________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
राग' उत्पन्न होते हैं। वेंकटमखी के चतुर्दण्डि-प्रकाशिका नामक ग्रंथ में दाक्षिणात्य (अथवा कर्णाटकी) संगीत में प्रचलित 62 मेलों के नाम बताए हैं।
उत्तर हिंदुस्थानी संगीत की पद्धति में कल्याण, बिलावल, समाज, भैरव, पूर्वी, मारवा, काफी, आसावरी, भैरवी और तोड़ी इन दस मेलों या ठाठों में 124 रागों की व्यवस्था होती है, ऐसा अभिनवरागमंजरीकार का मत है।
संगीतरत्नाकर में ग्रामराग, उपराग, राग, भाषा, विभाषा, अन्तर्भाषा, रागांग, भाषांग, क्रियांग और उपांग इन दस वर्गों में रागों की व्यवस्था की है।
संगीतशास्त्र में 1) शिवमत, 2) कृष्णमत, 3) हनुमन्मत और 4) भरतमत ये चार मत प्रसिद्ध हैं। इन का पृथक् समर्थन करने वाले प्रमुख ग्रंथकारों में अपने निजी मतभेद हैं। संपूर्ण रागव्यवस्था के मूलभूत छह राग माने जाते हैं। उनका मूल भेद- कारण है भारत का ऋतुमान। इस देश में संपूर्ण वर्ष का विभाजन छह ऋतुओं में होता है। प्रत्येक ऋतु में गाने
योग्य विशिष्ट राग माना गया है। अतः राग व्यवस्था का मूलाधार ऋतुभेदमूलक छह राग माने जाते हैं। राग व्यवस्था का यह सिद्धांत हिंदुस्थानी संगीतशास्त्र में आठवीं शताब्दी से रूढ हुआ। दाक्षिणात्य संगीत में समयानुसार रागव्यवस्था नहीं मानी जाती। वस्तुतः रागव्यवस्था का समर्थन करने वाले चार मतवादियों में एक वाक्यता नहीं है। जैसे शिवमत के अनुयायी रागविबोधकार सोमनाथ और कृष्णमत के अनुयायी, संगीतरत्नाकर के टीकाकार पं. कल्लीनाथ इन के मन्तव्यानुसार वसंत ऋतु में वसंत राग का गायन प्रशस्त माना गया है, परंतु भरत और हनुमंत मतों के अनुसार हिंडोल राग का गायन वसंत ऋतु में प्रशस्त माना गया है।
___ संस्कृत साहित्यान्तर्गत संगीत शास्त्र पर ग्रंथ लेखन करने वालों में विद्वान राजाओं की बहु संख्या विशेष रूप में दिखाई देती है। 12 वीं शताब्दी में मिथिला या तिरहूत के राजा नान्यदेव (अपरनाम राजनारायण) ने भरतवार्तिक नामक भरतनाट्यशास्त्र का भाष्य सतरह अध्यायों में लिखा। प्राचीन तालपद्धति (जो आज कालबाह्य हो चुकी है) का विवरण नान्यदेव ने अपनें ग्रंथ में किया है। इससे अतिरिक्त 140 रागों का विवेचन नान्यदेव ने कश्यप और मतंग इन प्राचीन ग्रंथकारों के मतानुसार किया है। 12 वीं शताब्दी में कल्याण के चालुक्यवंशीय प्रसिस्ध राजा जगदेकमल्ल अथवा प्रताप चक्रवर्ती ने संगीतचूडामणि नामक पंद्रह अध्यायों का ग्रंथ लिखा। उसी 12 वीं शताब्दी में कर्नाटक के अधिपति सोमेश्वर (अथवा भूलोकमल्ल) ने मानसोल्लास नामक ढाई हजार श्लोकों के ग्रंथ का प्रणयन किया। सोमेश्वर महाराज संगीतविद्या के महान उपासक थे। उन्हीं के कर्तृत्व के
कारण दाक्षिणात्य संगीत, "कर्णाटकी संगीत" कहा जाता है। देवगिरी के राजा हरिपाल देव को 'विचारचतुर्मुख' और 'वीणातंत्रीविशारद" यह उपाधियाँ उनके संगीत प्रावीण्य के कारण प्राप्त हुई थीं। एक बार हरिपाल देव श्रीरंगम् क्षेत्र में गए थे। वहां के गायक
