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आग्रह से कर्ण ने खास अर्जुन के वधार्थ सुरक्षित इन्द्र की दी हुई वासवी शक्ति का घटोत्कच पर प्रयोग किया। उसी क्षण राक्षसी माया का संवरण होकर घटोत्कच का भी नाश हो गया। घटोत्कच ने मरते-मरते अपना शरीर इतना फुलाया कि उसके मृत शरीर के नीचे आकर कौरवों की एक अक्षौहिणी सेना नष्ट हुई। घटोत्कच का वध होते ही उधर युद्ध लगातार चलता रहने से सभी को थकान के मारे भारी नींद आने लगी, तब अर्जुन की सूचना के अनुसार सभी आराम करने चले गये। कुछ समय बाद चंद्रोदय हुआ। तब दस घटिका रात्रि शेष बची थी। अनन्तर दोनों सेनाएं जग पडी और उनमें फिर से युद्ध प्रारंभ हुआ।
उस समय द्रोणाचार्य ने द्रुपद राजा, विराट राजा और द्रुपद राजा के तीन पौत्र इनका वध किया। इतने में सूर्योदय हुआ। सभी वीर अपने-अपने वाहनों पर से उतर पड़े। उन्होंने सूर्याभिमुख होकर हाथ जोड कर संध्यासमय का जप-जाप किया। 15) पंद्रहवें दिन युद्ध का आरंभ हुआ। इस समय द्रोणाचार्य ने अस्त्रों का प्रयोग करके अस्त्र न जानने वाली सेना का बहुत ही नाश किया। तब श्रीकृष्ण ने बताया "युद्ध में द्रोणाचार्य को जीतना संभव नहीं है। अगर उन पर झूठमूठ कोई यह प्रकट करे कि अश्वत्थामा चल बसा, तो वे शस्त्र को त्याग देंगे। उसी समय उनका वध हो सकेगा।" इतने में मालवदेश के राजा इंद्रवर्मा का अश्वत्थामा नामक हाथी भीम के हाथों ढेर हो गया। भीम ने श्रीकृष्ण की सूचना के अनुसार द्रोणाचार्य पर जोर से चिल्लाकर कहा कि "अश्वत्थामा मर गया" इसको असंभव मान कर द्रोणाचार्य ने भीम की बात पर ध्यान ही नहीं दिया
ओर वे अपना युद्ध चलाते रह। उन्होंने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया और लाखों सैनिकों का संहार किया। वह देखकर बहुत से ऋषि-मुनि गुरुद्रोण के पास पहुंचे और बताने लगें, "आप अधर्म से युद्ध कर रहे हैं। आपकी मृत्यु की वेला समीप आ पहुंची है। अब शस्त्रों को त्यागने का समय आ गया है। फिर ऐसा नीच कर्म करने का कभी न सोचें।
ऋषियों का वह कथन, भीम का वह प्रकटन, और अपने मृत्यु के लिए ही जन्म पाए धृष्टद्युम्न को सम्मुख उपस्थित देख कर द्रोणाचार्य को बहुत ही दुःख हुआ। इन बातों में से भीम की घोषणा का तथ्यांश जानने के लिए उन्होंने उस संबंध में धर्मराज से पूछा। धर्मराज ने श्रीकृष्ण के आग्रह के कारण और, "झूट बोला जाए तो पाप लगता है, न बोला जाए तो जय-लाभ नहीं," यह धर्मसंकट जान कर द्रोणाचार्य के पूछने पर जोर से कहा “अश्वत्थामा चल बसा" और "हाथी" एकदम धीमी आवाज में कहा। उतना झूठ बताने के कारण धर्मराज का रथ जो पहले चार अंगुल धरती से अधर-अधर घूमता था, वह जमीन पर आ गया।
धर्मराजा के कहने पर कि "अश्वत्थामा चल बसा" द्रोणाचार्य को तनिक भी शंका नहीं रही। उन्होंने दुःख वश अपने शस्त्र को त्याग दिया। प्राणायाम करके समाधि लगाई और परमात्मा का ध्यान करते रहे। इतने में धृष्टद्युम्न ने झट आकर उनका सिर तलवार से अलग कर दिया।
द्रोणाचार्य के वध की वार्ता सुनकर अश्वत्थामा ने पांडवों की सेना पर "नारायणास्त्र" का प्रयोग किया। तब श्रीकृष्ण ने बताया "अपने-अपने वाहनों पर से नीचे उतर जाओ, हाथ के शस्त्रों को त्याग दो, तभी यह अस्त्र शांत हो जायेगा। इसका
और कोई उपाय नहीं है।" "आदेशानुसार सभी ने शस्त्र त्याग किया। लेकिन भीम डटा रहा। वह अस्त्र तब भीम पर जा गिरा। तब श्रीकृष्ण ने उसे रथ के नीचे ढकेल दिया। तब वह अस्त्र अपने आप शांत हुआ। उसके बाद कौरव-पांडवों की सेनाएं अपने-अपने शिबिर चली गयीं। इस तरह भारतीय युद्ध के पंद्रह दिन पूरे हुए।
8 कर्ण पर्व
द्रोणाचार्य की मृत्यु पर सभी कौरव शोक करते है। बाद में सब की सम्मति से दुर्योधन ने सेनापति के पद पर कर्ण की नियुक्ति की। प्रातःकाल कौरव-सेना की, मकर-व्यूह में रचना करके कर्ण युद्ध के लिए प्रस्तुत हुआ। इधर पांडवों ने अपनी सेना का अर्धचंद्रकार व्यूह बना लिया। 16) सोलहवे दिन भीमसेन हाथी पर सवार होकर जब युद्ध में घुस पडा तब कुलूत देश का राजा क्षेमधूर्ति युद्ध के लिए सम्मुख खडा रहा। वह भी हाथी पर ही सवार था। उन दोनों का युद्ध होते-होते आखिर भीम ने अपनी गदा से क्षेमधूर्ति और उसके हाथी का नाश किया। अर्जुन के पुत्र श्रुतकनि अभिसार देश के राजा चित्रसेन का और धर्मराज के पुत्र प्रतिविंध्य ने चित्रराजा का वध किया। तब अश्वत्थामा भीम पर दौडा। भीम का और उसका बहुत समय तक युद्ध होने के बाद वे दोनो एक दुसरे के रथो मे मूर्च्छित हो गिरे। तब उनके सारथियों ने उनके रथों को युद्धक्षेत्र से बाहर कर दिया।
कुछ देर बाद होश में आकर अश्वत्थामा दक्षिण दिशा की ओर जहां अर्जुन संशप्तकों का नाश कर रहा था, उसे युद्ध के लिए ललकारने लगा। तब श्रीकृष्ण ने रथ को उधर मोड दिया। अर्जुन और अश्वत्थामा एक दूसरे पर तीरों की वृष्टि कर रहे थे। तब अर्जुन ने निशाना लगा कर उसके घोडों के लगाम तोड डाले। उससे घोडे चौंक कर उसके रथ को कर्ण की सेना की तरफ ले गये। इधर अर्जुन फिर से संशप्तकों के संहार में लग गया। इतने में उत्तर दिशा की ओर से पांडवों की
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड/111
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