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मीमांसक जी के प्रतिपादनानुसार फिटसूत्र, पाणिनि और आपिशलि से भी पूर्ववर्ती हैं और उसके रचयिता राजर्षि शन्तनु को मानना वे अनुचित नहीं मानते और संप्रति उपलभ्यमान चतुःपादात्मक फिटसूत्र, शन्तनुकृत किसी बृहत्तंत्र का एकदेश होने की संभावना उन्होंने प्रतिपादन की है। फिट्सूत्रों पर प्रक्रियाकौमुदी के टीकाकार विठ्ठल, भट्टोजी दीक्षित, और श्रीनिवास यज्वा ने व्याखाएं लिखी है। एक अज्ञातनाम वैयाकरण की व्याख्या जर्मनी में प्रकाशित हुई थी। भट्टोजी की फिटसूत्र व्याख्या पर जयकृष्ण और नागेशभट्ट ने टीकाएँ लिखी हैं।
13 दार्शनिक वैयाकरण संस्कृत व्याकरणशास्त्र के प्रायः अधिकतम ग्रंथों में वेदों तथा लौकिक भाषा में प्रयुक्त शब्दों के साधुत्व निर्धारण की प्रक्रिया का और तत्संबंधी नियमों का अत्यंत सूक्षमेक्षिका से चिन्तन हुआ है। साधु शब्द और असाधु शब्द विषयक इस चिन्तन के साथ ही, शब्द के नित्यत्व और अनित्यत्व के विषय में भी व्याकरण शास्त्रज्ञों ने अति प्राचीन काल से चर्चा शुरू की थी। इसी चर्चा में "स्फोट" अर्थात् नित्य शब्द का सिद्धान्त प्रस्थापित हुआ। पाणिनि ने “अवङ् स्फोटायनस्य" इस अपने सूत्र में स्फोटायन नामक प्राचीन वैयाकरण का निर्देश किया है। स्फोटायन नाम का स्पष्टीकरण पदमंजरी (काशिकावृत्ति की व्याख्या) के लेखक हरदत्त ने, “स्फोटो अयनं परायणं यस्य सः, स्फोटप्रतिपादन-परो वैयाकरणाचार्यः" इस वाक्य में दिया है। तद्नुसार, ये स्फोटसिद्धान्त के प्रथम प्रवक्ता थे। इस प्रमाण के आधार पर शब्द के नित्यत्व का सिद्धान्त वैयाकरणों में पाणिनि से पूर्वकाल में ही स्थापित हुआ था। शब्दनित्यत्व (अर्थात स्फोट-सिद्धान्त) का समर्थन करने वाले आचार्यों की परम्परा में
औदुम्बरायण, संग्रहकार व्याडि, महाभाष्यकार पतंजलि, जैसे समर्थ वैयाकरण हुए, जिनके द्वारा व्याकरणशास्त्र के दार्शनिक स्वरूप का सूत्रपात हुआ। परंतु इस दिशा में ठोस कार्य भर्तृहरि के वाक्यपदीय नामक प्रसिद्ध ग्रंथ के द्वारा हुआ। वाक्यप्रदीय नाम से ही यह ज्ञात होता है कि यह ग्रंथ, वाक्य और पद का विवेचन करता है। इस ग्रंथ के प्रथम काण्ड में अखण्डवाक्य-स्वरूप स्फोट का, द्वितीय काण्ड में दार्शनिक दृष्टि से वाक्य का और तृतीय काण्ड में पद का विवरण किया है। इन तीन काण्डों के क्रमशः नाम हैं (1) आगम काण्ड, (2) वाक्यपदीय काण्ड और (3) प्रकीर्ण काण्ड।