और नर्तक कलाकारों ने उन्हें संगीत विषयक ग्रंथ लिखने का आग्रह किया। उस आग्रह का आदर करते हुए महाराजा ने "संगीतसुधाकर" नामक छह अध्यायों का ग्रंथ लिखा। 14 वीं शताब्दी में मेवाड के राजा हमीर ने संगीत शृंगारहार नामक ग्रंथ लिखा। इस पंथ में जैतसिंह नामक संगीत शास्त्रज्ञ राजा का नाम निर्देश लेखक ने किया है। तंजौर के अधिपति रघुनाथ नायक ने संगीतसुधा नामक ग्रंथ लिखा जिसमें 264 रागों का विवेचन करते हुए लेखक ने कहा है कि, श्री विद्यारण्यस्वामी
(कर्नाटक के हिंदुसाम्राज्य के संस्थापक और शृंगेरी शांकरपीठ के आचार्य) ने अपने संगीतसार नामक ग्रंथ में जिस पद्धति से रागविवेचन किया है उसी पद्धति से प्रस्तुत ग्रंथ में राग विवेचन किया हुआ है। विद्यारण्यस्वामी का संगीतसार ग्रंथ अप्राप्य है।
छत्रपति शिवाजी महाराज के पिता शहाजी संगीतशास्त्र के मर्मज्ञ थे। उन्होंने अपने आश्रित वेदनामक पण्डित से संगीतपुष्पांजलि और संगीतमकरंद नामक दो ग्रन्थों का निर्माण करवाया । वेद पंडित के पिता चतुरदामोदर का संगीतदर्पण ग्रंथ सुप्रसिद्ध है। ___17 वीं शताब्दी में गढदुर्ग अथवा जबलपूर के राजा हृदयनारायण ने हृदयकौतुक और हृदयप्रकाश नामक दो ग्रंथों का प्रणयन किया। इन ग्रंथों में हृदयनारायण ने लोचन पंडित की रागतरंगिणी का अनुसरण किया है। इसी शताब्दी के नेपाल के नृपति जगज्योतिर्मल्ल ने अनेक संगीत शास्त्रज्ञों को आश्रय दे कर उनसे संगीत विषयक ग्रंथों का लेखनकार्य करवाया। साथ ही स्वयं महाराज ने संगीतसारसंग्रह स्वरोदयदीपिका और गीत-पंचाशिका जैसे ग्रंथों की लेखन किया।
18 वीं शताब्दी में त्रिवांकुर (त्रावणकोर) के राजा बलरामवर्मा (रामवर्मा) ने बलरामभरतम् नामक 18 अध्यायों का ग्रंथ लिखा। इस ग्रंथ में भाव, राग और ताल का परस्परावलंबित्व प्रतिपादन किया है। इसी शताब्दी में तंजौर के मराठा नृपति तुकोजी भोसले ने संगीतसारामृत नामक गद्य ग्रंथ शाङ्गदव के संगीतरत्नाकर के अनुसार लिया। तुकोजी महाराज ने नाट्यवेदागम नामक नाट्यकला विषयक ग्रंथ भी लिखा है। इसी शताब्दी में उत्कलप्रदेश के पार्लकिमिडी के राजा गजपति वीरश्री नारायण देव ने कविरत्न पुरुषोत्तम देव से संगीतशास्त्र का अभ्यास करते हुए, संगीतनारायण नामक ग्रंथ लिखा। इसमें संगीतविद्या की सभी शाखाओं का विवेचन किया हुआ है। मम्मटकृत संगीतरत्नमाला नामक ग्रंथ के अवतरण इस ग्रंथ में दिखाई देते हैं।
भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृति की तुलना अनेक विषयों के संबंध में होती रहती है। संगीत शास्त्रविषयक ग्रंथों
62 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
For Private and Personal Use Only