168 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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