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हुआ जिनमें सरहपा का बुद्ध कपालतंत्र, लुईपा का योगिनीसंचर्या तंत्र, कंबल और पद्मव्रज का वज्रतंत्र, कृष्णाचार्य का संपटतिलक तंत्र, ललितवज्र का कृष्णयमारि तंत्र, गंभीरवज्र का महामाया तंत्र और पितो का कालचक्रतंत्र उल्लेखनीय हैं। बौद्ध तांत्रिकों का तारासम्प्रदाय ई. छठी या सातवीं शती का माना जाता है।
5 तंत्रशास्त्र और बौद्धधर्म वेदनिष्ठ शिव, विष्णु देवी इत्यादि देवतोपासकों में जिस प्रकार तांत्रिक उपासना पद्धति का प्रचार हुआ उसी प्रकार बौद्धों के महायान संप्रदाय में और विशेष कर तिब्बती बौद्ध संप्रदाय में तंत्रमार्ग का विशेष प्रभाव दिखाई देता है। तत्त्वतः बौद्ध धर्म पंचशील-प्रवण और अष्टांगिक मार्गनिष्ठ है, परंतु यथावसार शैव, वैष्णवों के प्रभाव के कारण बौद्धों में भी तंत्रसाधना का प्रचार हुआ। बौद्धों के तांत्रिक वाङ्मय में क्रियातंत्र, चर्यातंत्र और योगतंत्र इन तीन प्रकार के ग्रंथ हैं ।क्रियातंत्र में धार्मिक विधि, चर्यातंत्र में आचारविधि और योगतंत्र में अन्यान्य योगविधि बताये गये हैं। उनमें क्रियातंत्र विषयक ग्रंथों में कुछ वैदिक धर्मविधियों का भी प्रधानता से पुरस्कार किया गया है। बौद्धों के आदिकर्मप्रदीप नामक क्रियातंत्र विषयक सूत्रग्रंथ में प्रायः वैदिकों के गृह्यसूत्रों में प्रतिपादित धर्मविधि बताये है। महायान सम्प्रदाय के मुमुक्षु साधक के लिये परिमार्जन, प्रक्षालन, प्रातःसायंप्रार्थना, पितृतर्पण, भिक्षादान, पूज्यपूजन इत्यादि कर्मों में उपयुक्त मंत्र, इस आदिकर्म प्रदीप में बताये हैं। क्रियातंत्रविषयक ग्रंथों में यज्ञान्तर्गत दान, कुछ गूढार्थक मंत्र और बोधिसत्वों के साथ शैवपंथीय दैवतों की प्रार्थना उल्लखित है। योगनिष्ठ बौद्ध साधकों के लिये योगतंत्रविषयक ग्रंथ निर्माण हुए। इनमें परमज्ञान की प्राप्ति के लिये संन्यास तथा ध्यान साधना के साथ मंत्र, तंत्र, मूर्छना जैसे ऐन्द्रजलिक प्रयोग भी बताये गये हैं। इन ग्रंथों का प्रतिपादन प्रायः शैवतंत्रों के अनुसार दिखाई देता है। योगिनी, डाकिनी इत्यादि देवता भी इस बौद्ध योगतंत्र में महत्त्वपूर्ण मानी गयी है।
नेपाली बौद्धों के नवविध धर्माचार में तथागतगुह्यक अथवा गुह्यक समाज नामक तंत्रग्रंथ महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इसके प्रारंभ में नाना प्रकार के ध्यान बताये गये हैं। परंतु आगे चल कर घोड़ा, हाथी, कुत्ता इत्यादि पशुओं के मांस भक्षण और चाण्डालकन्याओं से मैथुन इस प्रकार के कर्म बताये हैं। महाकालतंत्र नामक ग्रंथ बुद्धप्रणीत कहा गया है। इस ग्रंथ में शाक्यमुनि
