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7 रामराज्य भारतीय धारणा के अनुसार आदर्श राज्य का पर्याय वाचक शब्द है रामराज्य। वाल्मीकीय रामायण के प्रारंभ में महाराजा दशरथ के राज्यशासन का वर्णन आता है जहां हम यह देखते हैं कि उस अयोध्यापति के राज्य के सभी प्रदेशों में अपार
धनधान्य समृद्धि है, समाज के सभी घटक अपने अपने वर्णो तथा आश्रमों के आचार तथा तथा नीतिमर्यादाओं का अनुशासन स्वयं प्रेरणा से पालन करते है। राजा तथा उसके प्रमुख अधिकारी गण विनयसंपन्न होने के कारण यथा “राजा तथा प्रजा" .इस न्याय के अनुसार प्रजाजन भी विनीत एवं मर्यादाशील हैं।
न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः । नानाहिताग्नि विद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कुतः ।। यह प्रजाजन का नैतिक और सांस्कृतिक स्तर रामायण के अनुसार आदर्श माना गया है। वनवासी रामचंद्र को वापस लौटाने के लिए स्वयं भरत उनके पास जाते हैं, तब श्रीरामचंद्रजी ने उन्हें राज्यव्यवस्था के संबंध में जो अनेकविध प्रश्न पूछे, उनमें स्वयं श्रीरामचंद्र जी की आदर्श राज्य की कल्पना हमारे लिए सुस्पष्ट होती है। लवणासुर का उपद्रव शान्त करने के लिये जब शत्रुघ्न के नेतृत्व में सेना देकर भेजा जाता है, तब श्रीरामचंद्रजी उन्हें ऐसा संदेश देते हैं जिस में सुराज्य (अर्थात् रामराज्य)
संवर्धन के लिए आदर्श सेना और आदर्श सेनापति के विषय में प्रतिपादन हुआ है। यह प्रतिपादन या मार्गदर्शन शाश्वत होने के कारण आज भी आदर्शवत् है। इसमें सैनिकों को यथोचित वेतन योग्य समय पर देने की महत्त्वपूर्ण सूचना भरत को भी दी गई है।
लोकमत का समादर यह आदर्श राज्य का एक प्रमुख लक्षण माना जाता है। वाल्मीकी के आदर्श राज्य की कल्पना में इस मूल्य का निर्देश यत्र तत्र मिलता है। महाराजा दशरथ ने अपनी वृद्धवस्था का विचार करते हुए जब अपने ज्येष्ठ पुत्र राम को यौवराज्याभिषेक करने का निर्णय अन्तःकरण में लिया तब वह प्रजाजनों की अनुमति के बिना उस पर नहीं लादा गया। प्रजा के अन्यान्य स्तरों के प्रतिनिधियों की आम सभा में इस निर्णय पर विचार विमर्श हुआ और अन्त में प्रजाजनों की निरपवाद अनुमति मिलने पर ही श्रीराम के यौवराज्याभिषेक का निर्णय घोषित हुआ। महाराजा दशरथ जैसे आदर्श शासनकर्ता के शासन में ही प्रजाजनों से अथवा मंत्रिमंडल से विचार-विनिमय करने की पद्धति थी; इतना ही नहीं तो रावण के राज्य में
भी श्रीराम से युद्ध करने के विषय पर, बिभीषण, कुम्भकर्ण, माल्यवान् प्रभृति अधिकारियों के साथ भरपूर विचार विमर्श होता है और उस में बिभीषण, कुम्भकर्ण और माल्यवान् रावण के निर्णय से अपनी असहमति कटु शब्दों में व्यक्त करते हुए दिखाई देते हैं।
