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। पाणिनीय शब्दानश्चय के लिए भी प्रमाणभव बहीन अपि अनर्थकेन
इस
वासन न केवल वैदिक एवं
के मता
सस्कृति के विविध अंगों
का स्वोपज्ञ भाष्य होने के उल्लेख मिलते हैं, परंतु भाष्य ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। जैनेन्द्र व्याकरण पर आधारित अभयनन्दीकृत महावृत्ति (12000 श्लोक परिमाण) प्रभाचंद्र (वि. 12 वीं शती) कृत शब्दाम्भोज-भास्करन्यास (16000 श्लोक परिमाण), महाचंद्रकृत "लघुजैनेन्द्र" (अभयनन्दीकृत महावृत्ति पर आधारित), गुणनन्दीकृत शब्दार्णव (जैनेन्द्र व्याकरण का परिवर्तित सूत्रपाठ), श्रुतकीर्तिकृत पंचवस्तुटीका, सोमदेवकृत शब्दार्णवचन्द्रिका, गुणनन्दीकृत शब्दार्णवप्रक्रिया, रत्नर्षिकृत (ई. 18 वीं शती) भगवद्वाग्वादिनी टीका, मेघविजयकृत (ई. 18 वीं शती) जैनेन्द्रव्याकरण वृत्ति, विजय विमलकृत अनिट्कारिकावचूरि, वंशीधरकृत जैनेन्द्रप्रक्रिया, नेमिचन्द्रकृत प्रक्रियावतार और राजकुमारकृत जैनेन्द्रलघुवृत्ति इत्यादि अनेक विवरणात्मक व्याकरणग्रंथों की रचना हुई है।
___ "शाकटायन व्याकरण" पाणिनी प्रभृति प्राचीन विद्वानों ने जिस शाकटायन का नामोल्लेख किया उनका व्याकरण आज उपलब्ध नहीं हैं परंतु आज जो शाकटायन व्याकरण उपलब्ध है, उसके निर्माता का वास्तविक नाम है पाल्यकीर्ति और उनके व्याकरण का नाम है शब्दानुशासन । इस तथाकथित शाकटायन व्याकरण में, पाणिनि की तरह विधानक्रम से सूत्ररचना की गई है। इस पर कातंत्र व्याकरण का प्रचुर प्रभाव है। ग्रंथ 4 अध्यायों तथा 16 पादों में विभक्त है। तात्पर्य यह है कि पाणिनि से पूर्वकालीन सांगोपांग कोई भी व्याकरण ग्रंथ उपलब्ध न होने के कारण और पाणिनि का ग्रंथ सर्वांग परिपूर्ण होने के कारण, वही संस्कृत व्याकरण शास्त्र का आद्य
और सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ माना जाता है। समस्त संसार में किसी भी राष्ट्र के वाङ्मय में, इस प्रकार का और इस योग्यता का ग्रंथ अभी तक निर्माण नहीं हुआ। पाणिनीय शब्दानुशासन न केवल वैदिक एवं लौकिक शब्दों के यथार्थज्ञान के लिए अपि तु प्राचीन भारतीय संस्कृति के विविध अंगों के परिचय के लिए भी प्रमाणभूत महान आकर ग्रंथ है। व्याकरण भाष्यकार पतंजलि के मतानुसार पाणिनीय सूत्रों में एक भी वर्ण अनर्थक नहीं है ("तत्राशक्यं वर्णेन अपि अनर्थकेन भवितुम्) भारत में व्याकरण शास्त्र की प्रवृत्ति वैदिक शब्दों के अर्थनिर्धारण के निमित्त हुई। इस कार्य का प्रारंभ प्रातिशाख्यकारों द्वारा हुआ। प्रातिशाख्यों में वर्णसंधि आदि शब्दशास्त्र से संबंधित विषयों का विवेचन होने के कारण, व्यवहार में उन्हें "वैदिक व्याकरण" कहा जाता है। इस समय जो प्रातिशाख्य ग्रंथ उपलब्ध या ज्ञात हैं उनके नाम हैं : 1) ऋप्रातिशाख्य, 2) आश्वलायन प्रातिशाख्य, 3) बाष्कल प्रातिशाख्य, 4) शांखायन प्रा. 5) वाजसनेय प्रा. 6) तैत्तिरीय प्रा. 7) मैत्रायणीय प्रा. 8) चारायणीय प्रा. 