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धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीविद्या सत्यक्रोधो। दर्शकं धर्मलक्षणम्।। (6-92) इस सुप्रसिद्ध श्लोक में अखिल मानवमात्र के सामान्य धर्म के दस प्रकार के तत्त्व बताये हैं। संस्कृत वाङ्मय में "धर्मशास्त्र" शब्द से जिस विशिष्ट शास्त्र का बोध होता है, उस में मनु-याज्ञवल्क्य प्रभृति द्वारा लिखित वेदानुकूल स्मृतिग्रंथों का प्राधान्य से अन्तर्भाव होता है। इन स्मृतिग्रन्थों में प्रतिपादित आचार धर्म श्रौतसूत्रों, गृह्यसूत्रों एवं धर्मसूत्रों पर आधारित होने के कारण, वेदांग (कल्प) प्रकरण में ही हमने धर्मशास्त्र विषयक विवरण का अन्तर्भाव किया है।
मनुर्यमो वसिष्ठोऽत्रिर्दक्षो विष्णुस्तथाङ्गिराः । उशना वाक्यतिास आपस्ताम्बोऽथ गौतमः ।। कात्यायनो नारदश्च याज्ञवरुक्यः पराशरः। संवर्तश्चैव शंखश्व हारीतो लिखितस्तथा।।
एतैर्यानि प्रणीतानि धर्मशास्त्राणि वै पुरा । तान्येवातिप्रमाणानि न हन्तव्यानि हैतुभिः ।।
धर्मशास्त्रकारों की यह नामावलि वाचस्पत्य कोशकार ने दी है। इन के अतिरिक्त, वृद्धदेवल, सोम, जमदग्नि, प्रजापति, विश्वामित्र, शातातप, पैठीनसि, पितामह बौधायन, छागलेय, जाबालि, च्यवन, मरीची, कश्यप इत्यादि अनेक धर्मशास्त्रकारों के नाम भी मान्यताप्राप्त हैं। इन धर्मशास्त्रकारों के स्मृतिरूप ग्रंथों में तथा उनसे प्राचीन धर्मसूत्रों में, जो विविध विधियां बतायी गयी हैं, उन का मूल, वैदिक मंत्रों में पाया जाता है। इस दृष्टि से वेद वाङमय ही धर्मशास्त्र का मूल है। किन्तु वेद संहिताएं धर्मसंबंधी निबंध नहीं हैं। उनमें तो धर्मसंबंधी बातें प्रसंगवश आती गई हैं। वास्तव में आचार धर्म विषयक शास्त्रीय पद्धति के अनुसार सारा विवेचन, स्मृतिग्रन्थों में और उनकी मार्मिक टीकाओं में मिलता है। विद्वानों के मतानुसार व्यवस्थित धर्मशास्त्र का प्रारंभ वेदांगभूत धर्मसूत्रों से माना जाता है। गौतम, बौधायन तथा आपस्तंब के प्रारंभिक धर्मसूत्र निश्चित ही ईसापूर्व सातवीं से चौथी शती के माने जाते हैं। धर्मसूत्र वाङ्मय के संबंध में यथोचित चर्चा इस प्रकरण के प्रारंभ में वैदिक वाङ्मय के साथ ही की गई है। अतः यहां उसकी पुनरुक्ति अनावश्यक है। जिन स्मृतिग्रंथों का धर्मशास्त्र से साक्षात् संबंध माना जाता है, उनकी कुल संख्या उत्तरकालीन प्रमाणों के अनुसार एक सौ तक मानी जाती है। इन में से कुछ पूर्णतया गद्य में, कुछ गद्य- पद्य में और अधिकांश पद्य-मय हैं। कुछ तो प्राचीन धर्मसूत्रों के पद्यात्मक रूपांतर मात्र हैं और कुछ स्मृतियाँ साम्प्रदायिक हैं, यथा हारीत स्मृति वैष्णव है।