रामायण के उत्तरकाण्ड में तो अत्यल्प विरोधी मत का भी अनादर आदर्श राज्य में नहीं होना चाहिए, यह महान् सिद्धान्त सीतात्याग के बारे में श्रीरामचंद्रजी ने जो कठोर निर्णय लिया, उसमें दिखाई देता है। लोकमत का इतना आत्यंतिक समादर किसी भी अन्य संस्कृति में नही हुआ था और न आगे होने की संभावना है।
आदर्श राज्य में सभी विद्याओं एव कलाओं की योग्य अभिवृद्धि के लिए राजाश्रय की अपेक्षा होती है। इस के लिए स्वयं राजा विद्यासंपन्न और कलाप्रेमी होना चाहिये। अनपढ़ और कलाहीन शासक के द्वारा यह कार्य नहीं हो सकता। वनप्रयाण के समय श्रीरामचंद्र में अपनी निजी सम्पत्ति का समर्पण विद्वानों को करने की सूचना लक्ष्मण को देते हैं, तब वेदादि विद्याओं की अन्यान्य शाखाओं का उनका सूक्ष्म ज्ञान हमें दिखाई देता है। उसी सम्पत्तिदान यज्ञ के समय, एक गरीब ब्राह्मण अपने परिवार का पोषण करने के लिये, श्री रामचंद्रजी से द्वव्ययाचना करता है, तब मजाक में उसे एक दण्ड देकर वे कहते है, यह दण्ड तू फेंक। वह जहां पड़ेगा वहां तक की सम्पत्ति तुझे मिलेगी। ब्राम्हण द्वारा फेंका गया दण्ड सरयू के तट पर जा पड़ा। प्रभु ने उस भूमर्यादा में जितना धन था उतना उसे दे दिया।
प्राचीन भारतीय संस्कृति में यज्ञ को असाधारण महत्त्व था। देवपूजा, दान और संगतिकरण (या समाज का संगठन) इन उद्देश्यों के लिए आदर्श राज्य में यज्ञविधि सम्पन्न होते थे। रामायण में महाराजा दशरथ ने पुत्रलाभ के हेतु पुत्रकामेष्टि यज्ञ का
आयोजन वसिष्ठ ऋषि के नेतृत्व में किया था। दूसरा महान् अश्वमेघ यज्ञ स्वयं प्रभु रामचंद्र ने अपना सर्वंकष आधिपत्य सिद्ध करने के लिए राक्षससंहार के बाद किया था। इन दोनों यज्ञों का वर्णन पढने पर, आदर्श राज्य में लोगों के गुणों का, विद्वत्ता का, तथा विशिष्ट योग्यता का कितना समादर होना चाहिए, इस बात का ज्ञान हमें होता है। इस यज्ञसंस्था का संरक्षण राज्यकर्ता . का अपरिहार्य दायित्व माना जाता था। लोककल्याणार्थ देवताओं की कृपा संपादन करने के लिए विश्वामित्र जैसे तपस्वी ऋषि यज्ञ करते थे और ऐसे पवित्र कार्यों में विघ्न डालना, यह अपना कर्तव्य राक्षस (या राक्षसी वृत्ति के मानव) मानते थे। उनका संहार कर यज्ञसंस्था को सुरक्षित रखना आदर्श राजा का कर्तव्य माना जाता था। विश्वामित्र के यज्ञ के विघ्नों का निवारण करने
के लिए दशरथ राजा से उनके प्राणप्रिय पुत्रों की मांग की गयी। आदर्श राजा ऋषिमुनियों के आदेश का भंग नही करते थे। विश्वामित्र जैसे एक वनवासी तपस्वी का आदेश सार्वभौम सम्राट् दशरथ ने शिरोधार्य माना और अपने प्रिय पुत्रों को ऋषि के साथ सेना सहाय के बिना भेज दिया। रामायण की इस घटना में राज्यकर्ताओं के लिए कितना बड़ा संदेश भरा हुआ है। __जिस रामचंद्र ने विश्वामित्र के यज्ञ का संरक्षण किया, वही महापुरुष युद्ध काण्ड में रावणपुत्र मेघनाद के यज्ञ का विध्वंस
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 81
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