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प्रकरण - 8 मीमांसा और वेदान्त दर्शन
1 "मीमांसा दर्शन"
"मीमांसा" शब्द अतिप्राचीन है। तैत्तिरीय संहिता, काठक संहिता, अथर्ववेद, शांखायन ब्राह्मण, छान्दोग्य उपनिषद आदि प्राचीन ग्रन्थों में, "मीमांसन्ते मीमांसमान, मीमांसित तथा मीमांसा" इत्यादि शब्दों का, किसी संदेहात्मक विषय में विचार विमर्श करना, इस अर्थ में प्रयोग हुआ है। पाणिनि (3/1/5-6) ने “सन्" प्रत्यय के साथ सात धातुओं के निर्माण की बात कही है; जिनमें एक है “मीमांसते" जो मान् धातु से बना है; जिसका अर्थ काशिका में “जानने की इच्छा' कहा गया है। कात्यायन के वार्तिकों में प्रसज्यप्रतिषेध, पर्युदास, शास्त्रातिदेश जैसे मीमांसाशास्त्र के विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है। पातंजल महाभाष्य में काशकृत्सि द्वारा व्याख्यायित मीमांसा का उल्लेख आता है। पश्चात्कालीन विद्वानों ने मीमांसाशास्त्र को चतुर्दश या अष्टादश विद्यास्थानों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण कहा है ("चतुर्दशसु विद्यासु मीमांसैव गरीयसी") क्यों कि वह वैदिक वचनों के अर्थ के विषय में उत्पन्न सन्देहों, भ्रामक धारणाओं एवं अबोधकता को दूर करता है, तथा अन्य विद्यास्थानों को अपने अर्थ स्पष्ट करने के लिए इसकी आवश्यकता पड़ती है।
श्रुति में प्रतिपादित कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड में से कर्मकाण्ड का विषय है यज्ञ-यागादि विधि तथा अनुष्ठानों का (अर्थात् वैदिक आचारधर्म का) प्रतिपादन। कुमारिलभट्ट ने यही मीमांसा शास्त्र का प्रयोजन बताया है- “धर्माख्यं विषयं वक्तुं मीमांसायाः प्रयोजनम्"। इस प्रयोजन के अनुसार श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त धर्मशास्त्र के साथ,मीमांसा का अति निकट संबंध है। धर्मशास्त्र के लेखकों ने मीमांसा शास्त्र के “नियम" एवं “परिसंख्या" सिद्धान्त का तथा होलाकाधिकरणन्याय का बहुधा प्रयोग किया है।
कर्मकाण्ड वेदों का पूर्वखंड और ज्ञानखण्ड उत्तरखंड होने के कारण, मीमांसादर्शन को “पूर्वमीमांसा" और वेदान्त दर्शन को उत्तरमीमांसा तथा “न्यायशास्त्र" भी कहा गया है। मीमांसाविषयक अनेक ग्रंथों के (न्यायकणिका, न्यायरत्नाकर, न्यायमाला इ.) "न्याय शब्द पूर्वक नाम, इसका प्रमाण हैं। मीमांसा शास्त्र के ग्रंथों में अर्धजरतीय न्याय, अर्धकुक्कुटीपाकन्याय, पंकप्रक्षालनन्याय, माषमुद्गन्याय, गो-बलीवर्दन्याय, ब्रह्मणपरिव्राजकन्याय, अधंपरंपरान्याय, आकाशमुष्ठिहननन्याय, अंगागिन्याय, नष्टाश्व-दग्धरथन्याय, छत्रिन्याय, निषादस्थपतिन्याय, कैमुतिकन्याय, पिष्टेषणन्याय, काकदन्तपरीक्षान्याय, स्थालीपुलाकन्याय, इत्यादि अनेक लौकिक एवं वैदिक न्यायों का प्रयोग हुआ है। विशेषतः कुमारिलभट्ट ने अपने तंत्रवार्तिक में इन न्यायों का प्रभूत मात्रा में उपयोग किया है। इस शास्त्र को "न्यायशास्त्र" मानने का यह भी एक महत्त्वपूर्ण कारण हो सकता है।
इस शास्त्र के कुछ ग्रंथों के नामों में "तंत्र" शब्द का भी प्रयोग हुआ है, जैसे कुमारिलभट्टकृत तंत्रवार्तिक एवं चित्रस्वामी (20 वीं शती) कृत तंत्रसिद्धान्त-रत्नावलि इत्यादि। अतः यह “तंत्रशास्त्र" शब्द से भी निर्देशित होता है। इनके अतिरिक्त, धर्ममीमांसा अनीश्वर-मीमांसा, विचारशास्त्र, अध्वरमीमांसा, वाक्यशास्त्र इत्यादि शब्दों से भी मीमांसा दर्शन निर्दिष्ट होता है परंतु पूर्वमीमांसा-दर्शन या मीमांसा-शास्त्र इन शब्दों का ही प्रयोग सर्वत्र रूढ है।
जैमिनिकृत मीमांसासूत्र इस दर्शन का प्रमुखतम ग्रंथ है। जैमिनि का समय ई.पू. 3 शती माना जाता है। उन्होंने अपने ग्रंथ में बादरायण, बादरि, ऐतिशायन, काजिनि लावुकायन, कामुकायन, आत्रेय और आलेखन नामक आठ पूर्वाचार्यों का निर्देश किया है। जैमिनि के सूत्र ग्रंथ में दो भाग माने जाते हैं। 1) द्वादशलक्षणी और 2) संकर्षण काण्ड (या देवताकाण्ड)। द्वादशलक्षणी के 12 अध्यायों में क्रमशः धर्मजिज्ञासा, कर्मभेद, शेषत्व, प्रयोज्य-प्रयोजकभाव, कर्मक्रम, अधिकार, सामान्यविशेष, अतिदेश, ऊह, बाध और तंत्र-आवाप इन बारह विषयों का विवेचन किया है। मीमांसा के अध्येता इस द्वादशलक्षणी का ही प्रधानतया अध्ययन करते हैं। संकर्षणकांड आरंभ से ही उपेक्षित रहा है तथा इसके प्रणेता के विषय में भी मतभेद है। कुछ विद्वान काशकृत्स्र को इसके प्रणेता मानते हैं। इस काण्ड में देवताओं पर विचार विमर्श हुआ है किन्तु धर्मशास्त्र पर इसका कोई प्रभाव नहीं है। कुछ विद्वान इसे “द्वादशलक्षणी" का परिशिष्ट मानते हैं।
जैमिनि के सूत्रों की संख्या 2644 तथा अधिकरणों की संख्या 909 है। इन सूत्रों पर उपवर्ष (ई. 1-2 शती) और भवदास ने वृत्तियां लिखी थीं। ई. 2 री शती में शबराचार्यने भाष्य लिखा जो “शाबरभाष्य" नाम से प्रख्यात है। शबर के
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 163
से "द्वादशलक्षणी
संख्या 909 है। इन
स्य" नाम से प्रख्यात
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