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टीका
का काल माना गया है। डॉ. शांतिकुमार नानूराम व्यास, मूल रामायण को रचना काल पाणिनिपूर्व (याने इ.पू. 9 वीं शती) मानते हैं। इसका कारण पाणिनि के शिवादि गण में रवण और ककुत्स्थ शब्द पठित हैं जिनसे "रावण" और "काकुत्स्थ" शब्द सिद्ध होते हैं। "शूर्पणखा" शब्द की सिद्धि भी पाणिनि के सूत्रानुसार होती है। “नखमुखात् संज्ञायाम्" (4-1-58) इस सूत्र के कारण "शूर्पणखी" के अलावा "शूर्पणखा" यह संज्ञावाचक शब्द सिद्ध होता है। इस प्रकार के अंतरंग प्रमाणों से पाणिनि का रामायणज्ञान स्पष्ट होता है। अतः रामायण संहिता पाणिनि पूर्व कालीन मानना ही उचित है।
टीकाग्रंथ वाल्मीकि रामायण का महत्त्व केवल काव्य या इतिहास की ही दृष्टि से नहीं माना गया। अनेक वैष्णव संप्रदायों में वह एक धर्मग्रंथ माना गया है। अतः रामायण के विद्वान उपासकों ने इस ग्रंथ पर अपनी अपनी धारणाओं के अनुसार टीकाग्रंथ लिखे है। डा. ओफ्रेक्ट की सूची के अनुसार 30 टीकाग्रंथ लिखे गये। इनमें कुछ महत्त्वपूर्ण टीकाग्रंथ :
लेखक 1) रामानुजीय
कोण्डाड रामानुज । ई. 15 वीं शती 2) सर्वार्थसार
वेंकटकृष्णाध्वरी । ई. 15 वीं शती। 3) रामायणदीपिका
वैद्यनाथ दीक्षित। 4) बृहविवरण और लघुविवरण
ईश्वर दीक्षित । ई. 15 वीं शती। 5) रामायणतत्त्व दीपिका (तीर्थीय)
महेश्वरतीर्थ । ई. 17 वीं शती। 6) रामायणभूषण
गोविंदराज (कांचीनिवासी । ई. 18 वीं शती) 7) वाल्मीकि-हदय
अहोबल आत्रेय । ई. 17 वीं शती। 8) अमृतकतक (कतक)
माधवयोगी। ई. 18 वीं शती। ) रामायणतिलक
रामवर्मा । ई. 18 वीं शती (शृंगवेरपुर के राजा) 10) रामायणशिरोमणि
वंशीधर । ई. 19 वीं शती। 11) मनोहरा
लोकमान्य चक्रवर्ती। ई. 16 वीं शती। 12) धर्माकूतम्
त्र्यंबकमखी । ई. 17 वीं शती। 13) चतुरर्थी
आज्ञानामा/ इसमें अनेक पद्यों के चार अर्थों का
प्रदर्शन किया है। इनके अतिरिक्त रामायणतात्पर्यदीपिका, रामायण-तत्त्वदर्पण इत्यादि टीका ग्रंथों में रामायण के तात्पर्य का प्रतिपादन करने का प्रयास हुआ है।
9 "महाभारत"
हिंदुस्थान के सांस्कृतिक वाङ्मय में महाभारत का महत्त्व अतुलनीय है। आदिकाव्य (रामायण) के समान महाभारत भी एक आर्ष महाकाव्य माना जाता है, तथापि यह मुख्यतः इतिहास ग्रंथ है। महाभारत के आदिपर्व में स्वयं ग्रंथकार ने "इतिहासोत्तमादस्माद् जायन्ते कविबुद्धयः ।" (अर्थात् इस उत्कृष्ट इतिहास ग्रंथ से कवियों को प्रेरणा मिलती रहती है) इस वाक्यद्वारा महाभारत का इतिहासत्व उद्घोषित किया है। भरतवंशीय कौरव और पांडवों के महायुद्ध का वर्णन इस ग्रंथ का कथा विषय है। पारंपारिक मतानुसार यह युद्ध द्वापर युग के अंत में हुआ और उसकी समाप्ति के पश्चात् युधिष्ठिर के राज्याभिषेक से युधिष्ठिर संवत् का प्रारंभ हुआ। प्रचलित मतानुसार ई.पू. 3101 वर्ष में युधिष्ठिर संवत् प्रारंभ हुआ तथापि ई. सातवीं सदी तक के शिलालेखों में इस संवत् का उल्लेख नहीं मिलता। वराहमिहिर के मतानुसार शक संवत्सर में 2526 मिला कर जो संख्या मिलती है उस वर्ष में अर्थात् ख्रिस्तपूर्व 2604 में युधिष्ठिर का राज्यारोहण माना जाता है। लोकमान्य तिलक ई.पू. 1400 में भारतीय युद्ध मानते हैं। इस प्रकार महाभारतीय युद्धकाल के संबंध में मतभेद दिखाई देते हैं। इसका कारण महाभारतीय व्यक्तियों के नाम अन्यान्य प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं जैसे अथर्ववेद के कुन्तापसूक्त में परीक्षित् के राजशासन का वर्णन "जाया पतिं विपृच्छति राष्ट्र राज्ञः परीक्षितः" "जनः स भद्रमेधति राष्ट्र राज्ञः परीक्षितः' (127-7,10) इत्यादि वचनों में मिलता है। ब्राह्मण ग्रंथों में परीक्षित्पुत्र जनमेजय, दुष्यंतपुत्र भरत और विचित्रवीर्यपुत्र धृतराष्ट्र का उल्लेख आता है। शांखयन श्रौतसूत्र में
कौरवों के पराजय का निर्देश मिलता है। पाणिनि की अष्टाध्यायी में भीष्म, युधिष्ठिर, विदुर इन नामों की व्युत्पत्ति के नियम दिये हैं। इन उल्लेखों से महाभारतीय व्यक्तियों की तथा कुरुक्षेत्र के महायुद्ध की ऐतिहासिकता सिद्ध होती है। कौरव-पांडवों के भीषण महायुद्ध की ऐतिहासिक कथा कृष्ण द्वैपायन व्यास ने रची और अपने पांच शिष्यों को वह पढ़ाई। इस प्रथम ग्रंथ का
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रथकार खण्ड /85
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