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कारण उदयनाचार्य कृत अपोहनाम-प्रकार द्वारा उन्होंने, कल्यागतवाद
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"न्यायवार्तिकतात्पर्य-टीका-परिशुद्धि" लिखकर वाचस्पति मिश्र की तात्पर्य-टीका के विरोध में बौद्ध पंडितों द्वारा, प्रस्तुत युक्तियों का खण्डन किया। 9 वीं शती में बौद्ध दार्शनिक कल्याणरक्षित ने अपनी ईश्वर-भंगकारिका में ईश्वरास्तित्व विरोधी अनेक युक्तिवाद प्रस्तुत किये थे। उन सब का खंडन उदयनाचार्य ने "कुसुमांजलि'' ग्रंथ में किया। अपने आत्मतत्वविवेक द्वारा उन्होंने, कल्याणरक्षित कृत अन्यापोहविचारकारिका, और श्रुतिपरीक्षा तथा धर्मोत्तराचार्य (ई. 9 वीं शती) कृत अपोहनाम-प्रकरण एवं क्षणभंगसिद्धि इन ग्रन्थों में प्रतिपादित नास्तिक विचारों का खंडन किया। इसी कारण उदयनाचार्य का आत्मतत्त्वविवेक ग्रंथ "बौद्धधिक्कार" इस वैशिष्ट्यपूर्ण नाम से प्रसिद्ध है। उदयनाचार्य द्वारा बौद्धमतों का पूर्णतया निर्मूलन होने के कारण, न्यायशास्त्र के विकास में सदियों से चली नैयायिक और बौद्धों की खंडन-मण्डन की परंपरा कुण्ठित हुई।
खण्डन-मण्डनात्मक ग्रन्थ लेखन की परंपरा अन्य क्षेत्रों में भी दिखाई देती है। प्राचीन काल में दक्षिण भारत में शैव-वैष्णवों का मतविरोध प्रसिद्ध है। आधुनिक काल में भी वह वाङ्मयीन क्षेत्र में जारी है। ई. 14 वीं शती में हुक्केरी (कर्नाटक) के बसव नायक ने शिवतत्त्व-रत्नाकर नामक ग्रंथ लिखा। संगांतगंगाधरकार नंजराज (मैसूर निवासी) ने शैव-तत्त्वज्ञान विषयक 18 ग्रन्थ लिखे। त्यागराज मखी (राजशास्त्रिगल) ने शिवाद्वैत विषयक न्यायेन्दुशेखर की रचना की। इन ग्रंथों में प्रतिपादित शैवमत के खंडनार्थ "रामनाडनिवासी वेंकटेश ने विष्णुतत्त्वनिर्णय (अपर नाम त्रिंशतश्लोकी) ग्रंथ लिख कर वैष्णवमत का मंडन किया। उसका खंडन करने के हेतु अप्पय्य दीक्षित (18 वीं शती) ने विमत-भंजनम् ग्रंथ लिखा, जिसमें उन्होनें त्यागराजमखी के शिवाद्वैत मत का समर्थन किया। किसी रामशास्त्री ने नवकोटी नामक ग्रंथ में शैवसिद्धान्त का मंडन किया, उसका खंडन अण्णंगराचार्य शेष ने “दशकोटी” नामक ग्रंथ द्वारा हिया। किसी महादेव पंडित ने प्रपंचामृतसार नामक ग्रंथ में रामानुज एवं माधव मत का खंडन करते हुए अद्वैत मत का प्रतिपादन किया। कंदाड अप्पकोंडाचार्य ने अद्वैतविरोधी तथा वैष्णव विशिष्टाद्वैतवादी साठ ग्रंथ लिखे। चम्पकेश्वर ने शांकर और माध्व मत के विरोधी “वादार्थमाला" नामक ग्रंथ की रचना की। वेदान्तदेशिक कृत शतदूषणी के खंडनार्थ आन्दान श्रीनिवास ने “सहस्रकिरणी' की रचना की। प्रस्थानत्रयी के सुप्रसिद्ध भाष्यकार आचार्यों के भाष्य ग्रन्थों में यह खण्डन-मण्डन की प्रणाली दिखाई देती है, जिसका अनुकरण उपरिनिर्दिष्ट शैव-वैष्णवों के ग्रंथों में हुआ है। इस प्रणाली का मूल न्यायशास्त्र के इतिहास में मिलता है। अस्तु!!