9) साम प्रा. और अर्थव प्रा. इनमें से ऋप्रातिशाख्य निश्चय ही पाणिनि से प्राचीन है। प्रातिशाख्यों के अतिरिक्त, तत्सदृश जो अन्य वैदिक व्याकरण के ग्रंथ उपलब्ध हैं उनके नाम हैं : 1) ऋक्तन्त्र - शाकटायन या औदवजिद्वारा प्रणीत, 2) लघुऋक्तन्त्र 3) अथर्वचतुरध्यायी - शौनक अथवा कौत्सप्रणीत, 4) प्रतिज्ञासूत्र - कात्यायनकृत और 5) भाषिकसूत्र - कात्यायनकृत। इन वैदिक व्याकरण विषयक ग्रंथों में, अग्निवेश्य, इन्द्र, काश्यप, जातूकर्ण्य, भरद्वाज, शाकल्य, हारीत इत्यादि 50 से अधिक आचार्यों का नाम-निर्देश मिलता है, परंतु उनके ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। ये सारे नाम वैदिक व्याकरण की मात्र प्राचीनता के प्रमाण कहे जा सकते है।
व अष्टाध्यायी पाणिनीय शब्दानुशासन आठ अध्यायों में विभाजित होने के कारण "अष्टाध्यायी" नाम से सुप्रसिद्ध है। इन आठ अध्यायों का प्रत्येकशः चार पादों में विभाजन किया है। पादों की सूत्रसंख्या समान नहीं है। पाणिनीय सूत्रों के संज्ञा, परिभाषा, विधि, नियम और अतिदेश नामक पांच प्रकार होते हैं। अष्टाध्यायी के प्रथम व द्वितीय अध्याय में संज्ञा और परिभाषा के सूत्र हैं। तृतीय, चतुर्थ और पंचम अध्यायों में कृत् और तद्धित प्रत्ययों का निरूपण है। छठे अध्याय में द्वित्व, संप्रसारण, संधि, स्वर, आगम, लोप, दीर्घत्व आदि के सूत्र है। सातवें अध्याय में "अंगाधिकार" प्रकरण आया है। इस में प्रत्यय के कारण मूलशब्दों में तथा शब्द के कारण प्रत्ययों में संभाव्य परिवर्तन का विवरण किया है। और आठवें अंतिम अध्याय में द्वित्व, प्लुत, णत्व, षत्व इत्यादि का विवरण है। अष्टाध्यायी के, प्राच्य, उदीच्य और दाक्षिणात्य नामक तीन पाठ विद्वानों ने माने हैं, तथापि ढाई हजार वर्षों की प्रदीर्घ कालावधि में इस महनीय ग्रंथ का पाठ प्रायः अविकृत रहा है। अष्टाध्यायी के सूत्रों का अर्थ विशद करनेवली एक "वृत्ति" सूत्रों के साथ ही निर्माण हुई थी, अतः पतंजलि ने अष्टाध्यायी को ही "वृत्तिसूत्र नाम दिया है।"
वृत्तियां "सूचनात् सूत्रम्” इस वचन के अनुसार अल्पाक्षर सूत्रों का अभिप्राय विशद करनेवाले अनेक वृत्तिग्रंथ निर्माण हुए, जिनमें सूत्रों का पदच्छेद वाक्याध्याहार (पूर्व प्रकरणस्थ पदों की अनुवृत्ति एवं सूत्रबाह्य पद का योग) उदाहरण, प्रत्युदाहरण, पूर्वपक्ष और समाधान किया जाता है। इस प्रकार के वृत्तिग्रंथों की संख्या अल्प नहीं थी, परंतु उनमें जयादित्य और वामन (ई. 8 वीं शती) विरचित "काशिका" नामक वृत्ति अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें बहुत से सूत्रों की वृत्तियां और उदाहरण, प्राचीन वृत्तियों से संग्रहित हैं। काशिकावृत्ति की सबसे प्राचीन व्याख्या जिनेन्द्रबुद्धि-विरचित काशिका-विवरणपंजिका है, जो "न्यास" नाम से व्याकरण वाङ्मय में प्रसिद्ध है। ई. 14 वीं शती में शरणदेव ने अष्टाध्यायीपर "दुर्घट" नामक वृत्ति लिखी है। संस्कृत भाषा के जो अनोखे शब्द व्याकरण से साधारणतया सिद्ध नहीं होते, उन बौद्ध ग्रंथों के शब्दों का साधुत्व सिद्ध करने का प्रयास,
48 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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