स्मृतिकारों में मनु का नाम अग्रगण्य है। और "यवै किंचन मनुरब्रवीत् तद् भेषजम्" (मनु ने जो कुछ कहा है वह औषध है) इन शब्दों में तैत्तिरीय संहिता एवं ताण्ड्य महाब्राह्मण जैसे प्राचीन ग्रंथों ने मनुप्रोक्त धर्मशास्त्र की प्रशंसा की है। वर्तमान मनुस्मृति में 12 अध्याय एवं 2694 श्लोक हैं। इस की रचना का काल, कुछ आंतर तथा बाह्य साक्षियों के आधार पर ई-पू. दूसरी शताब्दी से ईसा के उपरांत दूसरी शताब्दी के बीच में मानी जाती है। इस में जातकर्म, नामकरण, चूडाकर्म, उपनयन इत्यादि संस्कार, ब्रह्मचारी के नियम, आठ प्रकार के विवाह, गृहस्थाश्रम का धर्माचरण, सापिण्डय- विचार, श्राद्धकर्म, विधवा के कर्तव्य, वानप्रस्य और संन्यासी के कर्तव्य, राजधर्म, मंत्रि परिषद की रचना, युद्धनियम, करनियम, बारह राजाओं का मंडल, षाड्गुण्य प्रयोग, न्यायालय का व्यवहार, स्त्रीधन, संपत्ति के उत्तराधिकारी, राज्य के सात अंग, वैश्य एवं शूद्र के कर्तव्य, मिश्रित तथा अन्य जातियों के आचारनियम, प्रायश्चित, निष्काम कर्म की प्रशंसा इत्यादि मानव के धर्मजीवन से संबंधित अनेक विध विषयों का प्रतिपादन धारावाही शैली में किया है। मनुस्मृति पर मेधातिथि, गोविंदराज, कुल्लूकभट्ट, नारायण, राघवानन्द, नन्दन, एवं रामचंद्र इत्यादि विद्वानों ने मामिक टीकाएँ लिखी हैं।
जिस प्रकार धर्मशास्त्रविषयक मनुस्मृति में राजनीति की चर्चा आने के कारण, प्राचीन भारतीय राजनीति में उसका महत्त्व माना जाता है, उसी प्रकार अर्थशास्त्रान्तर्गत राजनीति का विवरण करने वाले कौटिलीय अर्थशास्त्र में प्राचीन धर्मशास्त्र से संबंधित व्यवहार का विवेचन पर्याप्त मात्रा में होने के कारण, उस ग्रन्थ का अध्ययन भी धर्मशास्त्र के आकलन के लिए महत्त्वपूर्ण माना जाता है। मनुस्मृति जैसे आदर्श धर्मशास्त्र में जिन विषयों का प्रतिपादन हुआ है, उसी प्रकार के विविध विषयों का विवेचन उत्तर कालीन अनेक स्मृति-ग्रंथों एवं धर्मनिबंधों में हुआ है। धर्मशास्त्र विषयक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की नामावलि परिशिष्ट में दी है तथा प्रस्तुत कोश में यथास्थान उनका संक्षेपतः परिचय दिया गया है। इन सभी धर्मशास्त्रकारों ने अपने ग्रन्थों द्वारा जो वैचारिक योगदान समय समय पर दिया, उस से इस देश का पुत्ररूप समाज (अर्थात हिंदू समाज) धार्मिक, नैतिक, व्यावहारिक इत्यादि सभी क्षेत्रों में एकसूत्र में सदियों से आबद्ध रहा। प्राचीन धर्मशास्त्रियों ने प्रत्येक जाति के सदस्यों एवं प्रत्येक व्यक्ति को इस देश के समाज का अविच्छेद्य अंग माना है। यही एक महत्त्व का कारण है कि जिसने इस समाज को भीषण परकीय आक्रमणों में भी पर्याप्त मात्रा में सुव्यवस्थित रखा। आज भारत में जिन कुप्रथाओं का सर्वत्र प्रचार दिखाई देता है, उनका मूल कारण धर्मशास्त्र में निर्दिष्ट वर्णधर्म और जातिधर्म के तत्कालीन विधि-निषेध माने जाते हैं। आज के समाज सुधारवादी लोगों का, धर्मशास्त्र में प्रतिपादित, जातिव्यवस्था एवं वर्णव्यवस्था पर बड़ा रोष है। प्रस्तुत प्रकरण में उस विवाद में जाने की आवश्यकता
36/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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