________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
छन्दःशास्त्र में पद्यात्मक रचना का विवेचन हुआ है। पद्यरचना (1) छंद (2) वृन्त और (3) जाति, इन तीन प्रकारों की होती है। सामान्यतः छंद अक्षरसंख्यापर, वृत्त अक्षसंख्या पर तथा गणक्रम पर और जाति मात्राओं की संख्या पर आधारित होती है। वेदों में प्रयुक्त छन्दों में कहीं लघु-गुरू मात्राओं का अनुसरण नहीं किया जाता। अतः समस्त वैदिक छंद अक्षरछंद ही हैं। जिन की कुल संख्या 26 है। इन छब्बीस छंदों के दो मुख्य भेद हैं (1) केवल अक्षर गणनानुसारी। (2) पादाक्षरगणनानुसारी इस में अक्षरों के पादों में नियमतः विभक्त होने की व्यवस्था होती है।
वैदिक छंद समस्त वैदिक छन्दों की संख्या 26 मानी गई है, परंतु इनमें से मा (अक्षर संख्या 24), प्रमा (अ-सं. 8) प्रतिमा (अ.सं. 30) ये पांच छंद वेद में प्रयुक्त नहीं किए जाते। इन्हें गायत्रीपूर्व पंचक कहते हैं। अवशिष्ट 21 छंदों का तीन सप्तकों में वर्गीकरण किया जाता है :- प्रथम सप्तक में- गायत्री, उष्णिक् (अ. सं. 28), अनुष्भ् (अ. सं. 32), बृहती (अ. सं. 36), पंक्ति (अ. सं. 40), त्रिष्टुभ् (अ. सं. 44), तथा जगती (अ. सं. 48), इन महत्त्वपूर्ण छंदों का अन्तर्भाव होता है।
द्वितीय सप्तक में अन्तर्भूत, अतिजगती (अ. सं. 52), शक्वरी (अ. सं. 56), अतिशक्वरी (अ. सं. 60), अष्टि (अ. सं. 64), अत्यष्टि (अ. सं. 68), धृति (अ. सं. 72), अतिधृति (अ. सं. 76), ये सात छंद यअतिच्छन्द' नाम से प्रसिद्ध हैं।
तृतीय सप्तक में- कृति (अ. सं. 80), प्रकृति (अ. सं. 84), आकृति (अ. सं. 88), विकृति (अ. सं. 92), संस्कृति (अ. सं. 96), अभिकृति (अ. सं. 100) और उत्कृति (अ. सं. 104)।
इन 3 सप्तकों को नाट्यशास्त्र में क्रमशः (1) दिव्य (देवों की स्तुति में प्रयुक्त), (2) दिव्येतर (मानवों की स्तुति में प्रयुक्त) और (3) दिव्यमानुष्य (दिव्य और मानुष उभय प्रकार के व्यक्तियों की स्तुति में प्रयुक्त) यह संज्ञाएं दी हुई हैं।
प्रथम सप्तक में अन्तर्भूत गायत्री इत्यादि छन्दों के दैव, आसुर, प्राजापत्य, आर्ष, मानुष, साम्न, आर्ष तथा ब्राह्म नामक आठ प्रकार माने गए हैं। उसी प्रकार इन के प्रत्येकशः भेद और उपभेद भी होते हैं। जैसे :1. गायत्रा - एकपदा, द्विपदा, त्रिपदा, चतुष्पदा, और पंचपदा । 2. उष्णिक् - पुर उष्णिक, ककुबुष्णिक, परोष्णिक, पिपीलिका, मध्योष्णिक् । 3. अनुष्टुभ् - विराट अनुष्टुभ् (दो प्रकार), चतुष्पाद अनुष्टुभ् । 4. बृहती - पुरस्ताबृहती, उरोबृहती, मध्याबृहती, उपरिष्टाबृहती, 5. पंक्ति - विराट्पंक्ति, सतोबृहती, पङ्क्ति, विपरीता पंक्ति, आस्तार पंक्ति, विष्टार पंक्ति और पथ्या पंक्ति, 6. त्रिष्टुभ् - अशिसारिणी, महाबृहती, और यवमध्या। 7. जगती - उपजगती, महासतोव्हती, महापंक्ति जगती, द्वितीय तथा तृतीय सप्तक के छंद, 'अतिच्छंद' नाम से प्रसिद्ध हैं। इन में से तृतीय सप्तक के कृति, प्रकृति इत्यादि छंदों का
ऋग्वेद में अभाव है। आचार्य शौनक (ऋप्रातिशाख्यकार) के कथनानुसार गायत्री से लेकर अतिधृति तक 14 छंद ऋग्वेद में उपलब्ध होते हैं।
___ छन्दों का वृत नामक दूसरा वर्ग अक्षरसंख्या तथा 'गण' इन दोनों पर अवलंबित होने के कारण "अक्षरगणवृत' अथवा गणवृत्त कहा जाता है। इन गणवृत्तों में चार चरण (अथवा पाद) होते हैं, और प्रत्येक चरण 12 अक्षरों का होता है। वृत्त में चारों चरणों के अक्षर समान होते हैं तब उसे 'समवृत्त' कहते हैं और जहां प्रथम-तृत्तीय तथा द्वितीय-चतुर्थ चरणों में अक्षर
संख्या भिन्न होती है, उसे "अर्धसमवृत" कहते हैं। जहा चारों चरणों में प्रत्येकशः संख्या अलग अलग होती है, उसे विषम वृत्त कहते हैं। विषमवृत्तों की संख्या नगण्य है।
वृत्तों का वर्गीकरण वृत्तों का वर्गीकरण अन्यान्य प्रकारों से ग्रन्थकारों ने किया है। संगीत शास्त्रज्ञों ने वृतों की गेयता का वैशिष्ट्य ध्यान में लेते हुए सामान्यतः 60 तक वृतों का जो वर्गीकरण किया है वह मार्मिक है। तदनुसार (अ) त्र्यक्षरी गणों के आवर्तनी वृत्त । (आ) चार (अथवा अधिक अक्षरों के गणों के अनावर्तनी वृत्त। (इ) त्र्यक्षरी गणों के अन्तर्वर्तनी वृत्त और (उ) अर्धसम तथा विषम वृत्त यह चार प्रकार वृत्तों में माने जाते है।
(अ) 7 यक्षरी गणों के आवर्तनी समवृत्तों में विद्युन्माला, मणिबंध, हंसी, चंपकमाला, दोधक, प्रहरण कलिका, प्रमाणिका, मरालिका (अथवा कामदा), शुद्धकामदा, ललित, इन्द्रवजा, उपेंद्रवज्रा, उपजाति, सौदामिनी, भुजंगप्रयात, सारंग, वंशस्थ, तोटक, स्रग्विणी, चामर, पंचचामर, चित्रवृत्त, विबुधप्रिया, पृथ्वी, मंदारमाला, सुमंदारमाला, (वागीश्वरी), मदिरा (उमा) हेमकला, वरदा, हंसगति और अमृतध्वनि, इन 31 वृत्तों की गणना होती है।
58 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
For Private and Personal Use Only