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है, जिसका निर्देश विश्वंभरा वसुधानी इत्यादि महनीय शब्दों से किया गया है। अथर्ववेद में पृथ्वी देवता की उत्पत्ति अश्विनीकुमारों से बताते हुए उसकी स्तुति में विष्णु को उसकी विशालता पर घूमने वाला एवं इन्द्र को उसका रक्षक कहा है। अथर्ववेद में इसी पृथ्वी देवता को 'कृष्णा' कहा है। तांत्रिक ग्रंथों में यही कृष्णा 'कालिका' नाम से निर्दिष्ट है। इसी वेद में मंत्रशक्ति से मुर्दे के धुयें से होने वाली, पशु एवं मनुष्य की रोगनिवृत्ति की चर्चा मिलती है। मंत्रशक्तिशास्त्र का मूल इस प्रकार अथर्ववेद में मिलता है। वैदिक शाक्त साधनाएं विशिष्ट वस्तुओं के माध्यम से की जाती हैं। कृत्या नामक मारणशक्ति एवं अंशुमती नामक प्रजननशक्ति का उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है। संरक्षक क्षात्रशक्ति का स्रोत जलमयो अग्निदेवता को माना है। इन तत्त्वशक्तियों के अतिरिक्त कालशक्ति, अग्निशक्ति, सूर्यशक्ति, रात्रिशक्ति इत्यादि शक्तिओं का निर्देश वेदमंत्रों में मिलता है। लोकतंत्र में होने वाली 'छायापुरुष' साधना का मूल ऋग्वेद के सरण्यू आख्यान में माना जाता है। सरण्यू सूर्य की धर्मपत्नी का नाम है जिसे छाया और अमृता भी कहा है। यम छाया का ही पुत्र है । लौकिक तंत्रसाधना में स्वप्नेश्वरी ( दुःस्वप्न को सुस्वप्न में परिवर्तित करने वाली देवता) का आराधना होती है। इस देवता का मूल ऋग्वेद की उषा देवता में माना जाता है। वेदों में निर्दिष्ट इन्द्र की स्त्रीरूप शक्ति इन्द्राणी को शरीरस्था कुण्डलिनीशक्ति माना जाता है। उपनिषदों में तांत्रिकों की शक्तिसाधना का बीज अनेकत्र मिलता है। केनोपनिषद् में हैमवती उमादेवी के स्वरूप में सर्वान्तर्यामिनी महाशक्ति का निर्देश किया है। इस शक्ति के अभाव में इन्द्र, वायु आदि देवता निस्सत्व हो जाते है । गणपत्युनिषद् में मानव देह के मूलाधार में स्थित शक्ति का निर्देश गणपति, ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि आदि देवतावाचक नामों से किया है। बृहदारण्यक में प्राणिमात्र की वाक्शक्ति को ही ब्रह्म कहा है, (वाग् वै ब्रह्म) । रुद्रहृदयोपनिषद् में व्यक्त को उमा, शरीरस्थ चैतन्य को शिव और अव्यक्त परब्रह्म को महेश्वर कहा है । योगकुण्डली उपनिषद में सरस्वती अर्थात् वाक्शक्ति के चालन से ( याने मंत्रजप से) कुण्डलिनी शक्ति के चालन की चर्चा मिलती है। बृहदारण्यक में पराशक्ति को कामकला एवं शृंगारकला कहा है। गोपालोत्तरतापिनी उपनिषद् में पराशक्ति को ही कृष्णात्मिका (अर्थात् आकर्षणमयी) रुक्मिणी कहा है। अग्नि, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्यौ चन्द्रमा एवं नक्षत्रों को बृहदारण्यक मे 'अष्टवसु' कहा है। इन वसुओं को व्यवहार के लिए एक क्रम में प्रस्तुत करने वाली शक्ति को देव्युपनिषद् में 'संगमनी शक्ति' कहा है। इसी का नाम दुर्गा शक्ति भी है। अथर्ववेद के सीतोपनिषद् में मूलप्रकृति का निर्देश सीताशक्ति शब्द से किया है। इसी को इच्छाशक्ति क्रियाशक्ति एवं साक्षात्शक्ति नाम, व्यवहार की दृष्टि से दिये गये हैं। अथर्वशिरस् उपनिषद् में साधना की दृष्टि से निर्गुण शक्ति के शुक्ल, रक्त और कृष्ण वर्ण माने गये हैं। उपनिषदों में परा शक्ति का परिचय गुणात्म एवं व्यावहारि रूप से है, जब कि पुराणों में सगुणसाकार रूप में मिलता है।