प्राचीन भारतीय भाषाविज्ञान का यह प्रमुख ग्रंथ है। इस में शब्द और अर्थ के संबंध का निरूपण दार्शनिक ढंग से किया गया है। वैयाकरणों के दार्शनिक तत्त्वों का विशद विवेचन करने वाला यही एकमात्र उत्कृष्ट ग्रंथ है। इस ग्रंथ पर स्वयं भर्तृहरि ने व्याख्या लिखी है। यह अपूर्ण स्वरूप में उपलब्ध है और इस पर वृषभदेव ने टीका लिखी है। इस टीका के अतिरिक्त द्वितीय काण्ड पर पुण्यराज की और तृतीय काण्डपर हेलाराज की व्याख्या उपलब्ध है। कुछ अन्य व्याख्याओं के भी निर्देश मिलते हैं। व्याकरण के दार्शनिक विचारों में स्फोटवाद अत्यंत मौलिक एवं महत्त्वपूर्ण होने के कारण उस का विवेचन करने वाले कुछ तात्त्विक ग्रंथ, दार्शनिक वैयाकरणों ने लिखे जिन में उल्लेखनीय ग्रंथ हैं :
(1) स्फोटसिद्धि ले.- आचार्य मण्डनमिश्र । इसमें 36 कारिकाएँ है, जिन पर लेखक की निजी व्याख्या है। (शंकराचार्य का शिष्यत्व ग्रहण करने पर, मण्डनमिश्र सुरेश्वराचार्य नाम से प्रसिद्ध हुए) इस स्फोटसिद्धि पर ऋषिपुत्र परमेश्वर की व्याख्या, मद्रास विश्वविद्यालय द्वारा प्रसिद्ध हुई है। भरत मिश्रकृत स्फोटसिद्धि नामक अन्य एक ग्रंथ का प्रकाशन तिरुअनन्तपुर से सन् 1927 में हुआ है जिस पर स्वयं लेखक की व्याख्या है। स्फोटसिद्धि-न्याय-विचार नामक ग्रंथ, सन् 1917 में त्रिवेन्द्रम (वास्तव नाम तिरुअनन्तपुरम्) में म.म. गणपति शास्त्री द्वारा प्रकाशित हुआ। इस में 245 कारिकाएँ है। इस के लेखक का नाम अज्ञात है। इन के अतिरिक्त केशव कविकृत स्फोटप्रतिष्ठा, शेषकृष्ण कविकृत स्फोटतत्त्व, श्रीकृष्णभट्टकृत स्फोटचन्द्रिका, आपदेवकृत स्फोटनिरूपण, कुन्दभट्टकृत स्फोटवाद, प्रसिद्ध हैं।
दार्शनिक व्याकरण ग्रंथों में वैयाकरणभूषण तथा वैयाकरणभूषणसार का अध्ययन विशेष प्रचलित है। इस ग्रंथ की कारिकाओं की रचना सिद्धान्तकौमुदीकार भट्टोजी दीक्षित ने की है। उन कारिकाओं की व्याख्या का नाम है वैयाकरणभूषण, जिसके लेखक है कौण्डभट्ट । “वैयाकरण-भूषणसार" इसी ग्रंथ का संक्षेप है जिस पर, हरिवल्लभकृत दर्पण, हरिभट्टकृत दर्पण, मनुदेवकृत कान्ति, भैरवमिश्रकृत परीक्षा, रुद्रनाथकृत विवृति, और कृष्णमिश्रकृत रत्नप्रभा इत्यादि टीकाग्रंथ प्रसिद्ध हैं। इसी दार्शनिक ग्रंथ परंपरा में नागेशभट्टकृत वैयाकरण-सिद्धान्त-मंजूषा और जगदीश तर्कालंकारकृत शब्दशक्तिप्रकाशिका भी उल्लेखनीय हैं।
वैयाकरणों के दार्शनिक ग्रंथों का मुख्य विषय शब्द के नित्यानित्यत्व का विवेचन करते हुए, नित्यत्वपक्ष की स्थापना करना है। इस के अतिरिक्त पदमीमांसा, वाक्यमीमांसा, धात्वर्थ, लकारार्थ, प्रातिपदिकार्थ, सुबर्थ, समासशक्ति, शब्दशक्ति, इत्यादि विविध तात्त्विकविषयों का परामर्श इन ग्रंथों में होने के कारण ये ग्रंथ भारतीय भाषाविज्ञान की दृष्टि से तथा जागतिक भाषा-विज्ञान की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 55
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