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यह सुनकर पाण्डवों को साथ लेकर राजा विराट ने उस पर आक्रमण किया। युद्ध में भीम ने राजा सुशर्मा को जिन्दा पकडकर लाया। विराट ने उसको जीवनदान दिया। तब वह निकल गया। उस रात पाण्डव वहीं पर रहे।
दूसरे दिन उत्तर की गौएं कौरव सेना ले जा रही थी। यह वार्ता विराट पुत्र उत्तर को ज्ञात होने से वह कहने लगा कि, “क्या करें? यदि मुझे अच्छा सारथी मिले तो मै कौरवों से युद्ध कर उनसे अपनी गौएं छुडा कर लाऊंगा।" तब द्रौपदीकी
सूचनानुसार बृहन्नलाको याने अर्जुन को सारथी बना कर उत्तर रणभूमि में आया; किन्तु कौरवों की महान सेना देखते ही वह घबरा कर वापस भागने लगा। अर्जुन ने उसे धीरज दे कर शमी वृक्ष पर रखे हुये अपने शस्त्र निकालने को कहा। उसने
अपने स्वयंका परिचय भी उत्तर को दिया। तब उत्तर को धीरज आया और वही अर्जुन का सारथी बन गया। अर्जुन रथ में बैठे कौरवों के साथ युद्ध करने के लिये तैयार हुआ।
__अर्जुन को देख कर दुर्योधन ने भीष्म से पूछा कि, “क्या पाण्डवों के तेरह वर्ष पूर्ण हुए? हमारी राय यह है कि उनके तेरह वर्ष अभी पूर्ण नहीं हुए हैं और इस अवस्था में अर्जुन के प्रकट होने के कारण पाण्डवों को पुनः बारह वर्ष वनवास करना चाहिये।" भीष्म ने कहा कि, "पाण्डव कभी भी अधर्म नहीं करेंगे। उन्होंने प्रतिज्ञा के अनुसार अपने तेरह वर्ष पूर्ण किये हैं। उनका आधा राज्य वापस देना यही इस परिस्थिति में उचित होगा।" किन्तु दुर्योधन को यह बात नहीं जंची। अन्त में अर्जुन ने कौरवों को परास्त कर गौएं मुक्त कर दी। अपने शस्त्र फिर से शमी वृक्ष के कोटर में रख कर अर्जुन और उत्तर नगर वापिस लौटे। उनके पहले ही विराट और पाण्डव वहां आये थे। पाण्डव और द्रौपदी का परिचय उत्तर के द्वारा होने पर राजा विराट ने अपनी पुत्री उत्तरा अर्जुन को देने की इच्छा व्यक्त की परन्तु अर्जुन के कहने पर अभिमन्यु से उसका विवाह विराट राजा ने बड़े ठाटमाट से किया।
5 उद्योगपर्व अभिमन्यु का विवाह होने के उपरान्त एक दिन, सभा बैठे हुए श्रीकृष्ण ने कहा, "पाण्डव अपनी प्रतिज्ञा का पालन कर तेरह साल पूरे कर चुके हैं। अब उन्हें आधा राज्य प्राप्त होना उचित होगा। परन्तु कौरव अनायास राज्य देंगे ऐसा नहीं लगता। अतः उनका मन जानने के लिए दूत भेजना चाहिये।" श्रीकृष्ण की यह बात मान्य की गई। द्रुपदराजा ने अपना पुरोहित कौरवों की ओर भेजा। श्रीकृष्ण द्वारका गये। पाण्डवों ने सब राजाओं की ओर युद्ध की सहायता करने के लिये दूत भेजे।
श्रीकृष्ण के द्वारका पहुंचने के उपरान्त दुर्योधन सहायता मांगने के लिये उनके यहां गया। श्रीकृष्ण उस समय सो रहे थे। दुर्योधन उनकी तकिया के पास जा बैठा। उसी समय उसी कार्य के लिये अर्जुन भी वहां आया और श्रीकृष्ण के पैरों
के पास बैठा। इस स्थिति में श्रीकृष्ण जी जाग उठे। उन्होंने अर्जुन की ओर प्रथम देखा। दुर्योधन ने कहा, "श्रीकृष्ण, हम दोनों तुम्हारी दृष्टि में समसमान है और मै पहले आया हूं, इसलिये तुम मुझे सहायता दो" श्रीकृष्ण ने उससे कहा, "यह सत्य
है कि तुम पहले आये हो परन्तु मैने प्रथम अर्जुन को देखा है और तुमसे वह कनिष्ठ होने के कारण उसका हठ पहले पूरा करना होगा। सो मैं निःशस्त्र होकर एक पक्ष में रहूंगा और मेरी दस कोटि सेना दूसरे पक्ष में रहेगी। इसमें से जो अर्जुन पसंद करे वह ले।" अर्जुन ने श्रीकृष्ण को ही मांग लिया। सेना का सहाय मिलने से दुर्योधन प्रसन्न हुआ।
दुर्योधन के जाने के उपरान्त श्रीकृष्ण ने अर्जुन से पूछा, “तुमने सेना को अस्वीकृत कर मेरा स्वीकार किस कारण किया?" अर्जुन ने उत्तर दिया, "जहाँ आप हैं वहीं विजयश्री है, दूसरा कारण यह कि बहुत दिनों से मेरे मन में यह विचार भी रहा है कि आप मेरे सारथी बनें। आज मेरी यह इच्छा पूर्ण होगी। इसी दृष्टि से मैने आपका स्वीकार किया।" इसप्रकार भावी युद्ध में श्रीकृष्ण ने अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार किया।
राजा शल्य जब पाण्डवों की ओर आ रहा था तो रास्ते में दुर्योधन उसकी अच्छी व्यवस्था रख कर उसे अपनी ओर वश किया। सारी सेना दुर्योधन के साथ भेज कर अकेला शल्य पाण्डवों से मिलने के लिये आया। तब यह जान कर कि शल्यहि कर्ण का सारथी होगा, धर्मराज ने शल्यको कर्ण का तेजोभंग करने की सूचना दी। उसे मान्य कर शल्य कौरवों की ओर चला गया।
द्रुपदराजा का पुरोहित कौरवों की ओर गया। उसने निवेदन किया कि “पाण्डवों को आधा राज्य देना योग्य है। और ऐसा न किया गया तो कौरवों का युद्ध में नाश होगा।" भीष्म ने इसकी पुष्टि की परन्तु कर्ण ने कहा, "पाण्डवों को यदि
और बारह वर्ष वनवास करने की बात पसन्द नहीं तो युद्ध के लिये उन्हें सिद्ध होना पडेगा।" यह मतभेद देख कर धृतराष्ट्र ने उस पुरोहित को आदरसत्कार सहित बिदा किया और संजय को पाण्डवों के पास भेज दिया। उसने धृतराष्ट्र का सन्देश
सुनाया। "पाण्डवों, तुम सब भाई धार्मिक हो अतः तुम्हें युद्ध समान भयंकर कृत्य कर के अपने कुल का नाश करने के बदले सर्व संग परित्याग कर द्वारकानगरी में भीख मांगकर अपना उदरनिर्वाह करना योग्य है। यह राज्यतृष्णा आपकी धार्मिकता का नाश करेगी।
धर्मराज कहने लगे "आपस में युद्ध करना मुझे भी सम्मत नहीं है परन्तु प्रतिज्ञा के अनुसार तेरह साल पूरे होने के बाद भी कौरव हमारा आधा राज्य देने के लिये तैयार नहीं है। इस लिये यदि युद्ध होगा तो उसका दोष धृतराष्ट्र को होगा
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 101
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