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सांस्यदर्शन ]
( ६४५)
[ सांस्यदर्शन
व्यक्ति को न तो सुख मोर न कष्ट ही देता है। सांख्य कार्य और कारण के धर्म में संगति स्थापित करता है, अर्थान् जो गुण कार्य में होते हैं वही कारण में भी विद्यमान रहते हैं। इसीलिए संसार के मूल कारण प्रकृति में भी तीनों गुणों की सत्ता है। सत्त्वगुण लघु या हल्का, प्रकाशक तथा इष्ट या मानन्द स्वरूप होता है। यह जहाँ भी रहेगा वहाँ इसी प्रकार रहेगा। सत्त्वगुण के ही कारण आग की ज्वाला तथा भाप की गति ऊध्वंगामिनी होती है। सभी प्रकार के सुख, हर्ष, उहास आदि सत्वगुण के ही कारण होते हैं। रजोगुण प्रवृत्तिशील या चंचल होता है तथा उत्तेजक होने के कारण दूसरों को भी चंचल बना देता है। यह क्रिया का प्रवत्तंक होता है। रजोगुण के कारण वायु में चंचलता एवं गतिशीलता आ जाती है और रज के ही कारण इन्द्रियां विषय की
ओर जाती हैं, तथा मन चंचल रहता है। सत्त्व और तम निष्क्रिय होते हैं; उनमें रज के ही कारण गतिशीलता आती है। यह दुःखात्मक होता है, अतः वस्तु में इसका प्राधान्य होने पर दुःख उत्पन्न होता है। तमोगुण भारी एवं अवरोधक या नियामक होता है। यह सत्त्वगुण का विरोधी तथा रजोगुण की प्रवृत्ति को रोकनेवाला है जिससे वस्तु की गति नियन्त्रित हो जाती है । इसके कारण ज्ञान का प्रकाश फीका पड़ जाता है और अज्ञान या अन्धकार उत्पन्न होता है। यह मोह बोर अज्ञान को उत्पन्न करनेवाला तथा निद्रा, तन्द्रा और आलस्य का उत्पादक है । यह दुःख एवं उदासीनता का कारण होता है। सत्त्वगुण का रंग शुक्ल ( उज्ज्वल), रजोगुण का लाल तथा तमोगुण का काला होता है। उपर्युक्त तीनों गुण विरोधी होते हुए सहयोगी भी हैं। इनमें एक स्वयं कोई कार्य कर नहीं पाता। ये परस्पर विरुद्ध होते हुए भी पुरुष का कार्य सम्पन्न करते हैं।
पुरुष या आत्मा-'सांस्यकारिका' में पुरुष का अस्तित्व सिद्ध करते हुए कहा गया है कि "संघात के पराथं होने से, त्रिगुणादि से विपरीत होने से, सभी त्रिगुणात्मक वस्तुओं के लिए (चेतन) अधिष्ठाता एवं भोक्ता की अपेक्षा होने तथा मोक्ष की ओर प्रवृत्ति होने से पुरुष की पृथक् सत्ता सिद्ध होती है।" १७ सांख्यदर्शन में आत्मा का अस्तित्व स्वयं सिद्ध होता है तथा उसके अस्तित्व का किसी प्रकार खंडन नहीं होता। वह ( पुरुष ) शरीर, इन्द्रिय, मन तथा बुद्धि से भिन्न शुद्धचैतन्य स्वरूप है। वह प्रकृति के घेरे से पृथक् रहता है तथा निष्क्रिय और उदासीन है । वह नित्य, म्यापक, कूटस्थ तथा अविकारी है, उसमें विकार नहीं उत्पन्न होता। उसे सुख-दुःख का अनुभव नहीं होता, क्योंकि वह प्रकृति के घेरे से बाहर होता है। वह सभी विषयों से असम्पृक्त तथा राग-द्वेष से रहित है। सांख्य पुरुष का अनेकत्व स्वीकार करता है। इसके अनुसार प्रत्येक जीव की आत्मा पृथक्-पृथक् है । जन्म, मरण तथा इन्द्रियों की व्यवस्था, एक साथ प्रवृत्ति के अभाव तथा गुणों के भेद के कारण पुरुष की अनेकता सिद्ध होती है। ___ सृष्टि-प्रकृति और पुरुष के संयोग से ही सृष्टि होती है। प्रकृति बड़ होती है और पुरुष निष्क्रिय होता है। अतएव, सृष्टिनिर्माण के लिए दोनों का संयोग आवश्यक