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त्रिपुरदहनम् ]
( ६९३ )
| दयानन्द सरस्वती
किया है । इस महाकाव्य के प्रथम सात सगं जैनधर्म -विद्याप्रसारकवर्ग, पालिताना से प्रकाशित हो चुके हैं। इसका एक हस्तलेख जैनशालानो भण्डार, खम्भात में सुरक्षित है । इस महाकव्य में धार्मिक तत्त्व एवं विविध ज्ञान के अतिरिक्त सौन्दर्य-विधान तथा रस का सुन्दर परिपाक हुआ है । इसके प्रत्येक सगं में अनुष्टुप् छन्द का प्रयोग हुआ है, पर सगं के अन्त में अन्य छन्द प्रयुक्त हुए हैं ।
त्रिपुरदहनम् - महाकाव्य । इसके प्रणेता वासुदेव हैं । वासुदेव ने 'युधिष्ठिरविजय' नामक एक अन्य यमकप्रधान महाकाव्य की भी रचना की है। इस महाकाव्य में आठ आश्वास हैं और महाभारत की कथा का संक्षेप में वर्णन है । कवि पाण्डु की मृगया वर्णन की घटना से काव्य का प्रारम्भ कर युधिष्ठिर के राज्याभिषेक तक की कथा का वर्णन करता है । 'त्रिपुरदहनम्' में असुरों द्वारा त्रैलोक्य के पीड़ित होने पर देवताओं का शंकर भगवान् से प्रार्थना करना एवं भगवान् श्री हरि का कैलाश पर्वत पर जाकर शंकर जी की आराधना करने का वर्णन है । धर्मभ्रष्ट असुरों पर शिव जी का क्रुद्ध होना एवं असुरों का उनकी क्रोधाभि में भस्मीभूत होने की घटना को इस महाकाव्य का कथानक बनाया गया है। इस पर पंकजाक्ष नामक व्यक्ति ने 'हृदयहारिणी' व्याख्या की रचना की है। इस महाकाव्य में तीन आश्वास हैं ।
दयानन्द सरस्वती-आयं समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म काठियावाड़ (गुजरात) के मौरवी राज्य के टंकारा नामक ग्राम में ( १८८१ वि० सं० में ) हुआ था। इनका मूल नाम मूल शंकर था । स्वामी जी के पिता का नाम करसन जी त्रिवेदी था जो सामवेदी सहस्र औदीच्य ब्राह्मण थे। महर्षि ने आर्य समाज की स्थापना कर वेद एवं संस्कृत-साहित्य का पुनरुत्थान किया । वस्तुतः आधुनिक युग में वेदों का महत्व प्रदर्शित करने का श्रेय स्वामी जी को ही है । आपने संस्कृत ग्रन्थ रचना के अतिरिक्त संस्कृत पठन-पाठन की विधि का निर्माण, संस्कृत पाठशालाओं की स्थापना एवं संस्कृत भाषा के प्रचारार्थ आन्दोलनात्मक कार्य भी किये आपका संस्कृत भाषा पर असाधारण अधिकार था और भाषा वाग्वशा थी । आपके द्वारा रचित ग्रन्थों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है - क — ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका तथा वेदभाष्य, ख- खण्डनात्मक ग्रन्थ, ग - वेदाङ्गप्रकाश प्रभृति व्याकरण ग्रन्थ । आपने सायणाचार्य की तरह 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' की रचना की है। इस ग्रन्थ का संस्कृत साहित्य के इतिहास में महनीय स्थान है । आपने 'यजुर्वेदभाष्य' ( समाप्ति काल १९३९ वि० सं०), 'ऋग्वेदभाष्य' ( ऋग्वेद के सातवें मण्डल के
६२ वें सूक्त के द्वितीय मन्त्र तक ), 'चतुर्वेदविषयसूची', 'पञ्चमहायज्ञविधि', 'भागवत -
खण्डनम्',
'वेदविरुद्ध मत खण्डनम्', 'शिक्षापत्रीध्वान्तनिवारण', 'संस्कृतवाक्य प्रबोध' ( संलापशैली में ५२ प्रकरण ) 'वेदाङ्गप्रकाश' ( संस्कृत व्याकरण को सर्वसुलभ बनाने के लिए १४ भागों में निर्मित), 'वर्णोच्चारणशिक्षा' तथा 'अष्टाध्यायी भाष्य' नामक ग्रन्थ लिखे हैं । इसके अतिरिक्त स्वामी जी ने संस्कृत में अनेक पत्र भी लिखे हैं जिनका अत्यधिक महत्व है । गद्य के अतिरिक्त स्वामी जी ने अनेक श्लोकों की भी रचना