और देवता के संवाद द्वारा गुप्तधन, वांछित स्त्री, राजाधिकार इत्यादि की प्राप्ति के तथा वशीकरण मारण इत्यादि के उपाय साधनरूप में बताये हैं। संवरोदयतंत्र बुद्ध, वज्रपाणिसंवादरूप है। इसमें शिवलिंग का और शैव देवतों का पूजन तंत्रसाधना के लिए बताया है। कालचक्रतंत्र के प्रवक्ता के रूप में आदिबुद्ध का निर्देश है। परंतु उसी ग्रंथ में मक्का क्षेत्र और मुस्लिम संप्रदाय का भी निर्देश मिलता है। नागार्जुन प्रणीत पंचक्रम नामक बौद्धतंत्र के ग्रंथ में परमोच्च योगप्राप्ति की पंचमावस्था प्राप्त करने के लिये महायानी देवताओं का पूजन, गूढमंत्रों का उच्चारण, चक्र, मंडल आदि का पूजन बताया गया है। इस प्रकार की तंत्रोपासना से योगी को सकल भेदातीत अद्वैतावस्था प्राप्त होती है ऐसा ग्रंथ का अभिप्राय है। बौद्धों के तंत्रविषयक ग्रन्थों की संस्कृत भाषा अशुद्धप्राय होने के कारण संस्कृतज्ञों को प्रसन्न नहीं करती।
प्रमुख बौद्ध तंत्रों की नामावली (कुलसंख्या 72) : प्रमोदमहायुग, परमार्थसेवा, पिंडीक्रम, संपुटोद्भव, हेवन, बुद्धकपाल, संवर (या संवरोदय), वाराही, (या वाराहीकल्प), योगांबर, डाकिनीजाल, शुक्लयमारि, वृष्णयमारि, पीतयमारि, रक्तयमारि, श्यामयमारि, क्रियासंग्रह, क्रियाकंद, क्रियासागर, क्रियाकल्पद्रुम, क्रियार्णव, अभिधानोतर, क्रियासमुच्चय, साधनमाला, साधनसमुच्चय, साधनसंग्रह, साधनरत्न, साधनपरीक्षा, साधनकल्पलता, तत्त्वज्ञान, ज्ञानसिद्धि, उद्यान, नागार्जुन, योगपीठ, पीठावतार, कालवीर (या चंडरोषण), वज्रवीर, वज्रसत्त्व, मरीचि, तारा, वज्रधातु, विमलप्रभा, मणिकर्णिका, त्रैलोक्यविजय, संपुट, मर्मकालिका, करुकुल्ला, भूतडामर, कालचक्र, योगिनी, योगिनीसंचार, योगिनीजाल, योगांबरपीठ, उड्डामर, वसुंधरासाधन, नैरात्म, डाकार्णव, क्रियासार, यमांतक, मंजुश्री, तंत्रसमुच्चय, क्रियावसंत, हयग्रीव, संकीर्ण, नामसंगीति, अमृतकर्णिकानाम संगीति, गूढोत्पादनाम संगीति, मायाजाल, ज्ञानोदय, वसंततिलक, निष्पन्नयोगांबर, और महाकाल। इन बौद्धों तंत्रों में से बहुसंख्य तंत्रों के ग्रंथों के चीनी एवं तिब्बती भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं।
6 तांत्रिक संप्रदाय जैनतंत्र :
जैन परंपरा के अनुसार जैन तंत्रों का प्रारंभ तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समय से माना जाता है। विद्यानुप्रवाद नामक जैन ग्रंथ में मंत्रों तथा विद्याओं की चर्चा मिलती है। आचार्य भद्रबाहु को आद्य जैन तांत्रिक इसी लिये मानते हैं कि उन्होंने स्मरणमंत्र से पार्श्वनाथ का आवाहन किया था। ई. 3 री शताब्दी से 11 वीं शताब्दी तक मानवदेव सूरि (लघुशांतिमंत्र), वादिवेताल-शांतिसूरि (बृहत् शांतिमंत्र) सिद्धसेनदिवाकर, मानतुंगसूरि (भक्तामरस्तोत्र), हरिभद्रसूरि, शीलगुणसूरि, वीरमणि, शांतिसूरि, और सुराचार्य इन जैन तंत्राचार्यों ने मंत्रविद्या का प्रचार जैन समाज में किया।
नाथसंप्रदाय प्रधानतः तांत्रिक ही है। तंत्रराज ग्रंथ के अनुसार कौलतंत्रों के प्रवर्तक मत्स्येन्द्रादि नौ सिद्ध नाथ ही थे।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड/157
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