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समाधि = ध्यानावस्था में जब "स्वरूपशून्यता" (अपनी निजी प्रतीति का अभाव) आता है, तब उस आत्यंतिक एकाग्र अवस्था को समाधि (सम्यक् आधीयते मनः यत्र) कहते हैं।
संयम = एक ही विषय पर धारणा, ध्यान और समधि होना । प्रज्ञालोक = संयम में निपुणता आने पर दृश्य और द्रष्टा की विभिन्नता का बुद्धि में प्रकाश होना।
अन्तरंग और बहिरंग = आठ योगांगों के दो विभाग। यम, नियम, आसन और प्राणायाम ये चार योगांग सबीज (संप्रज्ञात या सालंबन) समाधि के "बहिरंग" हैं और धारणा, ध्यान, तथा आत्यंतिक एकाग्रता उसी समाधि की साधना में "अन्तरंग" होते हैं। परंतु वे ही निर्बीज (असंप्रज्ञात या निरालंबन) समाधि के बहिरंग होते हैं।
निरोध-परिणाम = चित्त की "व्युत्थान अवस्था" (अर्थात् क्षिप्त, मूढ और विक्षिप्त अवस्था) और “निरोध अवस्था" (आत्यंतिक सात्त्विकता का परिणाम) में जो संस्कार होते हैं, उनके कारण इन दो अवस्थाओं का एक का दूसरे से जो संबंध रहता है, उसे “निरोध-परिणाम" कहते हैं।
समाधि-परिणाम = “निरोधपरिणाम" की अवस्था में व्युत्थान-संस्कार का क्षय और निरोध संस्कार का उदय यथाक्रम होता है। इस समाधि परिणाम में चित्त के विक्षेप धर्म का सर्वथा लय हो कर, एकाग्रतारूप धर्म का उदय होता है। यह अवस्था आने पर चित्त में विक्षेपधर्म (अर्थात् सर्वार्थता या चंचलता) का उद्रेक नहीं होता । निरोध परिणाम से यह चित्त की उच्चतर अवस्था है।
एकाग्रता-परिणाम = चित्त की एकाग्रता में निपुणता आने पर शान्त (पूर्वानुभूत) और उदित (वर्तमान) वत्तिविशेष समान से हो जाते है। उनमें कोई विशेषता नहीं रहती।
परिणाम : चित्त की एकाग्रता के कारण उसके पूर्वधर्म की निवृत्ति हो कर उसमें दूसरे धर्म का उदय होना। उपरि निर्दिष्ट त्रिविध चित्त परिणामों के समान, स्थूल सूक्ष्म भूतों तथा कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों में धर्म, लक्षण और अवस्था स्वरूप तीन परिणाम होते हैं और उनके संयम में निपुणता आने पर योगी को भूत और भविष्य का ज्ञान होता है।
धर्मी = वस्तु के धर्म तीन प्रकार के होते हैं : 1) शान्त : (अपना कार्य समाप्त होने पर समाप्त) 2) उदित : (वर्तमान व्यापार करने वाले) और 3) शक्तिरूप में रहने वाले। इन त्रिविध धर्मों से जो युक्त होता है, उसे "धर्मी' कहते है; जैसे सुवर्ण धर्म है, उससे बनने वाले विविध अलंकार धर्मी होते हैं।
अपरान्त = शरीर का वियोग।
भोग = सत्त्व (प्रकृति का ही सुखरूप परिणाम) अचेतन है और पुरुष चेतन है। अतः दोनों में भिन्नता है। परंतु पुरुष को बुद्धिसंयोग के कारण जो सुखसंवेदना होती है वही भोग है।
बन्ध - पुरूष और चित्त का शरीर में संबंध। यह संबंध कर्म के कारण होता है। यह संबंध ही बन्ध है। जय = वशीकरण। महाविदेहा = देह की ममता या अहंता से विमुक्त चित्तवृत्ति। अर्थवत्त्व = त्रिगुणों की वह शक्ति जिससे भोग और अपवर्ग (मुक्ति) की प्राप्ति होती है। कायसम्पत् = रूप, लावण्य, बल और कठोरता इत्यादि शारीरिक गुण ।
विकरणभाव = इन्द्रियों का शरीरनिरपेक्ष व्यापार। इन्द्रियों की पंचविध अवस्थाओं पर संयम करने में निपुणता आने पर यह सिद्धि प्राप्त होती है।
विशोका सिद्धि = अन्तःकरण के सभी भावों पर प्रभुता तथा सर्वज्ञता। अन्तःकरणजय से यह सिद्धि प्राप्त होती है। मधुमती सिद्धि = प्रधान (मूलप्रकृति) को आत्मवश करना। इस सिद्धि की प्राप्ति होने पर योगी को देवता सहयोग देते है। स्थानी = देव देवता। कैवल्य = बुद्धि की क्रियानिवृत्ति और पुरुष की भोगनिवृत्ति। इसी को बुद्धि और पुरुष का "शुद्धिसाम्य" कहा है।
8 "कैवल्यपाद" । प्रकृत्यापूरण := पूर्वजन्म के गुणदोषों का उत्तर जन्म में संक्रमण । निर्माणचित्तानि = योगी ने स्वयं निर्माण किए हुए अनेक शरीरों में निर्मित अनेक चित्त । शुक्ल कर्म = शुभ फलदायक कर्म। कृष्ण कर्म = अशुभ फलदायक कर्म ।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 147
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