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पंथ
मीमांसकजी ने अनेक प्रमाणों से उस विधान का खंडन कर, सूत्रपाठ के समान धातुपाठ भी पाणिनिकृत सिद्ध किया है। नागेश भट्ट के मतानुसार, धातुपाठ में अर्थनिर्देश भीमसेन ने किया है। इस मत की भी अयथार्थता युधिष्ठिरजी ने अपने संस्कृत व्याकरण शास्त्र के इतिहास में सप्रमाण में सिद्ध की है। पाणिनीय सूत्र पाठ के समान धातुपाठ में भी पूर्ववर्ती आचार्यों का अंश लिया गया है। पाणिनीय धातुपाठ से संबंधित अनेक व्याख्याग्रंथ निर्माण हुए। उनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रंथ तथा ग्रंथकारों की सूची प्रस्तुत है :
ग्रंथकार आख्यातचंद्रिका
भट्टमल्ल कविरहस्य
हलायुध क्रियाकलाप
विजयानन्द क्रियापर्यायदीपिका
वीरपांडव क्रियाकोश (आख्यातचंद्रिका का संक्षेप)
रामचन्द्र प्रयुक्ताख्यात-मंजरी
सारंग क्रियारत्न समुच्चय (हैमधातुपाठ की व्याख्या)
दशबल (अपरनाम-वरदराज) पाणिनीय धातुपाठ पर भीमसेन, क्षीरस्वामी, मैत्रेयरक्षित, हरियोगी, देव, सायणाचार्य आदि विद्वानों ने व्याख्याएँ लिखी हैं। इनके अतिरिक्त धर्मकीर्तिकृत रूपावतार, विमलसरस्वतीकृत रूपमाला, रामचन्द्रकृत प्रक्रियाकौमुदी, भट्टोजी दीक्षितकृत सिद्धान्तकौमुदी, और नारायण भट्टकृत प्रक्रिया-सर्वस्व इन प्रक्रिया ग्रन्थों में पाणिनीय धातुपाठ की धातुओं का प्रसंगतः व्याख्यान हुआ है।
पाणिनि के उत्तरकालीन व्याकरणकारों ने भी अपने निजी धातुपाठ लिखे हैं। इनमें कातंत्र (या कालाप और कौमार) व्याकरण का जो पृथक् धातुपाठ है, उसपर दुर्ग, मैत्रेय, रमानाथ इत्यादि वैयाकरणों ने वृत्तियाँ लिखी हैं। चन्द्रगोमि-प्रोक्त चान्द्र व्याकरण का धातुपाठ, ब्रूनो लिबिश ने चान्द्र व्याकरण के साथ प्रकाशित किया है। आचार्य देवनन्दी के जैनेन्द्र व्याकरण एवं जैनेन्द्र धातुपाठ का संशोधन, गुणनन्दी ने किया, जो उनके शब्दार्णव के अन्त में छपा हुआ है। आचार्य श्रुतकीर्ति ने जैनेन्द्र व्याकरण पर पंचवस्तु नामक प्रक्रियाग्रंथ लिखा, जिसके अन्तर्गत जैनेन्द्र धातुपाठ का भी व्याख्यान है। आचार्य पाल्यकीर्ति के द्वारा शाकटायन व्याकरण के धातुपाठ पर लिखे गए व्याख्याग्रंथ अप्राप्य हैं। हेमचंद्र सूरि ने अपने हैम व्याकरण से संबंद्ध सभी अंगों का प्रवचन किया। उसके अन्तर्गत धातुपाठ का भी प्रवचन है। यह हैम धातुपाठ काशकृत्स्र-धातुपाठ सदृश है। हर्षकुलगणि (ई. 16 वीं शती) ने हैम धातुपाठ का कविकल्पद्रुम नाम से पद्यबद्य रूपांतर किया और उस पर धातुचिन्तामणि नाम की टीका भी लिखी है। इसके अतिरिक्त हैम धातुपाठ पर गुणरत्न सूरि की क्रियारत्न-समुच्चय और जयवीर गणि की अवचूरि व्याख्या उपलब्ध हैं। इनके अतिरिक्त मलयगिरि, क्रमदीश्वर, सारस्वत, बोपदेव और पद्मनाभदत्त इनके शब्दानुशासनों के अपने अपने धातुपाठ हैं और उनपर कतिपय विद्वानों के व्याख्या ग्रंथ लिखे गये हैं। बोपदेव का धातुपाठ पद्यबद्ध है और वह कविकल्पद्रुम नाम से प्रसिद्ध है।
"गणपाठ" गणपाठ नामक व्याकरणांग में विशिष्ट क्रमानुसार या गणानुसार शब्दों का संकलन होता है। सामान्य अर्थ में धातुपाठ का निर्देश भी गणपाठ शब्द से हो सकता है, परंतु व्याकरण सम्प्रदाय में 'गणपाठ' शब्द से केवल प्रतिपादिक शब्दों के समूहों का संकलन निर्देशित होता है। इसमें गणपाठात्मक शास्त्रकारों ने शास्त्र का संक्षेप करने की प्रथा शुरु की। पाणिनि के पूर्वकालीन
और उत्तरकालीन गणपाठ प्रसिद्ध हैं। पाणिनि के गणपाठ पर यज्ञेश्वर भट्ट नामक आधुनिक वैयाकरण की गणरत्नावलि नामक व्याख्या विशेष उल्लेखनीय है। इस में व्याख्याकार ने गणरत्नमहोदधि का अनुकरण करते हुये पहले गणशब्दों को श्लोकबद्ध किया और पश्चात् उनकी व्याख्या की है। चंद्रगोमी के चान्द्र व्याकरण का जो गणपाठ है उसकी वृत्ति स्वयं लेखक ने लिखी है। पाल्यकीर्ति के शाकटायन व्याकरण के गणपाठ में अनेक गणों के पुराने दीर्घ नामों के स्थान पर लघु नामों का निर्देश किया है। उसी प्रकार पाणिनि के अनेक गणों को परस्पर मिला कर लाघव करने का प्रयास किया है। महाराजा भोज ने अपने गणपाठ को सूत्रपाठ में ही अन्तर्भूत किया है, और प्राचीन आचार्यों के द्वारा आकृतिगण रूप से निर्दिष्ट गणों में समाविष्ट होने वाले अनेक शब्दों का यथासंभव संकलन किया है। भोज ने पूर्व वैयाकरणों द्वारा अपठित कतिपय नवीन गणों का भी पाठ किया है। आचार्य हेमचन्द्र का गणपाठ उसकी स्वोपज्ञ बृहद्वृत्ति में उपलब्ध होता है। इसमें हेमचन्द्र ने पाल्यकीर्ति के शब्दानुशासन
और उसकी अमोघावृत्ति का अत्यधिक अनुकरण किया है और गणपाठ के अन्यान्य गणों में, पूर्वाचार्यों द्वारा स्वीकृत प्रायः सभी पाठान्तरों का अपने गणपाठ में संग्रह किया है।
गणकारों में वर्धमान (ई. 13 वीं शती) का कार्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। उसने व्याकरण से संबंधित गणपाठ का श्लोकबद्ध संकलन एवं उसकी गणरत्न-महोदधि नामक सविस्तर व्याख्या लिखी है, जिसमें पूर्ववर्ती पाणिनि, चंद्रगोमी, जिनेन्द्रबुद्धि, पाल्यकीर्ति,
52 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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