4 तंत्र और पुराण
पुराणों में दृश्य जगत् की त्रिगुणमयी कारणशक्ति (सत्त्व) महालक्ष्मी, (रजस्) सरस्वती एवं (तमस् ) महाकाली के स्वरूप में वर्णित है। प्रत्येक पुराण में देवताविशेष के अनुसार एक शक्ति की मुख्यता प्रतिपादन की है। आनुषंगिकता से अन्य शक्तियों की भी चर्चा आती है। विभिन्न देवताओं के नामों से अंकित पुराणों में देवताविशेष का महत्त्व उनकी शक्तिओं के कारण है। देवी भागवत में शिवा, कालिका, भुवनेश्वरी, कुमारी आदि स्वरूपों में सर्वगता शक्ति का निर्देश करते हुए उनकी साधना, योग और याग द्वारा बतायी है। शरीरस्थित कुण्डलिनी ही भुवनेश्वरी है, उसी को लौकिक वस्तुओं की प्राप्ति के लिये अंबिका कहा गया है। अंबिकास्वरूप भुवनेश्वरी की आराधना यज्ञ द्वारा विहित मानी है। दुर्गति से रक्षा होने के लिए दुर्गादेिवी का स्थान तथा हिमालय में पार्वती देवी का स्थान बताया गया है। पार्वती के शरीर से कौशिकी होने की चर्चा मार्कण्डेय पुराण एवं देवी भागवत में की है। पार्वती का एक स्वरूप है शताक्षी एवं शाकंभरी। इसी देवी ने प्राणियों के दुःख से खिन्न होकर नेत्रों से जल वर्षण कर शाकादि को उत्पन्न किया था। देवीभागवत के सप्तमस्कन्ध (अ. 38 ) में शक्ति के प्रभेद सविस्तर वर्णित हैं । नवम स्कन्ध ( अ. 6) में गंगा, सरस्वती, लक्ष्मी और विशेष रूप से राधा एवं गायत्री का महत्त्व वर्णन किया है। इसी स्कन्ध में स्वाहा, स्वधा, दक्षिणा, षष्ठी, मंगलचंडी, जरत्कारू मनसा एवं सुरभि नामक शक्तियों का भी वर्णन है। श्रीमद्भागवत (10 स्कंध) में विन्ध्यवासिनी देवी का वर्णन आता है, जो कंस के हाथ से छूट कर विविध स्थानों पर, दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्यका, नारायणी, ईशानी, शारदा इत्यादि नामों से स्थित हुई है। इसी दशम स्कन्ध (अध्याय 22 ) में चीरहरण के प्रसंग में कात्यायनी पूजा के व्रत का वर्णन आता है। कात्यायनी की पूजा तांत्रिक पद्धति से बतायी गई है। रुक्मिणीविवाह के प्रकरण में भवानी की पूजा तांत्रिक पद्धति से वर्णित है। पंचमस्कन्ध (अ. 9) में तामसी साधकों द्वारा संतति प्राप्ति के लिये भद्रकाली को नरबलि अर्पण करने का उल्लेख मिलता है। वहां भद्रकली की आराधना के सारे उल्लेख तांत्रिक पद्धति के उदाहरण हैं। कालिका पुराण (अ. 59 ) में मदिरापात्र, रक्तवस्त्रा नारी, सिंहशव, लाल कमल, व्याघ्र एवं वारण (हाथी) का संगम, ऋतुभती भार्या का संगम करने पर चण्डी का ध्यान इत्यादि तांत्रिक साधना से संबंधित निर्देश मिलते हैं। बौद्ध संप्रदाय में ई. प्रथम शती से तांत्रिक साधनाओं का प्रसार हुआ। ई. 7 वीं शती से अनेक बौद्ध तंत्रों का विस्तार
156 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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