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वैयाघ्रपाद ]
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[वैशेषिक दर्शन
अनुशीलन किया गया है । 'वेदांगज्योतिष' एकमात्र वैदिक ज्योतिष का ग्रन्थ है जिसके रचयिता लगध मुनि हैं । ज्योतिष को वेद का नेत्र कहा गया है [दे. ज्योतिष ] ।
आधारग्रन्थ-वैदिक साहित्य और संस्कृति-पं. बलदेव उपाध्याय ।
वैयाघ्रपाद-संस्कृत के प्राचीन वैयाकरण (पाणिनि के पूर्ववर्ती ) जिनका समय मीमांसकजी ने ३१०० वि०पू० माना है। वैयाघ्रपाद का उल्लेख 'काशिका' में व्याकरण-प्रवक्ता के रूप में किया गया है। गुणं स्विगन्ते नपुंसके व्याघ्रपदा वरिष्ठः । काशिका ७।१९४ । इनके पिता महर्षि वसिष्ठ थे इस बात का उल्लेख महाभारत के अनुशासनपर्व में है-व्याघ्रयोन्यां ततो जाता वसिष्टस्य महात्मनः। एकोनविंशतिः पुत्राः ख्याता व्याघ्रपदादयः ॥ ५३॥३० । इसके अतिरिक्त शतपथ ब्राह्मण (१०६) जैमिनि ब्राह्मण, जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण ( ३७॥३॥२॥, ४।९।१।१ ) एवं शांख्यायन भारण्यक ( ९७॥) में भी वैयाघ्रपाद का नाम उपलब्ध होता है। काशिका के एक उदाहरण से जात होता है कि वैयाघ्रपादीय व्याकरण में दस अध्याय रहे होंगे। 'दशकाः वैयाघ्रपदीयाः। ४२६५ । दशकां वैयाघ्रपदीयम्' काशिका ५११५८ । वंगला के प्रसिद्ध 'व्याकरण शास्त्रेतिहास' के लेखक श्रीहालदार ने इनके व्याकरण का नाम वयाग्रपद एवं इनका नाम व्याघ्रपात लिखा है, किन्तु मीमांसकजी ने प्राचीन उद्धरणों के आधार पर इनके मत का खंडन करते हुए 'वैयाघ्रपाद' नाम को ही प्रामाणिक माना है। इस सम्बन्ध में सीमांसकजी ने अपना मत स्थिर करते हुए कहा है कि 'महाभाष्य' । एक अन्य व्याघ्रपान नामक वैयाकरण का उल्लेख है, किन्तु वे वैयाघ्रपाद से अभिन्न नहीं हैं। 'हां, महाभाष्य ६२।२६ में एक पाठ है-आपिशलपाणिनीयव्याडीयगौतमीयाः' । इसमें व्याडीय का एक पाठान्तर 'व्याघ्रपदीय है। यदि यह पाठ प्राचीन हो तो मानना होगा कि आचार्य 'व्याघ्रपत्' ने भी किसी व्याकरणशास्त्र का प्रवचन किया था। 'संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास' पृ० १२४ (प्रथम भाग)। इनके सम्बन्ध में अन्य अधिक विवरण प्राप्त नहीं होते।
आधारग्रन्थ-संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास-पं० युधिष्ठिर मीमांसक ।
वैशेषिक दर्शन-यह महर्षि कणाद द्वारा प्रवर्तित भारतीय दर्शन का एक सम्प्रदाय है । 'विशेष' नामक पदार्थ की विशद विवेचना करने के कारण इसे वैशेषिक कहा जाता है। कणाद का वास्तविक नाम 'उलूक' था, किन्तु कणों पर जीवन धारण करने के कारण उन्हें कणाद कहा गया। वैशेषिक दर्शन को 'ओलूक्यदर्शन भी कहा जाता है। 'वैशेषिकसूत्र' इस दर्शन का मूल ग्रन्थ है, जिसकी रचना कणाद ने को थी। इसमें दस अध्याय हैं और सूत्रों की संख्या ३७० है। प्रत्येक अध्याय दो-दो आह्निकों में विभाजित हैं। इसके ऊपर रावण ने भाष्य लिखा था, जो 'रावणभाष्य' के नाम से प्राचीन ग्रन्थों में निर्दिष्ट है । किन्तु, यह अभी तक अनुपलब्ध है। इस पर प्रशस्तपाद का 'पदार्थधर्म-संग्रह' नामक प्रसिद्ध भाष्य है जो मौलिक ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठित है। प्रशस्तपादभाष्य की दो टीकाएं है-उदयनाचार्य की किरणावली' एवं श्रीधराचार्य की 'न्यायकंदली'। इसके बाद वैशेषिक दर्शन के जितने भी. ग्रन्थ लिखे गये सबों में न्याय और वैशेषिक का मिश्रण है। इनमें शिवादित्य की 'सप्तपदार्थी',