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नाटकों में दो नाटकों, (शाकुन्तल और विक्रमोर्वशीय), के कथानक महाभारत से लिए हुए हैं। भट्ट नारायण (ई. 8 वीं शती) के वेणीसंहार नाटक का विषय तो भारतीय युद्ध ही है। अभिनवगुप्त के ध्वन्यालोकलोचन में पाण्डवानन्द इत्यादि महाभारत पर आधारित नाटकों का उल्लेख हुआ है। इन के अतिरिक्त राजशेखर का बालभारत (अथवा प्रचण्डपांडव), क्षेमेन्द्र का चित्रभारत, हेमचन्द्र का निर्भयभीम, कुलशेखर का सुभद्राधनंजय, रविवर्मा का प्रद्युम्नाभ्युदय, प्रह्लाददेव का पार्थपराक्रम, विजय पाल का द्रौपदी-स्वयंवर, विश्वनाथ का सौगन्धिका-हरण, रामचन्द्र का यादवाभ्युदय, रामवर्मा का रुक्मिणी-परिणय, शेषचिन्तापणि का रुक्मिणीहरण,
शेषकृष्ण का कंसवध इत्यादि अनेक नाटक महाभारत एवं हरिवंश पर आधारित हैं। महाभारत पर आधारित काव्यग्रंथों में वाकाटकनृपति सर्वसेन (ई. 4 थी शती) कृत हरिविजय, भारविकृत किरातार्जुनीय, माघकृत शिशुपालवध, श्रीहर्षकृत नैषधचरित, वामनभट्टकृत नलाभ्युदय, अमरचन्द्रसूरिकृत बालभारत, वास्तुपालकृत नारायणानन्द लोलिंबराजकृत हरिविलास, वेंकटनाथकृत यादवाभ्युदय, राजूचडामणि दीक्षित कृत रुक्मिणीकल्याण, वासुदेवकृत नलोदय, जयदेवकृत गीतगोविंद इत्यादि ग्रंथ संस्कृत साहित्य में महत्त्वपूर्ण हैं। बहुलार्थ काव्यों में कविराजकृत राघवपाण्डवीय, हरदत्तसूरिकृत राघवनैषधीय, नलयादव-पांडव-राघवीय (ले-अज्ञात) इत्यादि काव्यों में महाभारतीय कथा वर्णित हुई है। उसी प्रकार त्रिविक्रम भट्ट (ई.10 वीं शती) कृत नलचम्पू, अनन्तभट्टकृत भारतचम्पू, शेषकृष्ण कृत पारिजात-हरणचम्पू इत्यादि ग्रंथ महाभारत तथा हरिवंश पर आधारित हैं। अर्वाचीन संस्कृत साहित्यिकों ने भी यह परंपरा यथापूर्व चालू रखी है।
महाभारत की टीकाएं 1) ज्ञानदीपिका : ले-परमहंस परिव्राजकाचार्य देवबोध या देवस्वामी। यह महाभारत की सर्व प्रथम उपलब्ध टीका आदि, सभा, भीष्म तथा उद्योग पर्व पर प्रकाशित हो चुकी है। समय ई. 12 वीं शती के पूर्व । 2) विषमश्लोकी : (या दुर्घटार्थ-प्रकाशिनी या दुर्बोदपदभंजिनी) ले-विमलबोध (ई.12 वीं शती) यह टीका अठारहों पर्वो पर उपलब्ध है। इसके कुछ अंश प्रकाशित हुए हैं। 3) भारतार्थ-प्रकाश : ले-नारायण सर्वज्ञ। ई.12 वीं शती। इन्होंने मन्वर्थवृत्ति निबंध नामक मनुस्मृति की टीका भी लिखी है। इनकी विराट तथा उद्योग पर्व की टीका प्रकाशित है। 4) भारतोपायप्रकाश : ले-चतुर्भुज मिश्र। ई.14 वीं शती। विराट पर्व की टीका प्रकाशित है।। 