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ब्रह्मग्रंथी, विष्णुग्रंथी और रुद्रग्रंथी है (वेदान्त
ग्रंथी : मणिपुर, अनाहत और आज्ञा चक्रों के अपर नाम यथाक्रम शास्त्र में इन्हीं को पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा कहते हैं ।)
सामरस्य : जीव और शिव की निजी शक्ति से मिलन की उच्चतम साधनावस्था । इस अवस्था में जीव शिवसमान और जीव की भक्ति, शक्तिसमान होती है। तांत्रिक साधक का यही प्राप्तव्य है ।
162 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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दीर्घ काल तक तंत्रमार्ग के विषय में जनता में अनादर की भावना रही। भक्तिमार्गी साहित्य में याज्ञिक और तांत्रिक दोनों की उपहासगर्भ निंदा हुई है। इसका कारण था तंत्र वाङ्मय की गूढार्थकता और अपने को तांत्रिक कहने वालों की मद्य, मांस मैथुन इत्यादि के प्रति आसक्ति तथा अनैतिक व्यवहार । तंत्रमार्ग की यह बदनामी हटाने का प्रयास महार्णव तंत्र में हुआ है । उस तंत्र में मद्य मांसादि पंच मकार के संबंध में सुधार सूचित किया है। मद्यपान में अतिरेक करने वाले को देवीभक्त नहीं मानना चाहिए। कलियुग में मैथुन निजी धर्मपत्नी के साथ ही करना चाहिए । मद्य के स्थान पर दूध, शक्कर और मधु का मिश्रण लेना चाहिए, इस प्रकार के सुधार महार्णवतंत्र में बताये गये हैं। तंत्रमार्ग के विषय में विपरीत धारणा समाज में प्रसृत होने के कारण तांत्रिक वाङ्मय की दीर्घकाल तक उपेक्षा होती रही। हिंदुओं के धार्मिक वाङ्मय का व्यापक एवं गंभीर अध्ययन करने वाले एच. एच. विल्सन, जॉन, जॉर्ज वुडरॉफ और उनके सहयोगी प्रमथनाथ मुखोपाध्याय, मोनियर विल्यम, एन. मैकनिकल डब्ल्यु. जे. विल्किन्स, ऑर्थर अॅव्हलॉन, आर. डब्ल्यु. फ्रेजर इत्यादि पाश्चात्य विद्वानों ने और तंत्रतत्त्व के लेखक शिवचंद्र विद्यार्णव ने तांत्रिक वाङ्मय का आलोडन किया और उसके संबंध में प्रसृत लोकभ्रम का निवारण, अपने ग्रन्थों द्वारा करने का प्रयास किया। पद्मभूषण गोपीनाथ कविराजजी ने तांत्रिक साहित्य विषयक 7 सौ पृष्ठों की बृहत्सूची प्रदीर्घ प्रस्तावना के साथ प्रकाशित कर तंत्र शास्त्र के जिज्ञासुओं पर महान उपकार किया। उस सूची में निर्दिष्ट महत्त्वपूर्ण मुद्रित ग्रन्थों का उल्लेख प्रस्तुत संस्कृत वाङ्मय कोश में यथास्थान हुआ है। पीतांबरापीठ (वनखण्डेश्वर, दतिया, मध्यप्रदेश) के श्री स्वामीजी महाराज ने तांत्रिक साधनाओं में सारी आयु व्यतीत कर आगम (तंत्र) और निगम (वेद) के समन्वय का महान् प्रयास किया । तंत्रमार्ग की प्रतिष्ठा प्रस्थापित करने में श्री पीताम्बरा पीठाधीश्वर स्वामीजी का योगदान विशेष उल्लेखनीय है ।
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