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(आ) चार अक्षरी गणों के आवर्तनी समवृत्तों में, वियद्गंगा, वारुणी, देवप्रिया, मंदाकिनी और सुरनिम्नगा इन पांच वृत्तों का अन्तर्भाव होता है।
(इ) त्र्यक्षरी गणों के अनावर्तनी समवृत्तों में इंद्रवंशा, शालिनी, द्रुतविलंबित, प्रियंवदा, स्वागता, रथोद्धता, यूथिका, विभावरी, भद्रिका, वियोगिनी, हरिणीप्लुता, वसंततिलका, मालिनी, वैश्वदेवी शिखरिणी, हरिणी, मंदाक्रांता, शार्दूलविक्रीडित और स्रग्धरा इन 19 वृत्तों का अन्तर्भाव होता है।
(उ) अर्धससय तथा विषय वृत्तों में, वियोगिनी, हरिणीप्लुता, माल्यभारा, पुष्पिताग्रा, और अपरवक्त इन का अन्तर्भाव होता है।
संगीतप्रेमी विद्वानों का एक ऐसा वर्ग है जो छंदोबद्ध, वृत्तबद्ध अथवा जातिबद्ध पद्य रचना का सप्तस्वरों से दृढ संबंध मानते हैं। संगीत का विवेचन करने वाले नाट्यशास्त्रकार भरत, अभिनवगुप्त इत्यादि ग्रंथकार अपने ग्रंथों में छंदों का भी विवेचन यथावसर करते हैं। अतः वेदांग भूत छंदःशास्त्र की ही एक शाखा मानकर संगीत शास्त्र विषयक वाङ्मय का परामर्श इसी अध्याय में करना हम उचित मानते हैं।
15. संगीत शास्त्र भारत की सभी विद्या, कला, शास्त्रों का मूल सर्वज्ञानमय वेदों में ही है। अतः संगीत का मूल भी वेदों में ही है, यह तथ्य अनुक्तसिद्ध है। चार वेदों में से सामवेद गानात्मक ही है। “गीतिषु सामाख्या'' अर्थात गानात्मक वेदमंत्रों को साम संज्ञा दी जाती है। गानात्मकता ही साम का लक्षण है। एवं भारतीय संगीतशास्त्र का आरंभ वैदिक काल में ही मानना उचित होगा। यजुर्वेद में “अगायन् देवाः। स देवान् गायत उपवर्तता तस्माद् गायन्तं स्त्रियः कामयन्ते। कामुका एनं स्त्रियो भवन्तिा।” (9-1)
"उदकुम्भानधि निधाय परिनृत्यन्ति। पथो निघ्नतीरिदं मधु गायन्त्यो मधु वै देवानां परममन्नाद्यम्।" (7-5) इत्यादि अनेक मन्त्रों में गायन तथा स्त्रियों के नर्तन का उल्लेख मिलता है। गायक पुरुष स्त्रियों को प्रिय होता है यह ऋषियों का मत भी इस मंत्र में व्यक्त हुआ है।
तैत्तिरीय ब्राम्हण में "अप वा एतस्मात् श्री राष्ट्र क्रामति । योऽश्वमेघेन यजते। ब्राह्मणौ वीणागाधिनौ गायतः। श्रियो वा एतद्पं यद् वीणा। श्रियमेवास्मिन् तद्धतः। यदा खलु वै पुरुषः श्रियमश्नुते वीणास्मे वाद्यते।"
इस मंत्र से पता चलता है कि आनंद के अवसर पर वीणावादन उस काल में भी होता था। आपस्तंब गृहयसूत्र में बताया है कि गर्भवती के सीमन्तोन्नयन संस्कार के समय विशिष्ट स्वरों में वीणावादन करना चाहिए।
सामगान वैदिक यज्ञ विधि में 'उद्गाता' नामक ऋत्विक् को अपने मंत्रों का गायन करना पड़ता है। अतः मंत्रों की गानविधि का विवेचन कुछ ग्रंथों में किया गया है। उन ग्रंथों में वर्णाग्रेडन, वर्णदीर्धीकरण, वर्णान्तरप्रक्षेपण, इत्यादि विषयों के संगीत शास्त्रीय लक्षण बताए हैं। सामगान की पद्धति लौकिक संगीत शास्त्र की पद्धति से विभिन्न सी है तथापि षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम पंचम, धैवत और निषाद, इन संगीत शास्त्रोक्त सात स्वरों का प्रयोग सामगान के विधि में होता है। परंतु उसमें केवल यही
भेद है कि सामगान की पद्धति में उन प्रसिद्ध स्वरों के लिए 1.- क्रुष्ट, 2.- प्रथम, 3.- तृतीय, 4.- चतुर्थ, 5.- मन्द्र और 6.- अतिस्वर्य यह संज्ञा दी जाती है। संज्ञाभेद के कारण मूलभूत स्वरों में भिन्नता नहीं है। सामवेदीय छांदोग्य उपनिषद में हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार और निधान नामक सामगान के पांच प्रकार बताए हैं। उनमें से प्रस्ताव, उद्गीथ और प्रतिहार के स्वरों का स्थायीभाव तथा हृदयस्थ अन्य भावों से संबंध होता है। निधान का संबंध तानों से आता है।
शतपथ ब्राह्मण में कहा है कि "नासाम यज्ञो भवति। न वाऽहिंकृत्य साम गीयते।" अर्थात् सामगान के बिना यज्ञ होता नहीं और हिंकृति के बिना सामगान होता नहीं। ऋचाओं का सामगान में रूपान्तर करते समय हा, उ, हा ओ, इ, ओ, हो, वा, औ हा इ, ओवा इ, इस प्रकार “स्तोभ' नामक अक्षरों का उच्चारण किया जाता है। स्तोभ और क्रुष्ट आदि स्वरों की सहायता से ही गायत्र्यादि छंदोबद्ध ऋचाओं का सामगान में रूपान्तर होता है।
वेदों के उदात्त, अनुदात्त और स्वरित इन तीन स्वरों का अंकन अन्यान्य प्रकारों से होता है। सामवेद में इन स्वरों का निर्देश 1,2,3 इन अंकों से करते हैं। उसी प्रकार संगीत के स्वरों का निर्देश 1 से 7 आकडों से करते हैं। अधिकांश मंत्रों में प्रारंभिक पांच ही स्वरों का प्रयोग होता है।
ऋचाओं का सामगान में परिवर्तन करने के लिए विकार, विश्लेषण, विकर्षण, अभ्यास, विराम और स्तोभ नामक छह उपायों का उपयोग किया जाता है। इन उपायों के सहित, स्वरमंडलों में गाए जाने वाले मंत्रों को ही साम संज्ञा प्राप्त होती है। सामगान के विविध प्रकारों का वामदेव्य, मधुच्छान्दस, बृहद्रथन्तर, श्वेत, नौधस, यज्ञयतीय, इलांग, सेतु, पुरुषगति इत्यादि नामों से निर्देश होता है। प्रायः जिन ऋषियों ने ये प्रकार निर्माण किए, उन्हीं के नाम उनके प्रकारों को दिए है।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 59
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