5) प्रक्रियामंजरी : ले-आनन्दपूर्ण (विद्यासागर) ई.15 वीं शती। आदि, सभा, भीष्म, शान्ति, तथा अनुशासन इन पांच पर्वो की टीका उपलब्ध है। ये गोवानरेश कदंबवंशी कामदेव के आश्रित थे। इन्होंने महाभारत के प्राचीन टीकाकारों में अर्जुन, जगद्धर, जर्नादन, मुनि, लक्ष्मण (टीका विषमोद्धारिणी जो सभा तथा विराट पर्व पर उपलब्ध है) विद्यानिधि भट्ट तथा सृष्टिधर इन के नामों का निर्देश किया है। 6) भारतार्थदीपिका (भारतसंग्रही दीपिका) : ले-अर्जुन मिश्र। बंगाल निवासी। ई.14 वीं शती। विराट तथा उद्योगपर्व की टीका प्रकाशित हुई हैं। इन्होंने प्राचीन टीकाकारों में देवबोध, विमलबोध, शाण्डिल्य तथा सूर्यनारायण का उल्लेख किया है। 7) निगूढार्था पद्बोधिनी : ले-नारायण। ई.14 वीं शती। 8) लक्षाभरण (लक्षालंकार) : ले-वादिराज । ई. 16 वीं शती। माध्वसंप्रदायी। विराट तथा उद्योग पर्व की टीका प्रकाशित। १) भारतभावदीप : ले-नीलकण्ठ चतुर्धर (चौधरी)। कोपरगाव (ज़िला अहमदनगर, महाराष्ट्र) के निवासी। समय ई.17 वीं
शती। काशी में लिखी गयी यह टीका संपूर्ण 18 पर्वो पर है। महाभारत की यह अंतिम एवं सर्वोकृष्ट टीका मानी जाती है। नीलकण्ठ के मन्त्ररामायण एवं मंत्रभागवत में रामायण तथा भागवत की कथा से संबंधित मंत्र ऋग्वेद से क्रमबद्ध संगृहीत हैं। इन टीकाओं के अतिरिक्त वैशम्पायन कृत शान्तिपर्व के मोक्षधर्म पर टीका उपलब्ध है।
11 महाभारत की विचारधारा शांतिपर्व एवं अनुशासनपर्व महाभारत के सैद्धान्तिक निधान माने जाते हैं। उसी प्रकार भीष्मपर्व के अन्तर्गत भगवद्गीता एक उपनिषद या तत्त्वज्ञान की प्रस्थानत्री में से एक पृथक् "प्रस्थान" माना जाता है। भारत एवं समस्त विश्व के तत्त्वचिंतकों को श्रीमद्भगवद्गीताने अभी तक प्रबोधित किया है और आगे भी वह करते रहेगी। भक्तियोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं राजयोग इन चतुर्विध योगशास्त्रों के अनुसार जीवन का मार्मिक तत्त्वदर्शन भगवद्गीता में हुआ है। सभी संप्रदायों के महनीय आचार्यों ने अपने अपने सिद्धांत की परिपुष्टि करने की दृष्टि से गीता पर टीकाएं लिखी। 12 वीं शती में महाराष्ट्र के सन्तशिरोमणि ज्ञानेश्वर की भावार्थबोधिनी या ज्ञानेश्वरी नामक मराठी छंदबोध टीका कवित्व, रसिकत्व और परतत्त्वस्पर्श की दृष्टि से सर्वोत्तम मानी जाती है। शांतिपर्व और अनुशासन पर्व में भीष्मयुधिष्ठिर संवाद में धर्म, अर्थ, नीति, अध्यात्म, व्यवहार इत्यादि विविध विषयों के विवाद्य प्रश्रों का विवेचन आने के कारण महाभारत का यह भाग प्राचीन भारतीय संस्कृति का ज्ञानकोश माना जाता है। इस समस्त ज्ञान के प्रवक्ता भीष्माचार्य, जिनके बारे में स्वयं भगवान् कृष्ण कहते हैं कि
88 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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