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बताई हैं। सभी श्रुतियाँ समप्रमाण मान कर ही भरत ने 22 श्रुतियों का विभाजन सप्तस्वरों में किया है। षड्ज ग्राम का पंचम स्वर इन दोनों के ध्वनियों में मिलने वाले अंतर को एक श्रुति का माप मान कर भरत मुनि ने 22 श्रुतियों का सात स्वरों में विभाजन किया है। भरत ने माना हुआ श्रुति का प्रमाण 14 वीं शताब्दी तक याने लगभग एक हजार वर्षों तक अधिकृत माना जाता रहा। निःशंक शाङ्गदेव कृत संगीतरत्नाकर नामक 13 वीं शताब्दी का ग्रंथ, संगीत शास्त्र विषयक ग्रन्थों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस ग्रंथ में भी भरत मुनि का श्रुति-मान प्रमाणभूत माना गया है।
भरतोत्तर संगीतज्ञ ____ 15 वीं शताब्दी में लोचन पंडित ने रागतरंगिणी नामक ग्रन्थ लिखा। संगीतरत्नाकरकालीन स्वरों में तथा रागतरंगिणी कालीन स्वरों में, कालप्रभावानुसार लोकाभिरुचि में होने वाले परिवर्तन के कारण, अंतर निर्माण हो चुका था। लोचन पंडित ने वीणापर पड़दे बांध कर, तत्कालीन स्वरों की विशेषता स्थापन की परंतु स्वर और श्रुति के परंपरागत प्रमाण में निर्माण हुई विषमता की कारणमीमांसा लोचन पंडित नहीं कर सके।
17 वीं शताब्दी में दक्षिण भारत के अहोबल नामक संगीतशास्त्रकार ने यह तथ्य सिद्ध किया कि सारी श्रुतियाँ समप्रमाण नहीं होती, उनके प्रमाण में विषमता होती ही है।
भरताचार्य के समय में जातिगायन की पद्धति थी। आगे चल कर दसवी शताब्दी से जातिगायन की पद्धति का हास होते गया और संगीतरत्नाकर के काल में (13 वीं शती) रागगायन की पद्धति प्रचलित हुई।
भरत के नाट्यशास्त्र पर अभिनवगुप्ताचार्य की अभिनवभारती नामक टीका सुप्रसिद्ध है। अभिनवगुप्ताचार्य के मतानुसार नाट्य और संगीत का क्षेत्र स्वतंत्र है। अपने इस मत के प्रतिकूल मत वाले प्राचीन टीकाकारों के विचारों का उन्होंने परामर्श लिया है। उससे यह पता चलता है कि हर्ष, शाक्याचार्य राहुलक, नखकुट्टक, काश्मीराधिपति मातृगुप्त, कीर्तिधर, उद्भट शकलीगर्भ
इत्यादि विद्वानों ने अभिनवगुप्त के पहले भरत के नाट्यशास्त्र का ऊहापोह करने वाले ग्रंथ लिखे थे। उनके टीकाग्रंथों में संगीत विषयक शास्त्रीय विवेचन अवश्य हुआ होगा। शृंगारशेखरकुमार के मतानुसार 'भरत' नाम ही संगीत का प्रतीक है।
भकारो भावुनैर्युक्तो रेफो रागेण मिश्रितः। तकार ताल इत्याहुः भरतार्थविचक्षणाः ।। इस प्रसिद्ध सुभाषित द्वारा उन्होंने “भरत" शब्द की निरुक्ति कर भरत शब्द को संगीत का पर्याय कहा है।
भारत की सभी ललित कलाओं में रस को ही आत्मतत्व माना है। जिन स्वरगुच्छों से निश्चित रंजन और रसपोष हो सकता है उनका मार्मिकता से विचार कर, संगीत शास्त्र एवं कला के प्राचीन उपासकों ने राग व्यवस्था निर्माण की। कालमान
के अनुसार संगीतरसिकों की अभिरुचि में परिवर्तन अवश्य होता रहा, तथापि, प्राचीन संगीतशास्त्र के विद्वानों ने प्रतिपादन किए हुए राग आज भी रसिकों के अन्तःकरण में उतना ही आनंद और आल्हाद निर्माण करते हैं।बृहदेशीकार ने बताया हुआ राग का लक्षण,
(“योऽसौ ध्वनिविशेषस्तु स्वरवर्णविभूषितः । रंजको जनचित्तानां स रागः कथितो बुधैः ।।) निरपवाद है। “रंजयति इति रागः'' यही राग शब्द की लौकिक व्युत्पत्ति कही जाती है, और "संगीतसमयसार ग्रंथ के अनुसार वही राग का लक्षण भी है। संगीतदर्पण ग्रंथ में रागों की उत्पत्ति के संबंध में कहा है कि,
शिव-शक्त्योःसमायोगात् रागाणां संभवो भवेत्।
पंचास्यात् पंच रागाः स्युः षष्ठश्च गिरिजामुखात्।। अर्थात् शिव और शक्ति के संयोग से रागों की उत्पत्ति हुई। शिव के पूर्व मुख से भैरव, पश्चिम मुख से हिंडौल, उत्तर मुख से मेघ, दक्षिण मुख से दीपक और ऊर्ध्वमुख से श्री राग की उत्पत्ति हुई। पार्वती के मुख से कौशिक नामक छटवां राग उत्पन्न हुआ। बृहदेशी ग्रन्थ में इससे अधिक शास्त्रीय पद्धति से रागों की उत्पत्ति का प्रतिपादन किया है। तदनुसार
"सामवेदात् स्वरा जाता स्वरेभ्यो ग्रामसंभवः। ग्रामेभ्यो जातजो जाता जातिभ्यो रागसंभवः ।।
सप्त स्वरास्त्रयो ग्रामा मूर्च्छनाश्चैकविंशतिः । द्वाविंशतिश्च श्रुतय एतेभ्यो रागसंभवः ।। अर्थात् सामवेद से स्वर, स्वरों से ग्राम, ग्रामों से जातियाँ और जातियों से रागों की उत्पत्ति हुई। अथवा सात स्वर, तीन ग्राम, इक्कीस मूर्च्छना और बाईस श्रुतियाँ, इनसे रागों की उत्पत्ति होती है।
अभिनव-रागमंजरी में राग की अभिव्यक्ति करने वाला स्वरसमूह इस अर्थ में “मेल" (जिसे आजकल "ठाठ" कहते हैं) यह पारिभाषिक संज्ञा बताई है। (मेलः स्वरसमूहः- स्यात् रागव्यंजक शक्तिमान्) अचल, कोमल, और तीव्र इस प्रकार के बारह स्वरों से ग्रथित प्रक्रिया के अनुसार 62 मेल निर्माण हो सकते हैं। इन 62 मेलों के "जनक मेल" कहते हैं। जिनसे 'जन्य
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड /61
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