अक्षपाद गौतम (या गोतम) के न्यायसूत्र पर ई. 17 वीं शती में कुछ उल्लेखनीय टीका ग्रंथ लिखे गये :लेखक
टीकाग्रंथ रामचन्द्र
न्यायरहस्यम्। विश्वनाथ
न्यायसूत्रवृत्ति । गोविन्द शर्मा
न्यायसंक्षेप। जयराम
न्यायसिद्धान्तमाला। न्यायदर्शन में नव्यन्याय की प्रणाली का प्रारंभ होने पर लिखी जाने के कारण इन टीकाओं का विशेष महत्त्व माना जाता है।
2 "नव्यन्याय"
ई. 12 वीं शताब्दी तक सूत्र-भाष्य पद्धति से न्यायशास्त्र का अध्ययन करने की परंपरा चलती रही। परंतु 12 वीं शताब्दी के महान् नैयायिक गंगोशोपाध्याय के तत्त्वचिन्तामणि नामक चतुःखंडात्मक महनीय ग्रंथ के कारण यह गतानुगतिक पद्धति समाप्त सी हो गयी। तत्त्वचिन्तामणि में, प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द इन न्यायशास्त्रोक्त चार प्रमाणों पर प्रत्येकशः एक खंड लिखा गया है। गौतम के न्यायसूत्र से लेकर आत्मा, पुनर्जन्म, मोक्ष जैसे आध्यात्मिक विषयों की विस्तारपूर्वक चर्चा करने की जो पद्धति न्यायशास्त्र मे रुढ हुई थी, वह गंगेशोपाध्याय के ग्रंथ के कारण बंद हुई। आध्यात्मिकशास्त्र से अब न्यायशास्त्र पृथक् सा हो गया और "नव्यन्याय' का उदय हुआ। तत्त्वचिन्तामणि का प्रचार बंगाल, तमिलनाडू, महाराष्ट्र, काश्मीर जैसे दूरवर्ती प्रदेशों में भी हआ। गंगेश के पत्र वर्धमान ने तत्त्वचिन्तामणि पर प्रकाश नामक टीका लिखी। 13 वीं शती में पक्षधर मिश्र ने तत्त्वचिन्तामणि पर आलोक नामक टीका लिखी। 14 वीं शती में नवद्वीप (बंगाल) के श्रेष्ठ नैयायिक रधुनाथ शिरोमणि ने तत्त्वचिन्तामणि पर दीधिति नामक वैशिष्ट्यपूर्ण टीका लिखी, जिसमें उन्होंने अपने निजी अभिनव सिद्धान्तों की स्थापना की है। यह टीका मुख्यतः अनुमानखंड और शब्दखंड पर ही है। रधुनाथ शिरोमणि के श्रेष्ठ शिष्य मथुरानाथ तर्कवागीश ने तत्त्वचिन्तामणि के चारों खंडों पर और उसकी दीधिति टीका एवं आलोक टीका पर गूढाप्रकाशिनी-रहस्य नामक टीका लिखी। ई. 17 वीं शती में जगदीश भट्टाचार्य ने अनुमान खंड की दीधिति पर "जागदीशी" नामक सविस्तर टीका लिखी। इसके अतिरिक्त तर्कामृत और शब्दशक्तिप्रकाशिका नामक दो श्रेष्ठ ग्रंथ जगदीश भट्टाचार्य ने लिखे हैं। नैयायिकों की इस महनीय परंपरा में गदाधर भट्टाचार्य (ई. 17 वीं शती) अंतिम श्रेष्ठ पंडित माने जाते हैं। इनकी गादाधरी (दीधिति की टीका) तथा मूल गादाधरी (आत्मतत्त्वविवेक
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड /131
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